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तीन मुट्ठी चावल में खरीदा गया खुदीराम, खुद के प्राण देश पर न्योछावर कर गया

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आज हम जिस नायक की कहानी आपको सुनाने जा रहे हैं उन्होंने अपने देश, अपनी भारत माता के लिए जो किया वो उस समय के युवाओं के लिए एक नजीर बन गया. आइये शुरू करते हैं कहानी उस युवा की जिसने बचपन में खिलौनों से खेलने की बजाए हाथ में आजादी की मशाल थाम ली.

एक चिंता के साथ जन्में थे खुदीराम

बात है बंगाल के मिदनापुर जिले के छोटे से गांव मोहबनी की. सन था 1889, तारीख़ थी 3 दिसंबर और दिन था मंगलवार. दिन भर की मेहनत के बाद दिनकर बाबा विश्राम के लिए अपने कक्ष की ओर बढ़े चले जा रहे थे और शाम की लालिमा धीरे धीरे अपने पैर पसर रही थी. घर के बाहर तीन बच्चियां खेल रही थीं. हालांकि खेल तो बस सरोजिनी और नानीबाला ही रही थीं आपरूपा तो बस ये ध्यान रख रही थी कि कहीं दोनों झगड़ा न कर लें. 

इतने में घर के भीतर से मां के कराहने की आवाज आई. छोटी बहनें अपने खेल में मगन थीं लेकिन आपरूपा ने मां की पीड़ा भरी आवाज़ सुन ली. वह दौड़ती हुई घर के अंदर भागी. मां को दर्द से छटपटाता देख आपरुपा ने पड़ोस की औरतों को बुला लिया. औरतों के आते ही वो फिर से अपनी छोटी बहनों के पास लौट आई.

आपरूपा के चेहरे पर चिंता साफ़ झलक रही थी. बहनों ने इसे भांप कर सवाल भी किये लेकिन आपरूपा के पास उनके सवालों के जवाब के लिए शब्द नहीं थे इसलिए उसने उन्हें किसी तरह टाल दिया. काफी देर की मेहनत के बाद अंदर से एक महिला ने मुस्कुराते हुए वहां की स्थानीय भाषा में कुछ कहा. उस मुस्कराहट का मतलब था कि लक्ष्मीप्रिया यानि उन बच्चियों की मां ने बेटे को जन्म दिया था. 

ये खबर सुनते ही बच्चियां खुशी से घर की ओर दौड़ीं. बच्चियों के पिता और लक्ष्मीप्रिया के पति त्रैलोक्यनाथ बोस अभी तक घर नहीं आए थे. घर पर एकत्रित औरतों ने एक दो बार इस बात के लिए चिंता भी जताई. दरअसल त्रैलोक्यनाथ राजा नारजोल के यहां तहसीलदार के रूप में कार्यरत थे. काम ज्यादा होने के कारण अक्सर देर हो जाया करती थी उन्हें.

ये खुशखबरी सुनाने के लिए सब उनका बेसब्री से इतजार कर रहे थे. थोड़ी देर में त्रैलोक्यनाथ उधर से आते दिखे, उनके घर एकत्रित महिलाओं ने उन्हें घेर लिया और बधाई देने लगीं. भीड़ में से किसी ने बधाई देते हुए कहा, “बहुत बहुत बधाई हो त्रैलोक्यनाथ जी. जिसकी कमी महसूस हो रही थी वो कमी आज पूरी हो गयी.”

त्रैलोक्यनाथ इतना सुनते ही आश्चर्य में बोले “क्या मतलब ?”

“अरे पुत्र हुआ है.” इतना सुनना था कि त्रैलोक्यनाथ की आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े. इस दिन का उन्हें न जाने कब से इंतजार था. दो पुत्र पहले भी हुए लेकिन आंखें खोलने से पहले ही काल का ग्रास बन गए. ऐसे में उनका मन कब से एक पुत्र के लिए तरस रहा था. 

