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फौजियों के लिए बनी थी बुलेट बाइक, एक भारतीय ने इसे बना दिया आम लोगों के लिए ‘शान की सवारी’ 

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बुलेट बाइक का टशन आज भी बरकरार है. जवानी की रंगत में रंगने जा रहे लड़कों का आज भी सपना होता है कि उनके नीचे बुलेट बाइक हो और वो लहराते हुए सड़क से ऐसे निकलें जैसे किसी महाराज की सवारी जा रही हो. बाजार में एक से एक बाइक आने के बावजूद बुलेट की डिमांड नहीं घटी. यूं थोड़े ना कहा जाता है कि ‘जब बुलेट चले तो दुनिया रास्ता दे’. रॉयल एनफील्ड बुलेट की लुक, डुग डुग की आवाज़ और गति जैसी कई खास बातों के लिए लोग इसे मुड़ मुड़ कर देखते हैं. 

एक बाइक आखिर लोगों के लिए शान की बात कैसे बन गई? क्यों लोग इस अपने बच्चे की तरह संभाल कर रखने लगे? क्या ये बुलेट बाइक स्वदेशी है? बुलेट से जुड़े ऐसे बहुत से सवालों के जवाब आपको इस लेख में मिलेंगे. 

सुई से बुलेट बनाने तक का सफर 

आज जो रॉयल एनफील्ड अपनी ताकतवर मोटरबाइक्स के लिए जानी जाती है उसकी पेरेंट कंपनी ने अपने बिजनेस की शुरुआत सुई बनाने से की थी. जॉर्ज टाउनसेंड नाम के शख्स ने गिरवी वर्क्स नाम से एक सुई बनाने की कंपनी शुरू कि. जॉर्ज ने 1851 में किन्हीं कारणों से अपनी ये सुई बनाने वाली कंपनी बंद कर दी. कंपनी ने सुई बनाना तो बंद कर दिया था लेकिन ये कंपनी बंद नहीं हुई. जॉर्ज के बेटे जॉर्ज जूनियर और उसके भाई ने बोनशकर्स नाम से इस कंपनी की दोबारा से शुरू आयात की और इस कंपनी में अब सुई के बदले साइकिल बनने लगी. 1880 आते आते ये कंपनी साइकिल के पार्ट्स और फिर इसके आने वाले सालों में अपनी खुद की मशीनें बनाने लगी.

पहले बनाई साइकिल फिर बनी मोटरसाइकिल कंपनी 

पैसों की कमी के कारण 1890 में जॉर्ज जूनियर ने एक अन्य कंपनी के साथ हिस्सेदारी कर ली लेकिन उनका ये आइडिया काम नहीं आया. कंपनी बिक गई और इसके नए मालिक हुए Financiers Albert Eadie और R.W Smith. 1896 में इस साइकिल बनाने वाली कंपनी को नया नाम मिला ‘The New Enfield Cycle Company Limited’ . साइकिल के पार्ट्स बनाने वाली इस कंपनी ने 1899 में कुछ नया करने का सोचा और इसके बाद इन्होंने 4 पहिए वाली साइकिल बना दी. इस कंपनी की कुछ नया करने की ललक बढ़ती रही और ये अपनी साइकिल पर नए नए प्रयोग करती रही. इस तरह Albert Eadie और Robert Walker Smith ने 1901 में Minerva कंपनी का 239 सीसी इंजन इस्तेमाल करते हुए मोटर से चलने वाली साइकिल बनाई.

आर्मी के लिए तैयार हुई थी बुलेट 

आज आम लोगों के बीच लोकप्रिय होने वाली ये बाइक सबसे पहले फौजियों के लिए बनाई गई थी. साल 1914 से 1918 तक इस कंपनी ने फर्स्ट वर्ल्ड वॉर के दौरान ब्रिटेन, बेल्जियम, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस की सेनाओं को मोटरसाइकिल सप्लाई किए. बता दें कि तब तक बुलेट बाइक का निर्माण नहीं हुआ था. बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार साल 1932 में कंपनी ने स्लोपर इंजन के साथ ‘बुलेट’ मोटरसाइकिल का निर्माण किया. इसके बाद साल 1939 से 1945 तक सेकेंड वर्ल्ड वॉर के दौरान कंपनी ने मिलिट्री मोटरसाइकिलों के साथ-साथ साइकिलों, जनरेटर और एंटी एयरक्राफ़्ट गनों का भी निर्माण किया. इनमें सबसे मशहूर ‘फ्लाइंग फ्ली’ थी, जिसका प्रयोग पैराशूट और ग्लाइडर सैनिक करते थे. 

भारत कैसे पहुंची ये मोटरबाइक? 

