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रूह को झकझोर देने वाली एक औरत के त्याग की कहानी: पगलिया

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“ए सुनीता, देखो पगलिया बैठी है दुआर पर. कुछ बचा है तो दे दो खाने को. इसका भी ना जाने कौन जनम का कर्जा खाए हैं. दोनों बेर (वक्त) का खाना महरानी को यहीं से चाहिए. जैसे कि नौकर लगे हों इनके.“ नलके का हैंडिल मारते हुए सुनीता की मां ने कहा. वैसे ये उनका क्षणिक गुस्सा था. पगलिया से तो उन्हें ऐसा मोह था कि जैसे इसकी रिश्तेवाली हो. गालियां खूब देती है लेकिन जब कभी वो एक समय भी खाने के लिए ना आए तो फिक्र लग जाती है इसे. 

“ऐसे ना बोला करो बहू. बहुत शुभ है घर के लिए वो. दिवाकर के गुजर जाने के बाद घर में कोई मर्द नहीं बचा था. बहुत अकेला और डरा हुए लगता था. सोचते थे कैसे तुम्हारा सुरक्षा करेंगे हम. तब यही पगलिया हमारी हिम्मत बनी. मजाल है किसी का जो घर का दहलीज पार कर के घर के भीतर घुस आए. काट खाने को दौड़ती है. इसको कोई कुछ कहता है तो बहुत दुख लगता है.“ ” बाहर खाट पर लेटी दादी ने सुनीता की मां से कहा.

“अरे अम्मा, हम तो ऐसे ही दुलार में कह देते हैं. हमारा खुद का मन नहीं लगता इसको देखे बिना. पिछले जन्म का कुछ तो रिश्ता रहा होगा इसका हमसे. जब भी हम कुछ सोच के रोने लगते थे तो ये चुपचाप सामने आ कर बैठ जाती थी. लगता जैसे हमको चुप करा रही हो. भला इसका अहसान हम कैसे भुला सकते हैं.” दोनों सास बहू उस पगलिया के बारे में बात करती रहीं. तब तक सुनीता उसे खाना देने चली गई. सुनीता का भी उससे अलग ही स्नेह था. जब तक वो खाना खाती तब तक सुनीता उसे एकटक देखती रहती. इधर पगलिया जितने स्नेह के साथ सुनीता को देखती थी उतना किसी को नहीं.

कोई नहीं जानता था कि ये कौन है. एक दिन अचानक ही गाँव के बाहर वाले खेतों में कुछ महिलाओं को ये बेहोश पड़ी मिली थी. उसकी हालत देख कर लोगों के मन में कई तरह के सवाल भी उठे थे. किसी ने कहा कि दुष्कर्म का शिकार हुई है, कोई बोला जासूस है, किसी के लिए भिखारी तो किसी के लिए पागल कहलाई. कुछ भले मानस लोग उसे होश में लाए, दवा दारू कराया, खाना और कपड़े दिए. लोग नाम गाँव और उसके साथ क्या हुआ ये सब पूछते रह गए लेकिन पगलिया ने मुंह नहीं खोला. वो बस दीवार को देखती रहती. अब भला किसके पास इतना सामर्थ्य था कि उसका भरण पोषण कर पाता. कुछ समय में सबने उससे किनारा कर लिया. पगलिया भी शायद यही चाहती थी, वो अब अपने मन से इधर उधर घूमती, ऐसे लगता जैसे किसी को ढूंढ रही हो. कुछ वक्त तक तो जहां से मिल जाता वहां से खा लेती लेकिन उसके बाद वो सुनीता के घर से ही खाने लगी. 

जब पहली बार सुनीता की मां ने उसे देखा तो उसके मुंह से यही निकला “इस रूप पर ईश्वर का कैसा कहर ढहा है. ये अगर सही होती तो कितनी सुंदर होती.” सच ही तो था, ऐसा लगता था जैसे उसके चेहरे पर वक्त ने उदासी और दुख पोत दिए हों. वो लोगों को बहुत घिनौनी और बदसूरत लगती थी लेकिन सुनीता की मां ने उसकी खूबसूरती पहचान ली थी. उसने कई बार उसको अपने तब के कपड़े देने चाहे जब वह सुहागिन थी लेकिन पगलिया उन कपड़ों को हाथ तक ना लगाती. धीरे धीरे वह इस गाँव का हिस्सा हो गई. बहुतों ने उसका फायदा उठाना चाहा लेकिन उसका पागलपन ही उसका हथियार बना रहा. कुछ ऐसी घटनाएं हुईं कि फिर दोबारा किसी ने उस पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं की. वो खुद को घिनौनी भी इसी वजह से बना कर रखती जिससे कोई उसके आस पास ना फटक सके. 

