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उस पार का प्रेम: धीरज झा की कलम से निकली एक दिलचस्प प्रेम कहानी

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“ऐ दाई, जल्दी उठ ना.” आखरी सांसें गिन रहा इंसान जिस तरह ज़िंदगी से लड़ने की नाकाम कोशिश करता है उसी तरह रह रह कर छोटी छोटी हिच्चकियां लेती हवा उस रात की उमस से लड़ने की पूरी कोशिश कर रही थी. सारी रात नींद को कुछ घड़ी पनाह देने की गुहार लगाने के बाद कहीं जा कर दुलारी की बूढ़ी आंखों ने एक छोटा सा कोना नींद को दिया था. डेढ़ घंटा भर ही हुआ था ‘दुलरिया’ की आंख लगे कि इतने में उसके बारह साल के पोते पदारथ ने आ कर कांपते हाथों और लड़खड़ाती ज़ुबान से दुलारी को जगाया था.

“फिर से बछिया खुल गई क्या? बाबू से कह के नहीं बंधवा सकता क्या जो मुझे जगाने चला आया ?” नींद से अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश करती हुई दुलारी ने अधजगी आवाज़ में सवाल किया. “मुनमुनिया” जो अभी कुछ ही महीने भर पहले उस बड़े कूबड़ वाली जर्सी गईया के कोख से होती हुई दुलारी के अंगना में आई है वो हद से ज़्यादा शरारती है, खुद से ही खूंटे से बंधी रस्सी छुड़ा लेती है और फिर जब तक दुलारी उसे पुचकारते हुए अपने पास नहीं बुलाती तब तक वो किसी के हाथ नहीं आती. अजब सा स्नेह है दोनों के बीच.

“अनर्थ हो गया दाई.” पदारथ ने अपने गमछे से अपनी चिहुंकी हुई आवाज़ को चीख बनने से रोकते हुए कहा.

“क्या हो गया, अब बताएगा भी. मेरा मन बईठा जा रहा है.” अपनी सिकुड़ चुकी सुती साड़ी का अंचरा जो उसके बेसुध सोने की वजह से आवारा घूम रहा था को उसने अपने कंधे पर टिकाटे हुए बड़ी बेचैनी के साथ पदारथ से पूछा

“धर्मेसर बाबा…..” इसके बाद पदारथ का गमझा भी उसकी सिसकियों को चीख़ बनने से ना रोक पाया.

“क्या हुआ धर्मेसर को ?” धर्मेसर बाबा के बारे में आधा अधूरा सुनते ही दुलरिया के दिल की गति जैसे कुछ देर के लिए थम सी गयी.

“वो नहीं रहे दाई. हमें छोड़ कर चले गये.” इसके बाद दुलरिया सुन्न थी और परमेसर उसके पैरों में पड़ा चिल्ला रहा था. दुलरिया ना कुछ बोल पा रही थी ना कुछ सुन पा रही थी. उसके आंसुओं से भरे नयनों के आगे बस धर्मेसर बाबा का चेहरा घूम रहा था.

सिर्फ पदारथ ही नहीं बल्की पूरा हसनपुर गांव ही इस खबर के सुनते ही शोक के सागर की सबसे गहरी सतह पर जा बैठा था. आज दिनकर भी इतने मायूस थे कि एक पहर दिन चढ़ जाने के बाद तक भी अपनी कुटिया से बाहर नहीं निकले थे. आसमान ने बहुत कोशिश की थी कि अपने दुःख को सामने ना लाए मगर रोकते रोकते एक झर बारिश के रूप में धर्मेसर बाबा को अंतिम विदाई दे ही दी थी.

आज हर आंख भीगी थी, आज गांव का हर चूल्हा ठंडा था. मगर दुलरिया का दुःख इन सबसे कहीं ज़्यादा गहरा था. उसका रोम रोम धर्मेसर को नमन कर रहा था. धर्मेसर बाबा जो अपनी उदारता और हर किसी की मदद के लिए हर वक्त तैयार रहता था, जो गांव वालों के लिए किसी ईश्वर से कम नहीं था वो दुलरिया के लिए क्या मायने रखता था इस बात को तीन लोग ही जानते थे एक दुलरिया खुद दूसरा धर्मेसर जो तब बाबा नहीं था और तीसरा वो चांद जो उस रात बेहद उदास हो गया था. बादलों के बीच उसने ऐसा मुंह छुपा कर रोया कि तीन रातों तक बारिश ने एक पल के लिए भी नहीं रुकी.

