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नंबर वाली पर्ची: धीरज झा की कलम से निकली एक रिक्शेवाले की प्रेम कहानी

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आप किसी बड़े शहर के स्टेशन पर चले जाइए तो आप सही सही ये पहचान नहीं सकते कि कौन यहां का है और कौन बाहर से आया है लेकिन वहीं आप किसी छोटे शहर, खासकर वो जो देहातों से अपनी सांठ गांठ बनाए हैं, के स्टेशन पर चले जाइए तो आप जाने वाली ट्रेन और वहां आने वाली ट्रेन की सवारियों के मन का हाल जान जाएंगे. 

यहां से जाते हुए लोग घर से जाते हैं, मन भारी होता है, मन में एक दबी सी दुआ कुहुक रही होती है कि काश कोई ये कह के अभी भी रोक ले कि “रुक जाओ न, कौन सा सहर भागा जा रहा है, दू दिन बाद चेल जाना.” वहीं जब सवारियां बाहर से आकर यहां उतरती हैं तो शरीर भले महीनों की कड़ी मेहनत के बाद थक टूट गया हो लेकिन मन पर भार रत्ती भर का नहीं होता. चेहरे खिले होते हैं सबके. ट्रेन की भीषण भीड़ भी उनके चेहरे की चमक को कम नहीं कर पाती. घर लौटने का सुख ही कुछ ऐसा होता है. और इस बात को स्टेशन के बाहर खड़े रिक्शे वाले भईया लोग अच्छे से जानते हैं.

स्टेशन के बाहर पान की गुमटियों ने आस पास की हवा को कत्थे चूने और पान की पत्तियों की महक से इस तरह नहला दिया था कि अगर कोई नवयुवक इधर से केवल गुजर जाए तो घर पहुंचने पर इस संदेह में घिर जाएगा कि लड़के ने पान खाया है. इन्हीं गुमटियों पर रखे रेडियो अपनी अपनी तान छेड़े बैठे हैं. ट्रेंड में चल रहे भोजपुरिया गीतों को देसी एफएम पर बज रहा भरत शर्मा का निर्गुण ‘भंवरवा के तोहरा संघे जाई’ कड़ी टक्कर दे रहा था.

दुपहरिया समय कोई सवारी न देख सभी रिक्शे वाले अपने अपने रिक्शे को आसन मान उस पर डटे हुए देश के विभिन्न मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं. “कटरा से चल कर कामख्या जंक्शन जाने वाली कामख्या एक्सप्रेस कुछ ही समय में प्लेटफॉर्म नंबर 1 पर आने वाली है.” इसी सूचना के साथ स्टेशन से बाहर खड़े तमाम ऑटो और रिक्शा वाले भईया लोग सतर्क हो गए.

रोज की तरह आज भी ये ट्रेन बाहर से चमकते दमकते चेहरे लेकर स्टेशन पहुंची है. बस एस्टेंड, बस एस्टेंड, आइए बस एस्टेंड. कहवां जाएंगे ? चलिए छोड़ देते हैं…” एक तेज तर्रार नौजवान सवारियों की तरफ दौड़ा.

“ऐ मंगनी, का हो! सब सवारी ले जाओगे का ? कुछ एक हम गरीब बुढवा के लिए भी छोड़ दो.”

“का चचा, आपहूं मजाक का हद कर देते हैं. ससुर दोपहरिया बीत रहा है अभी तक बोहनिओं नहीं हुआ है. बाकि आप लोग का उम्र हो गया है जाइए राम धुन गा के अपना पाप काटिए, का सार दिन पईसा पईसा करते रहते हैं.”

“सही है बेटा, उम्र है तुम्हारा उड़ लो…” बुढऊ चचा आगे कुछ बोलते इससे पहले किसी सवारी ने आकर टोका उन्हें

“जानकी अस्थान चलिएगा ?”

“हं, हं काहे नहीं चलेंगे, आइए बैठिए…?

“कय रुपया लेंगे ?”

