आप किसी बड़े बुजुर्ग के पैर छुएं तो आपको सबसे ज्यादा लम्बी उम्र का आशीर्वाद ही मिलेगा. हर कोई चाहता भी यही है कि जिसके प्रति उसके मन में स्नेह है वो एक लम्बी उम्र जिए. लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि क्या हमारा जन्म मात्र लम्बी उम्र जीने के लिए हुआ है? क्या बस सांसों से खेलते रहना भर ही जीवन है? क्या अपने लिए धन और सुख सुविधाएं जुटाना भर ही जीवन का लक्ष्य है? यदि हां तो फिर हम खुद को इश्वर की बनाई सबसे अनमोल कृति क्यों कहें? अगर खुद के लिए जीना हमारा लक्ष्य है तो फिर जानवर और हम में फर्क ही कितना है?
असल में हम सबके लिए ये जरूरी है कि हम जीवन में ऐसा लक्ष्य निर्धारित करें जो से ज्यादा दूसरों की भलाई के लिए हो. और यकीन मानिए इसके लिए लम्बी उम्र की भी कोई आवश्यकता नहीं. जी आपने सही सोचा ये बेहद कठिन है, कठिन है तभी तो हर रोज करोड़ों बच्चे पैदा होने के बावजूद वो नरेंद्र सदियों में कभी एक बार जन्म लेता है जिसे आगे चलकर स्वामी विवेकनंद बनना हो, और युवाओं को जीवन के बाद भी प्रेरित करना हो.
बालक नरेंद्र कैसे बने स्वामी विवेकानंद?
12 जनवरी 1863 का दिन एक ऐसे सूरज के साथ उदय हुआ जिसने इतिहास के पन्नों पर अपने साथ अपने देश का नाम भी इतिहास के पन्नों पर स्वर्ण अक्षरों में अंकित किया. बच्चे का नाम रखा गया नरेन्द्रनाथ दत्त. इस गौरवशाली बच्चे के माता पिता हुए कलकत्ता हाईकोर्ट के अटॉर्नी विश्वनाथ दत्त और भुवनेश्वरी देवी.
जिस परिवर में बाल नरेंद्र का जन्म हुआ वो कुलीन और संपन्न था. पिता उदार प्रवृति के थे, संजोने से ज्यादा दूसरों की सहायता में विश्वास रखते थे. नरेंद्र की माता पूजा पाठ में लीन रहने वाली गृहणी थीं. पिता चाहते थे कि बेटा अंग्रेजी भाषा का अध्यन करे और पाश्चात्य सभ्यता अपनाए किन्तु उन्हें क्या पता था कि नियति ने उनसे उनके बेटे का भविष्य चुनने का अधिकार छीन कर खुद ही तय कर दिया है कि इसे किस राह पर चलना है. माँ के पूजा पाठ, ईश्वर के प्रति नेह और अपने दादा दुर्गाचरण दत्त के संस्कृत ज्ञान ने बालक नरेंद्र को बहुत प्रभावित किया.
आठ साल की आयु में बालक नरेंद्र का दाखिला ईश्वर चंद्र विद्यासागर मेट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूट में कराया गया. यहां से उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की. पूजा पाठ और धर्म की ओर झुकाव होने की वजह से उनकी शिक्षा पर कभी कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वो हमेशा से एक होशियार विद्यार्थी ही रहे. 1879 में कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज की एंट्रेंस परीक्षा में प्रथम श्रेणी में आने वाले वे पहले विद्यार्थी थे. उन्होंने दर्शनशास्त्र, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य जैसे विभिन्न विषयों को काफी पढ़ा. साथ ही हिंदू धर्मग्रंथों में भी उनकी रुचि थी.
रामकृष्ण परमहंस से कैसे हुई मुलाकात?
उन्होंने वेद, उपनिषद, भगवत गीता, रामायण, महाभारत और पुराण को भी पढ़ा. बालक नरेंद्र जो अब युवा हो चुके थे के मन में धर्म को ले कर कई विचार और सवाल थे जिनका जवाब उन्हें ढूंढना था. इन्हीं जवाबों को तलाशते हुए वो स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद ब्रह्म समाज से जुड़ गए, जो हिन्दू धर्म में सुधार लाने तथा उसे आधुनिक बनाने का प्रयास कर रहा था. लेकिन यहां उन्हें वो संतुष्टि न हुई जिसकी उन्हें तलाश थी.