त्रैलोक्यनाथ उस दिन भले ही एक पुत्र की लालसा के पूरे होने पर खुश थे किन्तु वो दिन खुशी से ज्यादा गर्व करने का था क्योंकि उस दिन उनके घर एक ऐसे क्रांतिकारी ने जन्म लिया था जो आगे चल कर इतिहास के पन्नों पर अमर होने वाला था. जिसका नाम आने वाले दिनों में युवाओं के लिए एक मिसाल बनने वाला था.

इस खुशी के मौके पर त्रैलोक्यनाथ ने बीस किलो मिठाई मंगवाई. घर में पूरी तरह से खुशी का माहौल था लेकिन इस खुशी के साथ त्रैलोक्यनाथ की आंखों में चिंता की भी बड़ी गहरी लकीर दिखाई दे रही थी. चिंता का कारण यह था कि इससे पहले भी उनके दो पुत्र जन्म के बाद काल के मुंह में समा चुके थे. 

उनके परिवार भर में ये धारणा बन चुकी थी कि उनके घर पुत्र जीवित नहीं रहेगा. यही कारण था कि तीन पुत्रियां सही सलामत थीं किन्तु दो पुत्र मर चुके थे. ऐसे में त्रैलोक्यनाथ बाबू को ये डर था कि उनके इस पुत्र को भी कहीं मौत उनसे छीन. भाई को चिंतित देख उनकी बहन अनुपमा उनके पास आई.

कैसे पड़ा खुदीराम नाम? 

“क्या बात है भईया. इस खुशी के मौके पर भी आप खुश नहीं दिखाई दे रहे.”

“क्या बताऊं बहन ! चिंता यही है कि कहीं पहले के पुत्रों की भांति इसे भी न खो दूं.” अनुपमा को भी यही डर था.

“भईया, मेरी सास कहती हैं कि इस बच्चे को बेच दिया जाए. ऐसे में इसके ऊपर जो भी दैवीय संकट होगा वो दूर हो जाएगा.”

“हां बहन, ऐसा मैंने भी सुना है. लेकिन इसे हम बेचेंगे किसे?”

अनुरुपा वहां खड़ी दोनों की बात सुन रही थी. उसने झट से कहा, “बाबू जी, इसे मैं खरीदूंगी.”

“ऐसा कैसे संभव हो सकता है. ये काम बड़ों का है बच्चों का नहीं.” त्रैलोक्यनाथ ने कहा.

“बड़ों का ही क्यों ? हम तीनों बहनें इसे खरीदेंगी और इसे बड़े लाड़ प्यार से पलेंगी.”

“मगर खरीदोगी कैसे.”

“तीन मुट्ठी खुदी (चावल के महीन टुकड़े) से.”

अनुपमा ने अनुरुपा की इस बात का समर्थन किया और तीनों बहनों ने तीन मुट्ठी खुदी में अपने भाई को खरीद लिया. ये सब संयोग था लेकिन कौन जानता था कि आगे चल कर सच में इस भाई को बहन ही पलेगी.  जब बच्चे के नामकरण की बारी आई तो त्रैलोक्यनाथ ने बड़े भोज का आयोजन किया और राजा नारजोल सहित कई उच्च पदाधिकारियों को निमंत्रण भेजा. सभी मेहमान उपस्थित हुए. नामकरण का महूरत आगया. 

सभी ने अपने अपने सुझाव दिए मगर अनुपमा बीच में ही बोल पड़ीं कि “सबसे क्षमा चाहूंगी और विनम्र विनती करूंगी कि यदि बच्चे को उसकी बहनों ने खरीदा है तो उसका नाम रखने का अधिकार भी उन्हीं को दिया जाए. सबने अनुपमा की बात का समर्थन किया. अनुरुपा और बाकि दोनों बहनों ने भाई को तीन मुट्ठी खुदी के बदले खरीदा था इसीलिए उसका नाम खुदीराम रखा गया. 