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“ए पगलिया माई, कम से कम आज तो नहा लो. हम कपड़ा देते हैं उसको पहन लो. आज बसंत है.”

“जेकर पिया परदेस गए हो

मन को लगा के ठेस गए हो 

ओकर काहे के बसंत दिवाली 

भरल मेला लागे है खाली 

जेकर पिया परदेस गए हो.” सुनीता की बात पर पगलिया बुदबुदाई. सुनीता ने पहली बार पगलिया को बोलते सुना था. वैसे दादी बताई थी कि पगलिया गूंगी नहीं बस बहुत ही कम बोलती है. सुनीता के लिए ये बहुत ही चौंकाने वाला पल था. 

“पगलिया माई तुम तो बोलती हो जी. पहिला बार तुम्हारा आवाज़ सुने हैं. कितना मीठा बोलती हो. क्या तुम्हारे पति तुम्हें छोड़ कर चले गए थे ? उसी वियोग में तुम ऐसी हो गई ?” इन सब सवालों के जवाब में पगलिया बस नम आँखों के साथ मुस्कुराई थी. 

“ए सुनीता, घर में ढेर काम पड़ा है और तुम हो कि पगलिया से गप्पें लड़ा रही हो. चलो अंदर.” सुनीता को जाना पड़ा. पगलिया उसे जाता हुआ देखती रही. 

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“नहीं नहीं, ऐसा संभव नहीं है. इसीलिए तुमको इतना छूट दिए थे ? आज तुम्हारे पिता जी होते तो तुम्हारा हिम्मत नहीं पड़ता ये सब गुल खिलाने का.”

“ए मां, इतना गंदा मत बोलो, हम कुछ गलत नहीं किए हैं. बस प्रेम किए हैं. गोपाल अच्छे इंसान हैं. वो साफ बोले हैं कि अम्मा और दादी का मर्जी होगा तभी शादी करेंगे नहीं तो नहीं करेंगे.”

“तो कह दो कि नहीं करेंगे. काहे कि ऐसा नहीं हो सकता. एक तो हमारे सिर पर किसी का हाथ नहीं है, पट्टी पटीदार की मदद से घर का रोटी चल रहा है. तुम्हारा शादी अगर जाति से बाहर कर दिए तो कोई नहीं आएगा हमारी मदद को. खेत में एक दाना नहीं उगेगा. का चाहती हो अब हम और तुम्हारी दादी खेत में काम करने जाएं ? ऊपर से लोग सबका ताना सुनने को मिलेगा सो अलग.” सुनीता गिड़गिड़ाती रही, अपनी मां को मनाती रही लेकिन वो अपने फैसले से टस से मस ना हुई. दादी बस चुपचाप सब सुनती रही. उस रात सुनीता की आँखों में नींद नहीं उतरी. उसकी मां भी देर रात तक जागती रही लेकिन फिर उनकी आँख लग गई.  

अगले दिन जब अम्मा की आँख खुली तो देखा कि सुनीता घर से गायब थी. बिना कुछ जाने ही अम्मा माथा पकड़ के बैठ. लोगों के डर से वो चिल्ला भी नहीं सकती थी. उसने अपनी चीखों को अंदर ही दबा लिया. लेकिन यहां चिल्लाने वाली वो अकेली नहीं थी और भी बहुत सी आवाज़ें चिल्लाते हुए उसी के घर की तरफ बढ़ रही थीं. उन आवाज़ों को सुन किसी अनहोनी के डर से अम्मा का कलेजा कांप गया. चिल्लाने की आवाज़ से दादी की भी नींद खुल गई. अम्मा को लगा कि शायद सुनीता के घर से भागने की खबर सबको पता चल गई है, वर्ना इतनी सुबह इतने लोगों के जमा होने का क्या मतलब बनता है. कुछ ही पलों में सुनीता के दुआर पर भीड़ जमा थी. अम्मा डरते डरते दुआर तक पहुंची लेकिन वहां पहुँचने के बाद उनके रहे सहे होश भी उड़ गए. 