गांव की चिंताओं का बोझ उठाने के कारण कमर से आगे की तरफ झुका हुआ उनका कांटी शरीर जो एक ज़माने में कसरती और सुडौल था जो एक झलक से ही किसी की नज़र में चढ़ जाता था.  दाढ़ी से ढके उनके नूरानी चेहरे को सिर्फ उन्होंने ही देखा था जो धर्मेसर नारायण को धर्मेसर बाबा बनने से पहले जानते थे. गांव का हर छोटा बड़ा झगड़ा थाने कि बजाय धर्मेसर नारायण के न्यायालय में सुलझाया जाता था. मगर जब धर्मेसर को न्याय चाहिए था तब ईश्वर तक ने उसकी नहीं सुनी.

पांच सौ बिघा ज़मीन और लाखों की दौलत का अकेला वारिस था धर्मेसर नारायण. हर किसी की मदद के लिए हमेशा तैयार रहता था. बड़ी साफ़ नीयत और नज़र का स्वामी था ये लड़का. इतनी संपत्ति के बाद भी घमन्ड छू कर भी नहीं गुज़रा था इसे. कड़क स्वभाव के साथ साथ सिर्फ अपने काम से मतलब रखने की आदत धर्मरेसर को हमेशा से थी. कड़क स्वभाव था उसका मगर प्रेम का क्या है इसका बीज तो किसी बेरुखे दिल की सूखी बंजर ज़मीं पर भी पनप सकता है.

दुलरिया जो उनके जन (नौकर) संभू की इकलौती बेटी थी, को धर्मेसर बचपन से देखता आ रहा था. दुलरिया के बचपन से जवानी तक आए हर छोटे बड़े बदलाव को धर्मेसर ने इतनी ग़ौर से ध्यान में रखा था कि जितना उसके माता पिता ने भी नहीं रखा होगा. मन ही मन दुलरिया को पूजा करता था धर्मेसर मगर प्रेम में अंधा हो कर मर्यादा नहीं भूलना चाहता था वो इसीलिए आज तक उसने सबको अपने इस प्रेम के फूल की खुशबू तक से दूर रखा था. मगर अब बर्दाश्त की हद थी. जवानी का जोश था और प्रेम के साथ साथ इरादा भी सच्चा और पक्का था. दुर्गा पूजा के मेले में धर्मेसर ने दुलरिया की बांह पकड़ कर उसे पूजा के पंडाल के पीछे खींच लिया था.

“ई का कर रहे हैं धर्मेसर बाबू ?” घबराई हुई दुलरिया ने हाथ छुड़ाने की कोशिश करते हुए कहा.

“डरो नहीं दुलारी, दुर्गा मईया की पीठ पीछे खड़े हैं. मन में बुरा इरादा तो दूर अगर बुरी सोच भी हो तो मईया हमारे प्राण ले लें. बस कुछ बातें हैं ऊ सुन लो फिर चली जाना. और अगर नहीं सुनने का मन तो अभिए चली जाओ.” इतना कह कर धर्मेसर ने दुलरिया का हाथ छोड़ दिया. उसका मन यह सोच कर डर भी रहा था कि कहीं दुलरिया सच में चली ना जाए और बाहर जा कर बिना उसका मकसद जाने उसे बदनाम ना कर दे. मगर जब उसके हाथ छुड़ाने के बाद भी दुलरिया अपनी बड़ी आंखों को पलकों के नीचे छुपाए हुए सर झुका कर खड़ी रही तो धर्मेसर समझ गया कि वो अब उसकी बात सुनने को तैयार है.