बड़ी बहन ने मां की तरह पाला 

जी हां वही खुदीराम बोस जिसने छोटी सी उम्र में अंग्रेजों की नाक में ऐसा दम किया कि अंग्रेज उसे किसी भी हाल में पकड़ने पर उतारू हो गए. खुदीराम के जन्म के एक साल बाद ही अनुरुपा का विवाह हो गया. लेकिन वो ससुराल नहीं गयीं या यूं कहें कि भाई के मोह ने उन्हें ससुराल जाने नहीं दिया. लेकिन ससुराल वाले भी कितना देखते, कुछ वर्षों में उन्होंने अनुरुपा को ससुराल बुला लिया. 

त्रैलोक्यनाथ चाहते हुए भी बेटी को रोक नहीं पाए. इधर अनुरुपा की विदाई हो रही थी उधर खुदीराम ने चिल्ला चिल्ला कर घर सर पर उठा रखा था. पहले भी अनुरुपा के ससुराल जाने की बात सुन को वो उसके सीने से जा के चिपक जाया करता था. अनुरुपा भी उसे मां की तरह चाहती थी. कुछ वर्षों बाद सरोजिनी की भी शादी हो गयी और अब घर में बस नानीबाला और खुदीराम बचे.

पिता ने कर ली दूसरी शादी 

इसी बीच त्रैलोक्यनाथ के सर पर मुसीबतों का पहाड़ तब टूटा जब 1895 में खुदीराम की मां लक्ष्मीप्रिया इस दुनिया से चल बसीं. इस समय खुदीराम मात्र 6 वर्ष के थे. अब दो बच्चों की जिम्मेदारी के साथ साथ नौकरी का बोझ भी ढोना पड़ रहा था त्रैलोक्यनाथ को. ऐसे में वो दो बच्चों को अकेला छोड़ कर नौकरी पर नहीं जा सकते थे और नौकरी छोड़ देते तो घर चलाना मुश्किल हो जाता. 

बेटियों को भी कितने दिन मायके में रखा जाए. यही सब सोच कर उन्होंने दूसरी शादी कर ली. खुदीराम अपनी सौतेली मां से दूर दूर रहने लगा, जो त्रैलोक्यनाथ को चिंतित करता था. धीरे धीरे त्रैलोक्यनाथ बीमारी की चपेट में आ गए. बहुत उपचार हुआ लेकिन कोई फायदा नहीं. अंत में वो खुदीराम को अनाथ कर गए.

बचपन से ही थे क्रांतिकारी स्वभाव के 

जिस बहन ने खुदिएराम को खरीदा उसी ने बाद में खुदीराम की जिम्मेदारी उठाई. ऐसे तो त्रैलोक्यनाथ की इच्छा थी कि वो पुत्र खुदीराम को पढ़ा लिखा कर बड़ा अधिकारी बनाएं किन्तु पहले पत्नी तथा बाद में वो स्वयं इस दुनिया से चल बसे. वैसे भी खुदीराम को वो चाह कर भी अपने मन मुताबिक नहीं ढाल सकते थे क्योंकि नियति ने उसे इतिहास रचने के लिए चुना था. ये वो दौर था जब बच्चा बच्चा अंग्रेजी हुकूमत से नफरत करने लगा था ऐसे में खुदीराम के मन में स्कूल के दिनों में ही क्रांति की मशाल जल उठी थी.   

वो जलसे जलूसों में शामिल होते थे तथा अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ नारे लगाते थे. बोस को गुलामी की बेड़ियों से जकड़ी भारत माता को आजाद कराने की ऐसी लगन लगी कि उन्होंने नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी. इसके बाद वह सिर पर कफ़न बांधकर जंग-ए-आज़ादी में कूद पड़े. वह रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदेमातरम पंफलेट वितरित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में चलाए गए आंदोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया.

