देश की आज़ादी के लिए हजारों देशभक्तों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया लेकिन आजादी के 76 साल बाद तक भी बहुत से बलिदानी योद्धा ऐसे हैं जिनके बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते. आज हम आपको ऐसे ही एक योद्धा की कहानी बताने जा रहे हैं जो 20 साल की छोटी सी उम्र में देश के लिए फांसी के फंदे पर झूल गया.
छोटी उम्र से ही जोशीले थे कनाई
आजादी के इस नायक का जन्म 30 अगस्त 1888 को बंगाल की धरती पर हुगली जिले के चंद्रनगर में हुआ था. उनका नाम रखा गया कनाईलाल दत्त. कनाई के पिता चुन्नीलाल दत्त बंबई में ब्रिटिश भारत सरकार सेवा में कार्यरत थे. यही कोई पांच वर्ष की आयु में कनाई अपने पिता के पास बंबई चले गए.
यहीं उनकी प्रारंभिक शिक्षा शुरू हुई. वह भले ही बम्बई में बढ़ रहे थे मगर उनकी जड़ें आज भी बंगाल के चंद्रनगर से जुडी थीं, जो समय समय पर इनको अपनी ओर खींचती थीं. आखिरकार कनाई ने अपनी मातृभूमि की पुकार सुन ही ली तथा वो वापस चंद्रनगर आगए. यहीं से उन्होंने हुगली कॉलेज से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की.
कनाईलाल के मन में बचपन से ही देश को आजादी दिलाने के लिए कुछ कर गुजरने की ललक जाग गई. छोटी उम्र से ही उनकी राजनीतिक गतिविधियां बढ़ गईं थीं, परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने उनकी डिग्री रोक दी.
मगर इसका कनाई पर कोई खास असर नहीं पड़ा. उन्होंने अपनी मंजील तभी तय कर ली थी जब वो प्रोफेसर चारुचंद्र राय के प्रभाव में आए. प्रोफेसर राय वही थे जिन्होंने चंद्रनगर में ‘युगांतर पार्टी’ की स्थापना की थी.
कुछ पार्टी से जुड़ने के बाद कनाईलाल का संपर्क कुछ अन्य क्रान्तिकारियों से भी हुआ. बाद में इन्हीं की सहायता से कनाई ने पिस्तौल चलाना और निशाना साधना सीखा.
सत्रह वर्ष की आयु में बन गए क्रांतिकारी
सत्रह वर्ष की आयु में जहां लोग खुद को बच्चा मान कर भविष्य की चिंता फिक्र से कोसों दूर होते हैं वहीं कनाईलाल ने इस उम्र में भारत मां को गुलामी की जंजीरों से आजाद करने के लिए हाथों में विद्रोह की मशाल थाम ली थी. सन 1905 के ‘बंगाल विभाजन’ विरोधी आन्दोलन में कनाईलाल ने आगे बढ़कर भाग लिया तथा वे इस आन्दोलन के नेता सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के भी सम्पर्क में आये.
बीए की परीक्षा समाप्त होने के बाद कनाईलाल ने कलकत्ता का रुख किया. यहां इनकी भेंट प्रसिद्ध क्रान्तिकारी बारीन्द्र कुमार घोष से हुई तथा कनाई बारीन्द्र घोष के दल में सम्मिलित हो गए. एक सम्मानित अंग्रेज अधिकारी का पुत्र अब क्रांतिकारियों के साथ उस मकान में रहने लगा अस्त्र-शस्त्र और बम आदि रखे जाते थे.
1907 बितने के साथ ही उस साल की शुरुआत हुई जिसे भारत की आजादी के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया. ये वही साल था जब किशोरों ने अपनी मांओं के आंचल और जीवन के सुख का मोह त्याग कर भारत माता को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने का प्रण ठाना और अपने खून से इंकलाब लिख दिया.
जब हिला दीं ब्रिटिश सरकार की जड़ें
ये सन था 1908, शाम थी 30 अप्रैल की, किंग्सफोर्ड और उसकी पत्नी क्लब में पहुंचे. ये वही किंग्सफोर्ड था जो उनदिनों कलकत्ता में चीफ प्रेंसीडेसी मजिस्ट्रेट के पद पर था. वह बहुत सख्त और क्रूर अधिकारी था. किंग्सफोर्ड देश भक्तों, विशेषकर क्रांतिकारियों को बहुत तंग करता था. उन पर वह कई तरह के अत्याचार करता.
एक तरह से उसने क्रांतिकारियों का जीना दुर्लभ कर रखा था. रात्रि के साढे़ आठ बजे मिसेज कैनेडी और उसकी बेटी अपनी बग्घी में बैठकर क्लब से घर की तरफ आ रहे थे. उनकी बग्घी का रंग लाल था और वह बिल्कुल किंग्सफोर्ड की बग्घी से मिलती-जुलती थी. खुदीराम बोस तथा उनके साथी ने किंग्सफोर्ड की बग्घी समझकर उस पर बम फेंक दिया. देखते ही देखते बग्घी के परखचे उड़ गए. उसमें सवार मां बेटी दोनों की मौत हो गई. क्रांतिकारी इस विश्वास से भाग निकले कि किंग्सफोर्ड को मारने में वे सफल हो गए है.