“जो सब देता है आपहूं दे दीजिएगा. 40 रुपया लेते हैं”

“अरे नहीं नहीं अभी दू बरिस पहिले तक तो 20 रुपया लेता था सब.” कभी कभी धन्यवाद करने का मन करता है इन रिक्शे वालों, सब्जी वालों और मेहनत मजदूरी करने वालों का, क्योंकि अगर ये न होते तो शायद हम जान ही न पाते कि महंगाई बढ़ गई है.

“मालिक जोन हिसाब से जमाना महंग हो रहा है हो सकता है अगला बरस तक रिक्सा का भाड़ा 50 रुपया हो जाए.”

“ऊ सब जानते हैं लेकिन 40 बहुत बेसी (ज्यादा) ले रहे हैं, हम लोग जादा सवारी हैं अपना हिसाब से देख लीजिए.”

“मालिक हमारा रिक्सा है कोनो टेम्पू थोड़े न, जादा सवारी से हमको का मतबल. बाकी 35 से कम नहीं होगा.” चचा ने अपना आखरी प्रस्ताव रखा.

“ऐ सुमन देखो जी झुनकिया रोड पर भागी जा रही है, चंपा जाएगी त चिल्लाते रह जाओगी.” रिक्शे वाले से बहस कर रहा वो व्यक्ति अचानक से चिलाया. उसकी चिल्लाने की आवाज सुन कर दो लोग चौंके थे. एक वो लड़की जो खुद बचपने के आंचल का कोर छोड़ने से पहले एक बच्ची की मां बन गई थी, दूसरा वो रिक्शे वाला मंगनी जो थोड़ी देर पहिले तक अपने साथी से हंसी मखौल कर रहा था.

मंगनी के चौंकने का कारण वो नाम था जो उस व्यक्ति ने पुकारा था. छः साल बीत गए थे लेकिन आज भी जब वो सुमन नाम सुनता तो ऐसे चिहुंक जाता जैसे मिर्च लगे हाथों से अनजाने में आंखें मल ली हों. उस बेहद कम उम्र की औरत का चेहरा ट्रेन तक खुला हुआ था लेकिन स्टेशन पर उतारते ही साथ चल रही एक बूढ़ी माता के इशारे के साथ ही घूंघट में ढक गया था. मंगनी के लिए तो सुमन नाम ही काफी था.

“आप लोग बैठिए न, बीसे रूपया दीजिएगा.” उस व्यक्ति की 25 और रिक्शेवाले चचा की 35 रुपयों की बोली के बीच मंगनी ने बूढ़ी अम्मा के पास जा कर 20 रुपये का दाव फेंक दिया.

“ऐ बिनोद, इहां आओ रे, ई लईका बीसे रूपया में चहुंपाने (पहुंचाने) का बोल रहा है. चलो चलो.” वो बूढ़ी अम्मा जिसकी आवाज उनके शरीर जितनी ही भारी थी, चिल्लाई.

“ऐ मंगनिया, पगला गया है का रे! दाम कईसे बिगाड़ दिया तुम.” चचा खिसियाते हुए बोले.

“अरे चचा, जाने दीजिए न लेडिज हैं साथ में, परसानी होगा. बाकी हम करते हैं न. आप निश्चिन्त रहिए न.” निश्चिन्त रहने की बात के साथ ही मंगनी ने चचा को कुछ इशारा किया. चचा को गुस्सा तो बहुत आया लेकिन वो चुप हो गए.

“चलिए चलिए.” चचा से बहस कर रहे उस व्यक्ति ने सबको तीनों रिक्शों पर बैठने को कहा.

“अरे ठहरिए ठहरिए, हमारा रिक्सा में हवा कम है इस पर कोनो हलुक सवारी बैठा दीजिए.” रिक्शे पर बूढी अम्मा को चढ़ते देख मंगनी झट से बोला.