सामने सुनीता भीगे कपड़ों में खड़ी कांप रही थी और पगलिया को लोग उठा कर ला रहे थे. अम्मा ने तुरंत अपना शाल उतार कर सुनीता को ओढ़ा दिया और उसे गले लगा कर रोने लगी. 

“चाची आज शुकर मनाओ कि पगलिया समय पर पहुंच गई नहीं तो ये सुनैनबा आज खतम थी समझो. केतना बार सबको समझाए हैं कि नदी के धार में ना उतरा करे, बहाव तेज होता है लेकिन कोई सुनता ही नहीं.” लोग अपनी कहानियां कहते रहे और सुनीता की मां उसे लेकर अंदर चली गई. पगलिया वहीं जमीन पर एक किनारे में सिकुड़ी सी पड़ी रही. अपने मन की बातें कर के सब वहां से चले गए. सुनीता की मां ने पगलिया को ओढ़ने के लिए भी कुछ दे दिया. वो दुआर पर ही बैठी रही. 

“अच्छा होता कि मर ही जाती. इस झंझट से छुटकारा तो मिलता. बताओ आतमहत्या करने गई थी. हम सबसे बढ़ के इसके लिए कोई और हो गया ? बता तो सही क्या कमी छोड़े हम तेरे लिए. बाप पहले ही छोड़ गया तेरा लेकिन फिर भी कभी उनका कमी नहीं महसूस होने दिए. फिर काहे की ऐसा ?” मां के गुस्से में हमेशा चिंता की मात्रा ज़्यादा होती है. अम्मा के साथ भी अभी ऐसा ही था. 

“तो क्या करते ? नहीं कर सकते किसी और से शादी और तुम्हारे खिलाफ जा नहीं सकते. बताओ कोई रास्ता बचा है ऐसे में ? सोचे कि खुद को ही खत्म कर लेते हैं, सारा झंझट ही खत्म हो जाएगा.”

“तो कर लो खत्म लेकिन तुम्हारा शादी उसके साथ तो नहीं होने देंगे.”

“क्यों नहीं होने दोगी ?” इस आवाज़ ने सबको चौंका दिया था. यह पगलिया की आवाज़ थी. पगलिया की इतनी विश्वास से भरी आवाज़ आज तक किसी ने नहीं सुनी थी. 

“शायद और दिन तुम्हारा ऐसा आवाज़ सुनते तो मन खुश होता लेकिन आज हमारा कपार बहुत गरम है इसलिए चुप ही रहो तो बेहतर है.” 

“तुम्हारी बातें सुन सुन कर हमारा कपार भी गरम हो रहा है. कल से सुन रहे हैं तुम्हारा ये भासन. आज अगर इसको कुछ हो जाता तो कभी माफ नहीं कर पाती खुद को.” पगलिया आज एक अलग ही रूप में नज़र आ रही थी.  

“खुद का जिंदगी तुमसे संभाला नहीं गया और हमारे घर का मामला में ज्ञान देने चली हो. अपना जीवन देखो तुम.” 

“अपना ही जीवन देख रहे हैं, इस घर का ध्यान रखना ही हमारा जीवन है. तुम चाहे हमको मार डालो लेकिन हम यहां से नहीं हिलेंगे. दोबारा वो सब नहीं होने देंगे इस घर में जो सालों पहले हुआ था. उसके कारण तीन लोग का जीवन बर्बाद हो गया. इस बच्ची का जिंदगी नहीं बर्बाद होने देंगे.”

“बिना जाने समझे कुछ ना बोलो तुम. इस घर में ऐसा कभी कुछ नहीं हुआ. और वैसे भी कितना जानती हो तुम इस घर के बारे में.”

“उतना जानते हैं जितना तुम कभी जान ही नहीं पाओगी. जो ढका है उसे ढका ही रहने दो. तुम बस इतना जान लो कि सुनीता की शादी वहीं होगी जहां वो चाहती है.”

“तुम ऐसा बोलने वाली होती कौन हो. निकलो हमारे घर से.” गुस्से से आग बबूला हो रही सुनीता की मां पगलिया को धक्के मार कर घर से बाहर निकालने लगी. 