इस हमले का खुदीराम को अफसोस हुआ क्योंकि अनजाने में उन्होंने दो निर्दोष जानें ली थीं, मगर वे अदालत में इस बात से पलटे नहीं कि उन्हों किंग्सफोर्ड को मरने के उद्देश्य से ऐसा किया था.
भले ही इस हमले में किंग्सफोर्ड नहीं मरा था लेकिन ब्रिटिश सरकार की नींव हिल गई थी. उन्होंने हर तरफ से क्रांतिकारियों की धर पकड़ शुरू कर दी. इसी धर पकड़ में 2 मई, 1908 को कनाईलाल दत्त, अरविन्द घोष, बारीन्द्र कुमार आदि को गिरफ्तार कर लिया गया.
एक गद्दार को दी गद्दारी की सजा
शायद ये लोग बच जाते यदि इस मुकदमें में नोरेंद्र गोसाईं नाम का एक अभियुक्त सरकारी मुखबिर न बना होता. इतने वफादारों की जिंदगी एक गद्दार के चलते दांव पर लग गई. ये बात उन क्रान्तिकारियों को नागवार गुजारी. उन्होंने इस मुखबिर से बदला लेने के लिए मुलाकात के बहाने चुपचाप बाहर से रिवाल्वर मंगाए.
इसी बीच नोरेंद्र को खबर मिली कि कनाईलाल दत्त का साथी सत्येन बोस बीमार पड़ गया है तथा वो नोरेंद्र से मिल कर ये बताना चाहता है कि उसे भी उसकी तरह अंग्रेजों का मुखबिर बनना है. नोरेंद्र गोसाईं इस बात से खुश था कि उसे अपने जैसा एक और मिल गया है. इसी प्रसन्नता के साथ वो सत्येन से मिलने अस्पताल पहुंचा.
नोरेंद्र गोसाईं सत्येन के पास बैठा था. और बगल में ही कनाईलाल भी बीमारी का बहाना बनाए लेटे थे. ये सत्येन और कनाईलाल की सोची समझी चाल थी. कनाई का इशारा पाते ही सत्येन ने नोरेंद्र पर गोली चला दी, इसके साथ ही फिर कनाईलाल ने भी फायर कर गद्दार नोरेंद्र गोसाईं को वहीं ढेर कर दिया.
वहां खड़ी पुलिस कुछ देर के लिए समझ ही नहीं पाई कि यहां क्या और कैसे हुआ. बाद में दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया. कनाईलाल को अपील करने की इजाजत नहीं दी गई. उन्हें मृत्युदंड मिला. 10 नवम्बर, 1908 को कनाईलाल दत्त ने कलकत्ता में फांसी के फंदे पर झूलते हुए खुद को देश के लिए कुर्बान कर दिया.
शवयात्रा में शामिल हुआ था पूरा कलकत्ता
जिस कालीघाट पर कनाईलाल का अंतिम संस्कार हुआ वहां एकत्रित जनसैलाब का दृश्य बंगाल के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया. कहा जाता है कि सड़क पर इकट्ठी भीड़ कनाईलाल की अर्थी को छूने के लिए एक दूसरे को धकेल रही थी. उनके पार्थिव शव को तेल से नहलाने के बाद फूलों से सजा दिया गया था.
केवल पुरुष और युवा लड़के ही नहीं अपितु महिलाएं भी उनकी शवयात्रा का हिस्सा बनीं. अपने दल के सबसे नहासी और निर्भीक क्रांतिकारी के रूप में पहचाने जाने वाले कनाईलाल की इस शवयात्रा में जय कनाई नाम से गगनभेदी जयकारे लग रहे थे. उस समय लोगों के ऊपर उनके इस बलिदान का कितना असर हुआ इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि उनकी अस्थियों को उनके एक समर्थक ने 5 रुपयों में खरीदा था.
मात्र बीस वर्ष की आयु में ही शहीद हो जाने वाले कनाईलाल दत्त ने अपने अंतिम दिनों में गीता और स्वामी विवेकानंद की किताबें पढ़ते हुए समय बिताया. अंतिम दिनों में उनका वजन लगभग चार किलो तक बढ़ गया था.
रो पड़ा था फांसी देने वाला वार्डन
उन्हें फांसी लगने से एक दिन पहले एक अंग्रेज वार्डन ने टोंट मारते हुए कहा कि “ये जो आज तुम इतना मुस्कुरा रहे हो, कल यही मुस्कान तुम्हारे होंठों से गायब हो जाएगी.”
संयोग से जब कनाईलाल को फांसी दी जाने वाली थी उस समय वो वार्डन वहीं मौजूद था. फांसी पर चढ़ने से कुछ ही देर पहले कनाईलाल ने मुस्कुराते हुए उसी अंग्रेज वार्डन से पूछा “बताइए, अभी मैं आपको कैसा लग रहा हूं.” उस वार्डन के पास कनाई के इस सवाल का कोई जवाब नहीं था.
इस घटना ने उस वार्डन को अंदर तक झकझोर दिया था. कुछ दिन बाद उसने प्रोफेसर चारुचंद्र रॉय से कहा था कि “मैं पापी हूं जो कनाईलाल को फांसी चढ़ते देखता रहा. अगर उसके जैसे 100 क्रांतिकारी आपके पास हो जाएं तो आपको अपना लक्ष्य कर के भारत को आजाद करने में ज्यादा देर न लगे.”