अम्मा उसे खड़े खड़े बिना नमक मिर्च लगाये चबा जाने के अंदाज में घूरते हुए आगे वाले रिक्शे की तरफ बढ़ गई. सब लोग रिक्शे पर बैठ गए. मंगनी के रिक्शे पर घूंघट वाली लड़की अपनी छोटी सी बेटी के साथ बैठ गई. सभी रिक्शे एक साथ बढ़े. मंगनी ने भी पैडल पर जोर मारा.

“अभियो तुम्हारा लबरई नहीं गया न! लबरा कहीं के.” इस आवाज के साथ ही मंगनी जहां था वहीं रुक गया, पैरों ने पैडल मारना रोक दिया. पान की गुमटी पर बज रहे गीतों में अब भरत शर्मा के निर्गुण पर पियावा से पहिले हमार रहलू भारी पड़ने लगा. लोगों के लिए वहां मोटर गाड़ियों से ले कर स्टेशन से आरही ट्रेन सूचनाओं तक की आवाज थी मगर मंगनी के लिए वहां एक ही शब्द घूम रहा था “लबरा”. सुमनिया उसे लबरा ही तो कहती थी हर बात पर. मंगनी ने चाहा कि पीछे मुड़ कर उस चेहरे को एक बार देख ले जिसके दीदार को वो 6 साल से तड़प रहा है.

“पीछे नहीं देखना, बुढ़िया बहुते बुझक्कड़ है.” मंगनी जहां था वहीं रुक गया.

“अरे का हुआ रे, रुक काहे गया.” बूढ़ी अम्मा आगे से चिल्ला दी.

“रिक्सा के चेन उतर गया है. बढ़िए आप लोग हम आते हैं.” मंगनी ने चाल चलने की कोशिश की.

“नहीं नहीं तुम चेनमा के चढ़ा लो हम रुके हैं.” लेकिन अम्मा ने मंगनी का दाव चलने नहीं दिया.

“हो गया चलिए.” दाल न गलती हुई देख मंगनी ने कहा, इसी के साथ तीनों रिक्शे चल दिए.

“इहे काम तब कर लिए होते तो आज हमको तुमसे ऐसे छुप के नहीं न बतियाना पड़ता.”

“थोडा दिन तुम्हीं इंतजार कर ली होती त का होता.”

“तुमको आज तक नहीं समझ आया कि बेटी का मर्जी इहां नहीं चलता. तुमको का लगता है हम खुसी खुसी सब मान लिए थे!”

मंगनी चुप हो गया. उसकी आंखों के सामने छः साल पहले के तमाम किस्से तैरने लगे. सुमन वही थी जिसके प्रेम के नशे में मंगनी कभी 24 घंटे भकुआया रहता था. दोनों का प्रेम उस जमाने का था जब गांव के नए लड़के इतने सीधे हुआ करते थे कि नाच के लौंडे को लड़की समझ उस पर दिल हार जाया करते थे. प्रेम ने पूरी तरह से बदल दिया था मंगनी को. पहले मंगनी भैंस चराने से बचने के लिए घर से भाग जाया करता था, उसके बाबू उसे ढूंढ कर खूब गरियाया और लतियाया करते थे. इतना दुलार होने के बाद भी मंगनी भैंस न चराने जाने के बहाने खोजता लेकिन जब एक बार उसने सुमन को देखा तो उस पर दिल हार बैठा.

मंगनी एक टक देखता रह गया था सुमन को. सुमन के फ्राक का सफेद रंग मैला होने के बाद जमीन के रंग सा दिख रहा था उसे और उस पर बने छोटे छोटे फूल ऐसे लग रहे थे मानों ताजा कलियां जमीन पर बिखरी हों. वो बकरियां चराने आई थी, मंगनी भैंस चराने गया था. मवेशी घास चरते रहे, इधर ये दोनों एक दूसरे की आंखों के भाव पढ़ते रहे. ये मीठा मीठा अहसास दोनों के लिए नया था.