कई बार किया पुलिस ने गिरफ्तार 

इस छोटे से लड़के के तेवर इस तरह से बागी थे कि देश को आजाद कराने की ललक और अंग्रेजों के प्रति नफ़रत इसकी आंखों में देखी जा सकती थी. खुदीराम 28 फरवरी सन 1906 को सोनार बंगला नामक एक इश्तहार बांटते हुए पकड़े गए. पुलिस ने खुदीराम को जेल में बंद कर के पीटा लेकिन वो मजबूत थे. पुलिस मारते मारते थक गयी मगर बोस नहीं थके. अंत में वह पुलिस के शिकंजे से भाग निकले.

16 मई, सन् 1906 को एक बार फिर पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया, लेकिन उनकी आयु कम होने के कारण उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया था. 6 दिसम्बर, 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर किए गए बम विस्फोट की घटना में भी बोस भी शामिल थे. उन्होंने अंग्रेज़ी चीज़ों के बहिष्कार आन्दोलन में बढ़चढ़ कर भाग लिया.

भारतीय स्‍वतंत्रता आंदोलन के आरंभिक चरण में कई क्रांतिकारी ऐसे थे जिन्‍होंने ब्रिटिश राज के विरुद्ध आवाज़ उठाई. खुदीराम बोस भारत की स्‍वतंत्रता के संघर्ष के इतिहास में संभवतया सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी थे, जो भारत मां के सपूत कहे जा सकते हैं. बंगाल के विभाजन के बाद दुखी होकर खुदीराम बोस ने स्‍वतंत्रता के संघर्ष में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से एक मशाल जलाई. उन्‍होंने ब्रिटिश राज के बीच डर फैलाने के लिए एक ब्रिटिश अधिकारी के वाहन पर बम फेंक दिया.

अंग्रेज अफसर को मरने की बनाई योजना 

बात कुछ यूं थी कि कलकत्ता में उन दिनों किंग्सफोर्ड चीफ प्रेंसीडेसी मजिस्ट्रेट था. वह बहुत सख़्त और क्रूर अधिकारी था. वह अधिकारी देश भक्तों, विशेषकर क्रांतिकारियों को बहुत तंग करता था. उन पर वह कई तरह के अत्याचार करता. एक तरह से उसने क्रांतिकारियों का जीना दुर्लभ कर रखा था.

ऐसे में क्रांतिकारियों ने उसे मार डालने की ठान ली थी. युगान्तर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेन्द्र कुमार घोष ने घोषणा की कि किंग्सफोर्ड को मुज़फ्फरपुर में ही मारा जाएगा. इस काम के लिए चुना गया स्वतंत्रा संग्राम के सबसे युवा क्रांतिकारी खुदीराम बोस तथा साथी प्रफुल्ल चाकी को.

ये दोनों क्रांतिकारी बहुत सूझबूझ वाले थे. इनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. देशभक्तों को तंग करने वालों को मार डालने का काम उन्हें सौंपा गया था. वे दोनों मुज़फ्फरपुर पहुंच गए. वहीं एक धर्मशाला में वे आठ दिन रहे. इस दौरान उन्होंने किंग्सफोर्ड की दिनचर्या तथा गतिविधियों पर पूरी नज़र रखी. उनके बंगले के पास ही क्लब था. अंग्रेज़ी अधिकारी और उनके परिवार अक्सर सायंकाल वहां जाते थे.

30 अप्रैल, 1908 की शाम किंग्स फोर्ड और उसकी पत्नी क्लब में पहुंचे. रात्रि के साढे़ आठ बजे मिसेज कैनेडी और उसकी बेटी अपनी बग्घी में बैठकर क्लब से घर की तरफ आ रहे थे. उनकी बग्घी का रंग लाल था और वह बिल्कुल किंग्सफोर्ड की बग्घी से मिलती-जुलती थी. खुदीराम बोस तथा उसके साथी ने किंग्सफोर्ड की बग्घी समझकर उस पर बम फेंक दिया. देखते ही देखते बग्घी के परखचे उड़ गए. उसमें सवार मां बेटी दोनों की मौत हो गई. क्रांतिकारी इस विश्वास से भाग निकले कि किंग्सफोर्ड को मारने में वे सफल हो गए है.