“दुलारी, हमको गलत मत समझना. हमारा तरीका भले गलत था मगर हमारे मन में कोई पाप नहीं. बस हमको कोई उपाये नहीं सूझा तुमसे अकेले में मिलने का तो ये हरकत करनी पड़ी. दुलारी हम तुमको तब से चाहते हैं जब तुम रोते रोते अपनी आंखों के साथ साथ नाक भी बहा लेती थी. बचपन से आज तक हमने अपने उस दिन को अधूरा माना जिस दिन मुझे तुम नहीं दिखी. मगर हम हमेशा डरते रहे, कभी कह नहीं पाए यह सोच कर कि कहीं तुम गलत ना समझो. हम सबको मना लेंगे बस तुम हमारे प्रेम को स्वीकार कर लो. हम तुम्हारे सिवा किसी और के बारे में सोच तक नहीं सकता.” दुलरिया के मन रूपी समंदर में दुविधाओं का ऐसा तूफान उमड़ रहा था कि जिसने उसके दिमाग के हर उस कोने को जाम कर दिया जहां जहां से सोचा जाता होगा.

कुछ देर मौन रहने के बाद दुलरिया ने कुछ सोच कर मौन तोड़ा “आपका प्रेम मिलना बड़े सौभाग्य की बात है धर्मेसर बाबू. मगर नियती हमारे और आपके मान लेने से नहीं चलती. आपने बहुत देर कर दी धर्मेसर बाबू. मेरे पिता ने मेरा बियाह तय कर दिया है. मैं चाह कर भी कुछो नहीं कर सकती. आपकी भी मैंने हमेशा पूजा की है मगर साथ साथ मन को ये भी समझाया कि फूस के घर में ज़मीन पर बिछी चादर महलों के सेज की शोभा नहीं हो सकती. आप अमीर हैं, प्रेम आपके लिए शौक भी हो सकता है. भला आपके शौक के लिए मैं अपनी और अपने बाप की इज्ज़त को कैसे दांव पर लगा देती. आपको मैंने भगवान मान लिया और साथ में ये भी मान लिया था कि भगवान आलीशान मंदिरों में ही विराजमान रहें तो शोभनीय लगते हैं. मैं गरीब तो बस आपको अपने दिल में ही स्थापित कर सकती हूं, अपनी मड़ई में नहीं.” बचपन से गरीबी को झेलते झेलते दुलरिया के मन में यह बैठ गया था कि अमीर और ग़रीब दो अलग अलग दुनिया के लोग हैं जो कभी एक नहीं हो सकते. अमीर कभी ग़रीब की भूख और ज़रूरत को नहीं समझ सकता. बस इसी सोच में दुलरिया ये सब बोल गयी.

“नहीं नहीं दुलारी ऐसा ना कहो. पैसा मेरे लिए कुछ भी नहीं है. मुझे बस तुम्हारा साथ चाहिए.”

“धर्मेसर बाबू, भरा हुआ पेट बहुत ज्ञानी होता.है और भूखे पेट को बस भोजन दिखता है. आपका पेट भरा है आप अमीर हैं इसीलिए आपके लिए कहना आसान है कि पैसा आपके लिए कुछ भी नहीं. मैं आपकी जिद बन चुकी हूं. कल को मुझे पा लेने के बाद जब ये जिद खत्म होगी तो फिर दौलत का नशा बोलेगा. अगर आपके लिए दौलत कुछ ना होती तो गांव में कोई ग़रीब ना होता.” धर्मेसर के कोमल मन पर दुलरिया का एक एक शब्द हथौड़े की चोट सा महसूस हो रहा था.

धर्मेसर मौन सा खड़ा रहा. दुलरिया आंखों में आंसू जो ना जाने किस भाव से निकले थे, लिए चली गई. धर्मेसर ने उस दिन मन ही मन यह संकल्प ले लिया कि उसकी ज़िंदगी का बस एक ही लक्ष्य है और वो है जब तक आखरी सांस बाकी रहे तब तक इस गांव के लोगों का हर दुःख दूर करते रहना. उस दिन धर्मेसर का मन इतना रोया कि जैसे उसने सारे गांव के आंसू सोख लिए हों. उस दिन के बाद गांव में कोई न रोया.

महीने बाद दुलरिया की शादी हो गयी जिसका सारा खर्च धर्मेसर ने उठाया. कुछ सालों में पिता जी के देहांत के बाद धर्मेसर पर घर बसाने का दबाव बनाने वाला कोई ना बचा. बस फिर क्या था धर्मेसर से धर्मेसर बाबू और धर्मेसर बाबू से धर्मेसर बाबा बनने के बीच ही समय ऐसा गुज़रा कि पता भी नहीं चला वो कभी अकेले भी थे. सारा दिन गांव वालों का जमघट और रात को बाबा के पैर दबाने के बदले किस्से कहानियां सुनने वाले लड़कों की कमीं उन्हें कभी नहीं रही.