अब तो मंगनी भैंस चराने जाने के लिए ऐसे तैयार हुआ करता था जैसे दफ्तर जाना हो. शायद सुमन मंगनी को इतना भाव न देती लेकिन मंगनी के मोहब्बत का अंदाज ही अलग था. असल में मंगनी के बाबू एक पशु व्यापारी के यहां काम करते थे. वो अपने पशुओं को बेचने दूर दराज इलाकों में जाया करते और वहां से मंगनी की अम्मा के लिए तरह तरह का सामान लाते. मंगनी उन्हीं में से थोडा बहुत चुरा कर सुमन के लिए ले जाया करता. वह सुमन के लिए कभी महक वाला तेल तो कभी पाउडर की पुड़िया बना कर ले जाया करता.

घर में हंगामा तो तब मचा जब मंगनी अम्मा की नई सूती साड़ी उठा कर सुमन को दे आया. मंगनी की चाचा की बेटी ने देख लिया था उसे साड़ी लेजाते हुए. उसने सबको बता दिया. अब साड़ी का कम और बेटे के बिगड़ जाने का शोक ज्यादा गहरा गया था. सबको लगा कि लड़का लौंडई करने लगा. बड़ी मुश्किल से मामला शांत हुआ. मंगनी के लिए दुःख की बात उसका पिटाना या गालियां खाना नहीं था क्योंकि पिटाई का तो ऐसा था कि जम कर मार खाने के बाद वो बड़े सलीके से उठता, कपड़े झाड़ता और बेशर्मों की तरह हंसते हुए कहता ‘एतना सिंगार मोरा नित दिन हो ला.’ दुःख तो उसे इस बात का लगा कि सुमन साड़ी ही नहीं पहनती थी. लेकिन उसने रख ली थी शर्मा कर ये कहते हुए कि शादी के बाद वो पहनेगी.

प्रेम बढ़ा तो सही लेकिन परवान नहीं चढ़ सका. सुमन अपनी 4 बहनों में सबसे बड़ी थी. बच्चों की पैदाइश के समय सुमन के पिता को जल्दबाजी जरा भी महसूस नहीं हुई थी लेकिन अब बेटियों की शादी के लिए वो इतने उतावले थे कि उनका बस चलता तो कुएं के इर्द गिर्द सात फेरे करा कर उस में धकेल दें सबको. ऐसे उतावले इंसान को बेटी के लिए घर बैठे रिश्ता मिल जाए तो वो देर क्यों करे भला. सुमन ने नानुकर करने की कोशिश की लेकिन बाबू ने जहां एक कोहनी खींच कर दी उसी में शांत हो गई. वैसे भी मंगनी कमाता धमाता नहीं था वो ज़िद भी करती तो क्या कह कर.

“अभिए जानकी अस्थान आजाएगा, हमको उतरना पड़ेगा. तुम्हारे पास 15 20 मिनट हैं, अपना मन का सारा जहर माहुर उगील दो. जानते हैं बहुत गरियाए हो हमको.” सुमन घूंघट की ओट का पूरा फायदा उठा रही थी.

गरियाने की बात पर मंगनी ऐसी हंसी हंसा जैसे किसी ने सीने में खंजर उतार कर नाइट्रस ऑक्साइड (हंसने वाली गैस) सुंघा दी हो. उसी पीड़ादायक हंसी के साथ मंगनी बोला “हां गरियाने के लिए ही छः साल से खोज रहे हैं न तुमको. यही तो बचा है हमारे पास, किसी को प्यार करो फिर उसके बिना रहो आ जब ऊ मिले तो उसको गरिया दो.” इतना कहते हुए मंगनी की आवाज रुआंसी हो गई. भले ही बरस बीत गए थे मगर सुमन अब भी मंगनी के बातों में आंसुओं की नमी महसूस कर सकती थी.

“अच्छा सुनो न.’ इस ‘सुनो न’ ने पहले भी मंगनी को न जाने कितनी बार ठगा था. “मेहरारू को संघे रखते हो कि गांव छोड़े हो.”