खुदीराम बोस और घोष 25 मील भागने के बाद एक रेलवे स्टेशन पर पहुंचे. खुदीराम बोस पर पुलिस को इस बम कांड का संदेह हो गया और अंग्रेज़ पुलिस उनके पीछे लगी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया. अपने को पुलिस से घिरा देख प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मारकर शहीद हो गए. उनके मन में तनिक भी भय की भावना नहीं थी. खुदीराम बोस को जेल में डाल दिया गया और उन पर हत्या का मुक़दमा चला.

जज के सामने रहे निडर 

अदालत कुछ ऐसा था कि कटघरे में खड़े उस 19 साल के लड़के को देख कोई कह नहीं सकता था कि ये उस उम्र में है जब तक लड़के अपनी जिंदगी में आगे क्या करना है ये भी तय नहीं कर पाए होते. हत्या का इल्जाम अपने सिर लिया हुआ ये लड़का इतने आत्म विश्वास में खड़ा था कि मानों उसने कुछ गलत ना किया हो. भय तो उसके आस पास भी नहीं भटक रहा था. जिलाधीश की कुर्सी पर बैठे थे वुडमैन. वुडमैन ने बोस से पूछा, “क्या तुमने बग्गी में बम किंग्सफोर्ड की हत्या करने के उदेश्य से फेंका था ?”

बोस का सधा हुआ जवाब था “हां.”

“तुमने ऐसा क्यों किया ?”

“क्योंकि वो बहुत अत्याचारी था.”

“तुमने ये उचित नहीं किया. ये शासन के खिलाफ विद्रोह है, जिसकी तुम्हें सजा मिलेगी.” सजा का नाम सुन कर इस बच्चे को डर जाना चाहिए था. मगर नहीं, उसकी आंखों में कहीं डर नहीं दिख रहा था.

उसने बड़े गर्व से कहा, “जो कोई भी मेरे देशवासियों पर अत्याचार करेगा उसका वही हाल होगा जो किंग्सफोर्ड का हो सकता था.”

“लेकिन बग्घी में सवार महिलाओं का क्या दोष था ?”

 “हां, उनके लिए मुझे बेहद अफ़सोस है. वो बग्घी में हैं इसकी जानकारी हमें नहीं थी वरना हम ऐसा कतई न करते.”

सच की लड़ाई में नहीं लूंगा झूठ का सहारा

खुदीराम का मुकदमा लड़ने रंगपुर से सतीशचन्द्र आये थे. वो खुदी द्वारा सरे आरोप कबूल किये जाने पर बहुत चिंतित थे. जब खुदीराम अपने ऊपर लगे आरोपों को स्वीकार कर चुके थे तो ऐसे में सतीशचंद को उन्हें बचाने का कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था. ऐसे में उन्होंने खुदीराम से अकेले में मिलना सही समझा. खुदीराम से मिलने के लिए उन्होंने वुडमैन को अनुरोध पत्र पेश किया जिसे वुडमैन ने स्वीकार कर लिया.

खुदीराम से मिलते ही सतीशचंद्र ने कहा, “खुदीराम तुमने अपने आरोपों को स्वीकार क्यों कर लिया जबकि हम तुम्हें बचने में लगे थे.”

खुदीराम ने बड़ी निडरता और गर्व से कहा “सभी आरोप सही थे इसीलिए मैंने उन्हें कबूल कर लिया.”

“क्या तुम जीवित रह कर देश की सेवा नहीं करना चाहते ?”

“हां, लेकिन सच की लड़ाई में मैं झूठ का सहारा ले कर बचना भी नहीं चाहता.”

खुदीराम के इस जवाब के बाद सतीशचंद्र के पास कहने को कुछ नहीं बचा था.  

8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून को उन्हें प्राण दण्ड की सजा सुनाई गई. इसके बाद 11 अगस्त, 1908 को इस वीर क्रांतिकारी को फांसी पर चढ़ा दिया गया. उन्होंने अपना जीवन देश की आज़ादी के लिए न्योछावर कर दिया.

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