“ठहर जाओ बहू. उसको हाथ भी लगाया तो अच्छा नहीं होगा. तुम नहीं….” दादी कुछ बोलते बोलते अचानक रुक गई. 

“अम्मा इसके लिए तुम हम को डांट रही हो. हमारी रोटी खा कर आज हमें ही आँख दिखा रही है. इससे अच्छा कि सांप को दूध पिला लिए होते. इसको कह दो यहां से चली जाए और दोबारा अपना मनहूस मुंह ना दिखाए.” इतना कह कर सुनीता की मां अंदर चली गई. पगलिया भी वहां से चली गई. दादी पगलिया के प्रति अपनी बहू का ये व्यवहार देख खुद के आँसू रोक ना सकी.

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“कुछ खा ले, सुबह से दोनों मां बेटी ने कुछ नहीं खाया.”

“उसको खिला दो अम्मा हमको भूख नहीं है.”

“अरे खाने से कैसा दुश्मनी.” 

“खाने से दुश्मनी नहीं है अम्मा, बहुत दुख हो रहा है. आप उस पगलिया के लिए हमको उसके सामने सुना दीं. भला ऐसे में खाना गले से नीचे कैसे उतरेगा ?”

“बहू, उसका सच अगर तू जानती ना तो उसके बारे में गलत बोलने से पहले हजार बार सोचती.”

“ऐसा कौन सा सच है उस अनाथ जो हम नहीं जानते. हमारे ही तो सामने रही है वो. हमने ही उसको खिलाया और आज हमारी ही बेटी पर हक़ जता रही है.”

“अनाथ तो ज़रूर थी लेकिन ऐसी हालत नहीं थी इसकी. रूप ऐसा था कि गौर से देख लो तो मैली हो जाए. ये उदासी की परत ने इसका रूप रंग दोनों खा लिया.” 

“आप इसके बारे में इतना कैसे जानती हैं ? और इसकी ऐसी हालत हुई कैसे ? कोई खोजने नहीं आया इसको ?”

“कोई होता तब ना खोजता. आगे पीछे कोई नहीं था. जो अपने कहलाते थे वो इसके जाने से खुश ही हुए होंगे. सोचा होगा सिर से एक बोझ उतर गया. और इसकी ऐसी हालत की जिम्मेदार हम ही हैं बहू.” इतना कह कर दादी रोने लगी. ये सुन कर अम्मा एक दम हैरान रह गई. उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था.    

“आप जिम्मेदार कैसे हुई ? आपने इसके साथ ऐसा क्या कर दिया.”

“वही जो तुम आज सुनीता के साथ कर रही हो. कभी ऐसा ही हमने दिवाकर के साथ किया था. दिवाकर कई सालों तक अपनी मौसी के यहां रह कर पढ़ा था. ये वहीं की है. दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगे. दिवाकर जब अपनी पढ़ाई पूरी कर के घर आया तब हमने उसकी शादी तुमसे तय कर दी लेकिन दिवाकर को ये मंजूर नहीं था. उसने हमको इसकी तस्वीर दिखाई, मनाने की बहुत कोशिश की लेकिन हम नहीं माने. वो जिद करने लगा कि उस लड़के के सिवा किसी और से शादी नहीं करेंगे. बात अभी हम तक ही थी. दिवाकर के पिता जी को इस बारे में कुछ नहीं पता था. उन दिनों हमारे तेवर अलग ही हुआ करते थे. हमने जब सुना कि लड़की किसी और जात की है ऊपर से अनाथ है तो हमने एकदम से मना कर दिया. दिवाकर फिर भी नहीं माना, तब हमने उसे धमकी दी कि अगर उसने इस शादी से मना कर के उस लड़की से शादी की तो हम जहर खा लेंगे. दिवाकर हमको बहुत मानता था, अपना मन मार कर रह गया. उसकी तुमसे शादी हो गई. उसके बाद भी वो इस लड़की का हाल चल पूछने जाता था. हम उसको चाह कर भी नहीं रोक पाते थे. दिवाकर एकदम से बदल गया था. उसी बीच उसके पिता जी भी चल बसे और फिर दिवाकर भी…. घर पर मानों दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. तुमको लेकर हमेशा चिंता रहती थी. उसी बीच इसे एक दिन अचानक से दुआर पर देखा. पहले तो हम इसे पहचान नहीं पाए लेकिन समय के साथ साथ हमको ध्यान आ गया. हमने इसे समझाने की बहुत कोशिश की कि अपने रिश्तेदारों के पास लौट जाए और कहीं शादी कर के सुख से अपनी जिंदगी बिताए लेकिन ये अपनी सुध में नहीं थी. बस एक ही बात रटती थी, हमारा सुख तो कब का छिन गया. इसे जब दिवाकर के बारे में पता लगा तो ये सब कुछ छोड़ कर यहां चली आई. इसने पहले ही मना कर दिया था कि उसके बारे में तुम्हें कुछ ना बताएँ, तुम्हें दुख होगा. इसने जितना कुछ हमारे लिए किया है उसका कर्जा हम कभी नहीं उतार सकते. हम अपनी जिद के कारण तुम दोनों के दोषी बन गए बहू.” दादी इतना कह कर रोने लगी. 