“ठांठे हैं अभियो, बियाह नहीं किए हम.” मंगनी का मन कर रहा था कि रिक्शा रोक के जी भर देख ले सुमन को. वो भी समय था जब सुमन अपनी बकरियों और मंगनी अपनी भैंसों को चरने के लिए छोड़ देते और खुद बैठ कर बतियाते रहते. इस दौरान सुमन दुनिया जहान की बातें करती और मंगनी बस उसको गुटुर गुटुर देखते रहता. जब सुमन उसको शर्मा कर टोकती तो मंगनी कहता “हम जब कोनो बदमासी करते हैं न तो बाबू हमको खूब मारते हैं. ऐसे तो हमको मार खाने का आदत पड़ गया है लेकिन कहियो कहियो (कभी कभी) जोर से लग जाता है. तब हमारी अम्मा हमको तेल से मालिस करती है. जोन सुख हमको उसका हाथ का मालिश में मिलता है न उहे सुख तुमको देख कर मिलता है.” ये सुन कर सुमन शरमाते हुए अपने हाथों में अपना चेहरा छुपा लिया करती.

“अरे अभी तक नहीं किए! कब करोगे, बुढ़ारी में कौनों नहीं पूछेगा.” सुमन ने चिंता जताई.

“खाली (सिर्फ) तन हमको मिलाना नहीं था, आ तुम्हारे बाद मन हमारा कहीं मिला नहीं. तुम्हारे जाने के बाद जब बउराने लगे तो बाबू घर से बेगा दिए. भाग के सहर आए. पाई पाई जोड़ के एक ठो रिक्सा लिए. एही सब में देखते देखते छओ बरिस बीत गया. समय नहीं मिला. हमारा छोड़ो, तुम बताओ, कैसा चल रहा है सब ?”

“चलिए रहा है बस, झुनकिया के पपा लोधियाना कमाते हैं. बियाह के दोसरका साल हमको भी ले गए साथ. एम्हर अम्मा बाबूजी गांव पर रहते थे, परुका साले बाबू जी गुजर गए तो अम्मा को भी साथ ले आए ये. ई उहां लोहा फैट्री में कमाते हैं हम धागा फैट्री में. झुनकिया के पपा सीधा इंसान हैं, जादा मतलब नहीं रहता है कोनो बात से. हां अम्मा सासन चलाती हैं लेकिन हमको बुरा नहीं लगता काहे कि हमको आदत है और उनका अधिकार. बाकी इहे एक ठो नाक कान में बचिया है. मिलाजुला के सब ठीके है.” सुमन अपना हाल बताती रही मंगनी सब सुनता रहा.

“एक बात पूछें ?”

“मना करेंगे तो कौन तुम मानोगे. पूछो.”

“हमको प्रेम करती हो आज भी ?” इस सवाल के साथ ही मंगनी का दिल कुछ वैसे ही धड़का जैसे उस दिन धड़का था जब सुमन के गाल पर भात का एक दाना लगा था और मंगनी ने उसे हटाने के लिए उसके गालों को छूने की इजाजत मांगी थी.

“तुम हमको ठीक से देखे नहीं सायद. प्रेम न होता तो हम तुम्हारा दिया हुआ ई साड़ी नहीं पहने होते. हम अपना सास का सब बात मानते हैं एक इहे साड़ी का बात है जो वो हमको दस बार टोकी लेकिन हम नहीं माने. जब जब घरे आते हैं त इहे पहिन के, लगता है तुम साथे हो. बाकी हम बस इतना जानते हैं कि प्रेम अमर होता है. बरस क्या जन्मों बीत जाए न तभियो प्रेम का छाप नहीं उतरता मन से. तुम्हारे लिए केतना कल्पे, केतना रोए हैं ई दिखा नहीं सकते तुमको. तुम आजो मन में उठने वाला हुकहुकी के साथ याद आते हो.”