दुलरिया का पति उसके बियाह के तीन साल बाद ही गुज़र गया. इधर उसका पिता भी गुज़र गया था. ससुराल वाले रखने को तैयार ना थे. धर्मेसर ने अपनी ज़मीन दे कर उसे बसाया और पेट पालने को चार गायें खरीद दीं जिनके दूध के सहारे दुलरिया की ज़िंदगी चलने लगी. ऐसी ना जाने कितनी दुलरिया और उनके बाप भाईयों को धर्मेसर बाबा के सहारे ने नई ज़िंदगी दी थी. लोगों की मदद में संपत्ति जाती रही मगर दुआएं और कंधे जुटते रहे, जो धर्मेसर बाबा को सहारा देने के लिए हमेशा खड़े रहते.

आज दुलरिया सहित पूरा गांव मानो एक साथ अनाथ गया था. हर किसी की आंख लगातार बरस रही थी. आज उनका रहनुमा चला गया था. जब उन्होंने प्राण त्यागे तब कलुआ हजाम उनके पैर दबा रहा था. कुछ बातें करते करते उन्होंने अचानक कलुआ से कहा था कि “कलुआ तेरी बेटी की शादी है ना दो महीने बाद. हमारे पास ये हवेली ही बची है जिसे हमने तेरे और बाकी कुछ उन लोगों के नाम कर दिया है, जिनकी हाल की ज़रूरतें बड़ी हैं. कलुआ हम तुम सबके लिए बस इतना ही कर पाए रे. सबसे कहना कुछ कमी रह गयी हो तो हमको माफ कर दें.” कलुआ ने जब थोड़ा हक़ से डांट कर कहा कि “बाबा ऐसा ना बोलिए आप बस साथ रहिए सब हो जाएगा.” इसके बाद वो चुपचाप लेट गये और फिर दोबारा नहीं बोले.

धर्मेसर बाबा के शरीर को अग्नि में समर्पित करने के बाद भी सभी इस आस में वहीं बैठे रहे कि कहीं बाबा जाते जाते दर्शन दे जाएं. इधर दुलरिया घर आगई थी उसे अपनी वो सभी बातें याद आने लगीं जो उस रात उसने धर्मेसर बाबा से कहीं थीं. फिर अचानक से दुलरिया को ऐसा महसूस हुआ कि उसकी बूढ़ी देह में बहुत फूर्ती आगई है और वो उठ खड़ी हुई. वो अचानक से मुस्कुरते हुए दरवाज़े की तरफ बढ़ने लगी जहां से वही पूनम का चांद झांक रहा था जो उस दिन धर्मेसर बाबा के त्याग का गवाह बना था.

इधर दुलरिया का पोता पासपत दुलरिया के कमरे की तरफ भागा आरहा है और मुस्कुरा कर आगे बढ़ दुलरिया के बीचों बीच से सामने पड़ी दुलरिया की बेजान देह को दो तीन बार “ऐ दाई, ऐ दाई कह कर उठाने की कोशिश करता है मगर दुलरिया की देह एक तरफ निष्प्राण हो कर गिर पड़ती है. पासपत चिल्लाता है. आस पास के सभी लोग जुट जाते हैं. दिन से रात के बीच लोगों की दोबारा रोने की आवाज़ें गूंजती हैं.

इधर दुलरिया मुस्कुराते हुए धर्मेसर की तरफ़ बढ़ती है और धर्मेसर बांहें  फैला कर कहता कहता है “देख दुलारी हमने गरीबी अमीरी की रेखा को लांघ लिया, अब तो तू हमारा प्रेम स्वीकारेगी ना ?”

दुलरिया बिना कुछ बोले मुस्कुराते हुए धर्मेसर की बांहों में खुद को समर्पित कर देती है. ऊपर पूनम का चांद  जो आज तक उदास सा था, आज खुल कर मुस्कुरा रहा होता है.

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