इधर अम्मा समझ ही नहीं पा रही थी कि उसे इस समय कैसा महसूस करना चाहिए. वो अपनी सास पर गुस्सा करे, पगलिया के प्रेम को प्रणाम करे या फिर उसने जो पगलिया को कहा उसके लिए खुद पर ग्लानि करे. वो दुआर की तरफ भागी. पगलिया दुआर पर ही बैठी थी. अम्मा से पहले सुनीता उसे जा कर लिपट चुकी थी. उसने भी दादी की सारी बातें सुन ली थीं. 

“क्या देखने आई हो ? हम गए कि नहीं. कहा था ना भले ही मार डालो हमको लेकिन हम कहीं नहीं जाने वाले.” पगलिया ने कांपती हुई आवाज़ में कहा. अम्मा एकदम उसके नजदीक जा कर बैठ गई. 

“कहां से लाई हो इतना धैर्य ? कैसे ये सब कर पाई ? हमने तो कभी किस्से कहानी में भी ऐसा प्रेम ना सुना ना पढ़ा. आज अगर वो जिंदा होते तो निश्चित ही हम उनको कहते कि वो तुमको स्वीकार कर लें. 

“प्रेम सब करवा देता है. हमारा बसंत हमसे छिन गया था लेकिन उसके होने का अहसास तो कर ही सकते थे और यहां से बेहतर अहसास और कहां मिलता हमको. यहां की हवा में उनकी महक घुली है. हमें तो यहां पतझड़ में भी बसंत दिखता है, आँखों से सावन बरसता है. ऐसा प्रेम खुशनसीबों को मिलता है जो आपके अंदर हर सुंदर मौसम को हमेशा के लिए जिंदा कर दे. वैसे भी तुम्हारे साथ तो हमसे ज्यादा अन्याय हुआ है. अगर हम ना होते तो जितना भी समय वो जिंदा रहे, सिर्फ तुम्हारे होते.”

“हां शायद लेकिन इस प्रेम के बारे में जान कर हमको अपने लिए कोई अफसोस नहीं है. बहुत बड़ा गलती हो गया हमसे. क्या कुछ नहीं बोले तुमको. हमको माफ कर दो.” 

“एक ही शर्त पर माफ करेंगे. सुनीता की शादी उसकी मर्जी से करवा दो.” 

“लेकिन लोग समाज का क्या करेंगे ? आगे का भी तो सोचना है ना.”

“तुम्हारे हमारे या उनके साथ जो हुआ उसके बाद समाज में कौन हमारी मदद के लिए आगे आया ? समाज की चिंता तब करो जब कुछ गलत कर रही हो. अपनी बेटी की खुशी का सोचना कैसे गलत होगा ? मत बर्बाद करो उसका जिंदगी. बाकी आगे की चिंता ना करो, ईश्वर सब सही करेंगे.” सुनीता की अम्मा इसके बाद कुछ नहीं बोली बस पगलिया को सहारा दे कर उठाया और अंदर ले गई. 

आज पगलिया  का वो ख़्वाब पूरा हुआ था जो उसने सालों पहले कभी देखा था, वो अपने पिया घर आ गई थी. दादी बस आँखों में आँसू लिए हाथ जोड़े खड़ी रही. कुछ दिनों बाद अम्मा सुनीता की शादी के लिए भी मान गई. पगलिया अब पगलिया नहीं बल्कि सुनैना थी, दिवाकर की सुनैना. उसका खोया बसंत इस घर में आने के बाद लौट आया था.

धीरज झा

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