मंगनी की गीली आंखों के नीचे चमकती मुस्कराहट ऐसे लग रही थी मानों कई दिनों से बारिश में भीगने के बाद समंदर के किनारे को धूप नसीब हुई हो. मंगनी बोलना चाहता था कि इस प्रेम के लिए तुम्हारा दिल से शुक्रिया मगर वो बोल न पाया. ये सब सोचते हुए मंगनी ने उसी छुअन का अहसास किया जो उसे सब कुछ भुला दिया करती थी. ये सुमन के हाथ थे जो उसकी जेब में हौले से घुसे थे.

“तुम्हारा पौकेट में हम अपना लंबर रख दिए हैं. हमको मिसकौल कर देना. फिर हम समय देख के तुमको फोन किया करेंगे. बहुत कुछ कहना और जानना है हमको. जानकी माई के दरसन के बाद हमलोग गांओं चले जाएंगे आ फेर एक महीना बाद वापस लोधियाना. हम अपना घरे आएंगे, तुम्हों आना उहां अच्छा से भेंट हो जाएगा.” सुमन ने मंगनी को सब समझा दिया मगर मंगनी को अभी इतनी होश कहां थी कि कुछ समझ सके वो.

“ऐ भईया, अब रिक्से से गऊआं तक छोड़ आओगे का.” मंदिर की घंटियां और उस संकरे बाजार की भीड़ साफ़ बता रही थी कि जानकी स्थान आगया है लेकिन मंगनी इतना मगन था कि उसने रिक्शा कब आगे बढ़ा लिया उसे पता ही नहीं चला. बूढ़ी अम्मा ने उसे पीछे से आवाज लगाई. मंगनी वहीं रुक गया.

छः साल का इंतजार बस चंद मिनटों की मुलाकात में खत्म हो गया. सुमन मंगनी के रिक्शे से उतर रही थी. मंगनी इस उम्मीद में खड़ा रहा कि एक बार उसके चेहरे की झलक मिल जाए. सुमन उसका मन जानती थी उतारते हुए उसने अपने सर से घूंघट सरका दिया. मंगनी के लिए ये अहसास वैसा ही था जैसे अंधेरे कमरे में एक दम से किसी ने बत्ती जला दी हो. मंगनी ने गौर किया कि सुमन के चेहरे में कई बदलाव आये हैं, जिनमें सबसे बड़ा बदलाव है, उदासी का उसके चेहरे पर जड़ हो जाना. ये ऐसा था जैसे सोने के रत्न जड़ित हार में से रत्नों को निकाल लिया जाना.

“ई कोनो परदेस नहीं है कि सूट पहन के छम छम करती घूमों. हम लोग अपना एरिया में आ गये हैं, घोघ तान (घूंघट निकालना) के रहो.” सर से हटा घूंघट देख सुमन की सास झट से उसके पास पहुंच गई.

“लाईए न हम पहुंचा देते हैं सामान, आप बुचिया को कोरा (गोद) उठा लीजिए.” मंगनी ने झट से दोनों बैग उठा लिए. बूढी अम्मा ने एक पल के लिए उसे घूरा फिर आगे बढ़ गई. अपनी जवानी के पहले के दिनों में ही मंगनी सपना देखा करता था कि वो कहीं जाएगा सुमन को लेकर तो उसके हाथ में सामान होगा और सुमन की गोद में उनका बच्चा. वो जब आगे बढ़ जाया करेगी तो मंगनी उसे आवाज देकर साथ साथ चलने को कहेगा. कुछ ही देर के लिए मगर ये सपना पूरा हो रहा था. इधर रिक्शा वाले चचा को समझ नहीं आ रहा था कि मंगनी जैसा टेढ़ा इंसान जो एक रूपया नहीं छोड़ता और कोई सामान उठाने को कह दे तो खाने को दौड़ता है वो आज ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है.