आज जिसके दरवाजे पर बुलेट बाइक खड़ी होती है उसे लोग अमीर मानते हैं लेकिन एक समय भारत सरकार ने इस बाइक को सेना के लिए मंगवाया था. दरअसल, भारत सरकार को बॉर्डर की निगरानी के लिए सैनिक बाइकों की जरूरत थी. इस जरूरत को पूरा करने के लिए सरकार ने 1954 में सेना के लिए एनफील्ड को 800 बाइकों का ऑर्डर दिया. भारत सरकार को बुलेट इतनी भा गई कि उन्होंने 1955-56 में फौजियों के साथ साथ पुलिस के लिए भी बुलेट्स की मांग कर दी. हालांकि रॉयल एनफील्ड के लिए इतनी बड़ी मांग पूरी करना आसान बात नहीं थी. उन्होंने सरकार की पहली डिमांड ही बड़ी मुश्किल से पूरी की, इसके बाद जब उन्हें दूसरी डिमांड हुई तो कंपनी ने भारत में ही बुलेट की असेंबली यूनिट स्थापित करने का निर्णय लिया.

मद्रास में शुरू हुई बुलेट की असेंबल यूनिट 

1955 में Redditch Company और मद्रास मोटर्स जैसी कंपनियों में पार्टनरशिप में हो गई. मद्रास मोटर्स ने बुलेट असेंबल करने की ट्रेनिंग के लिए अपने कुछ टेक्नोक्रैट्स को इंग्लैंड भेजा. उनकी ट्रेनिंग पूरी होने के बाद भारत में बुलेट असेंबल यूनिट्स भारत में शुरू हुई. कुछ ही समय में सेना और पुलिस के लिए तैयार होने वाली बुलेट बाइक आम लोगों के बीच भी लोकप्रिय होने लगी. लोगों के बीच बुलेट की बढ़ती लोकप्रियता को देख रॉयल एनफील्ड यूके ने भारत में एनफील्ड इंडिया लि. नाम से अपनी एक सहायक कंपनी की शुरुआत की. आज का चेन्नई जो कभी मद्रास कहा जाता था, यहीं स्थापित हुई बुलेट की पहली फैक्ट्री.  

भारत की हो गई रॉयल एनफील्ड 

ये 1960 का दशक था जब रॉयल एनफील्ड ने क्लासिक मोटरसाइकिलों को विकसित करना शुरू किया. लेकिन समस्या ये थी कि इस दौर में रॉयल एनफील्ड सहित कई ब्रैंड संघर्ष कर रहे थे. इसका नतीजा ये निकला कि 1970 तक ब्रिटेन में बुलेट का निर्माण बंद हो गया. यहीं से शुरू हुई रॉयल एनफील्ड पर भारत के मालिकाना हक की कहानी. ब्रिटेन में ये कंपनी बंद होने के बाद इसकी एक भारतीय सहायक कंपनी ने इसे अपने नेतृत्व में ले लिया. 

1990 में आयशर ने एनफील्ड इंडिया में 26% हिस्सेदारी खरीदी. कंपनी पहले ही इस बाइक की वजह से बोझ तले दबी थी, इसके ऊपर 1990 में सीडी 100 के आने से रॉयल एनफील्ड को एक और झटका लग गया. एक तरह से बुलेट बाइक बाजार से बाहर हो चुकी थी लेकिन इसी दौरान एक शख्स ने इस लंगड़े घोड़े पर दांव खेला और बाजी मार ली. 

वो शख्स जिसने बदल दी रॉयल एनफील्ड की किस्मत 

आयशर, जो पहले इस कंपनी में हिस्सेदार थी उसने 1994 में इसे खरीद लिया. साल 2000 में आयशर ग्रुप को भी रॉयल एनफील्ड में घाटा उठाना पड़ा. 20 करोड़ घाटा सहने के बाद इस ग्रुप के मालिक विक्रम लाल के पास रॉयल एनफील्ड को बेचना या बंद करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था लेकिन कंपनी बंद होती इससे पहले एक शख्स ने इसे फिर से खड़ा करने का जिम्मा उठाया लिया. ये शख्स थे विक्रम लाल के बेटे सिद्धार्थ लाल. उन्होंने डिवीजन से कंपनी को घाटे से निकाल कर मुनाफे में लाने के लिए 24 महीने का समय मांगा. 

सिद्धार्थ की मांग मान ली गई और उन्हें इसका हेड बना दिया गया. उन्होंने सबसे पहले जयपुर में स्थापित हुआ नया एनफील्ड प्लांट सबसे पहले बंद किया. इसके बाद उन्होंने डीलर डिस्काउंट को भी खत्म कर दिया. इस डीलर डिस्काउंट से कंपनी पर हर महीने 80 लाख रुपए का भार पड़ रहा था. उन्होंने इस बुलेट को युवाओं की पसंद के हिसाब से बनाने के ऑर्डर दिए. उनके इन कड़े फैसलों की वजह से ही एनफील्ड को दूसरा जन्म मिला. सिद्धार्थ लाल को ट्रेक्टर बनाने वाली आयशर कंपनी के मालिक के रूप में जाना जाता है. सिद्धार्थ लाल के नेतृत्व में रॉयल एनफील्ड और इसकी बुलेट बाइक ने कामयाबी की ऊंचाइयों को छू लिया. 

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