सुमन सबसे नजरें चुरा कर मंगनी को निहार रही थी. बूढ़ी अम्मा और उनका बेटा रिक्शे वाले से पैसे के लिए लड़ रहे थे. इधर मौका देख कर मंगनी ने जेब से आज दिन भर में कमाया सौ का नोट निकला और सुमन की बच्ची के सर पर आशीर्वाद भरा हाथ फेर कर उसे सौ का नोट थमा दिया. सुमन ने आंखों से इसका विरोध किया तो मंगनी ने इशारों में ये कहने की कोशिश की कि स्नेह है बिटिया को उसके न हो सके पपा की तरफ से.

किराए का विवाद सुलझाते हुए मंगनी ने 20 रुपये के हिसाब से तीन रिक्शों के साठ रुपये लिए जिसके लिए चचा ने उसे ऐसे घूर जैसे उसने उनके पेट पर कस के लात मार दी हो. सबके जाने के बाद चचा और दूसरा रिक्शेवाला मंगनी को गरियाते उससे पहले ही मंगनी ने 30-30 रुपए दोनों को थमा दिए.

“काहे एतना मेहरबान हो रहे हो इन सब पर जी, घोड़ा घास वाला कहावत भूल गए.” चचा ने आश्चर्य से पूछा.

“होता है चचा, कुछ काम ऐसा होता है जिसमें घोड़ा को घास से दोस्ती करना पड़ता है. वैसे भी आदमी केतना भी भूखा काहे न हो अपना मांस नहीं खाता.” चचा ने मंगनी की बात समझने की कोशिश करते रहे इधर उसने अपना रिक्शा उठाया और अपने क्वाटर की तरफ मोड़ लिया.

जीरो वाट के बल्ब में मंगनी का छोटा सा कमरा ऐसे लग रहा था जैसे किसी ने पीले रंग की रौशनी भरी छींटें बिखेर दी हों वहां. इसी रौशनी में मंगनी उस पर्ची को घूरे जा रहा था जिस पर सुमन ने अपना नंबर लिख कर दिया था. सुमन का ये नंबर मंगनी के लिए उन पुराने दिनों में लौट जानें की चाबी थी जहां मासूम सी बातों का खजाना दबा था. मंगनी अभी खयालों की खुबसूरत दुनिया में था, जहां वो बारी बारी से देख रहा था कि सुमन उससे पहले की तरह ही बातें कर रही है, कभी वो देख रहा था कि वो उससे मिलने गया है, मंगनी ने सुमन को गले से लगा लिया है. मंगनी के सपने बड़े होते जा रहे हैं. वो कुछ समझ नहीं पा रहा. जो कुछ उस अल्हड़पने में छूट गया था मंगनी के ख्वाबों में वो सब घूम रहा है.

उसके शरीर में अजीब सी सिहरन दौड़ रही है. अपने सामने वो सुमन के चेहरे को देखता हुआ महसूस कर रहा था कि अब मौका आ गया है अपने अंदर से उन सारे अहसासों को बाहर ले आने का जो उसने सुमन के जाने के बाद कहीं दबा दिए थे.

उसका पूरा मन झूम रहा था लेकिन इसी के साथ वो प्रेम जो उसने अपने सीने में आज तक दबाये रखा था, वो एक कोने में बैठा घुट रहा था. वो महसूस कर सकता था कि उसके अंदर दबा वहशीपन कहीं न कहीं उसके पवित्र प्रेम को अपवित्र करने की साजिश गढ़ रहा था.

मंगनी आगे और भी ख्वाब गढ़ता इससे पहले ही उसने पर्ची को माचिस की जलती हुई तीली से मिला दिया. पर्ची जलती रही और मंगनी आंसुओं में भीगी मुस्कराहट के साथ उसे देखता रहा. उसने अपने प्रेम को दूषित होने से बचा लिया था. संभव था कि वो आगे बढ़ता तो अपने उस प्यार के जीवन में जहर घोल देता जिसके लिए उसने हमेशा से खुशी ही मांगी है. अब उसके साथ केवल था तो वो सुखद अहसास जिसे उसने छः साल के इंतजार के बाद उस छोटी सी मुलाकात के रूप में समेटा था.

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