इसी बीच उनकी जिज्ञासा उन्हें दक्षिणेश्वर के काली भक्त रामकृष्ण परमहंस के पास खींच ले गयी. नरेंद्र का रामकृष्ण जी से मिलना ऐसा था जैसे हीरा स्वयं जोहरी के पास चल कर आया हो और जोहरी से उसकी हीरे पहचानने की काबिलियत परख रहा हो. रामकृष्ण जी के विचारों और सिद्धांतों ने नरेंद्र को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने रामकृष्ण जी को अपना गुरु मान लिया. 1884 में युवा नरेंद्र को एक असहनीय वेदना तब सहनी पड़ी जब अकस्मात ही उनके पिता अपने परिवार सहित इस संसार से मुंह मोड़ गए.
नरेंद्र उस समय अपने नाना के यहां थे. उनके घर से कोई आया और नरेंद्र से कहा कि “शीघ्र ही घर चलें, आपके पिता का देहावसान हो गया है.” नरेंद्र के लिए ये बहुत बड़ा अघात था. घर पहुंचे तो पिता उनके लिए परिवार की जिम्मेदारियां छोड़ गए थे. कहा जाता है कि उन दिनों नरेंद्र के घर की हालत ऐसी हो गयी थी कि भाई बहनों के लिए भोजन भी पर्याप्त नहीं हो पता था. कई बार तो ऐसा हुआ कि नरेंद्र अपनी मां से ये कह कर चले जाते थे कि उन्हें किसी मित्र ने अपने यहां खाने पर बुलाया है. वो ऐसा इस लिए करते थे कि उनके भाई बहनों को उनके हिस्से का खाना मिल सके. इसी बीच रिश्तेदारों ने अपना क्रूर चेहरा दिखाते हुए उनके घर पर कोर्ट केस कर दिया.
खुद लड़ा अपना केस और तर्कों से जीता भी
इस केस को नरेंद्र ने खुद लड़ा और अपने तर्कों से जीता भी. इस पर उनके विपक्षी वकील ने कहा तुम वकालत ही करो, भविष्य में तुम बहुत बड़े वकील बनने की काबिलियत रखते हो. मगर नरेंद्र को तो कुछ और ही करना था अतः वो मुस्कुरा कर वहां से चल दिए और अपनी माँ के पास आ कर बोले “माँ हमारा घर अब हमारा ही है.
सन् 1885 में रामकृष्ण को गले का कैंसर हुआ, जिसके बाद उन्हें जगह-जगह इलाज के लिए जाना पड़ा. उनके अंतिम दिनों में नरेंद्र और उनके अन्य साथियों ने रामकृष्ण की खूब सेवा की. इसी दौरान नरेंद्र की आध्यात्मिक शिक्षा भी शुरू हो गई थी. रामकृष्ण के अंतिम दिनों के दौरान 25 वर्षीय नरेंद्र और उनके अन्य शिष्यों ने भगवा पोशाक धारण कर ली थी. रामकृष्ण ने अपने अंतिम दिनों में नरेंद्र को ज्ञान का पाठ दिया और सिखाया कि मनुष्य की सेवा करना ही भगवान की सबसे बड़ी पूजा है. रामकृष्ण ने उन्हें अपने मठवासियों का ध्यान रखने को कहा.
साथ ही उन्होंने कहा कि वे नरेंद्र को एक गुरु के रूप में देखना चाहते हैं. 16 अगस्त, 1886 को रामकृष्ण का निधन हो गया. युवा नरेंद्र अब सन्यास की राह पर बहुत आगे बढ़ चुके थे. इसी बीच उन्हें अमेरिका के शिकागों में होने वाले विश्व धर्म सम्मलेन में भारत का प्रतिनिधित्व करना था. विदेश जाने से पहले उन्हें खेतड़ी, राजस्थान जाना पड़ा क्योंकि वहां के महाराजा अजीत सिंह की कोई संतान नहीं थी और स्वामीजी के आशीर्वाद से पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई थी. ये वाही अजीत सिंह थे जिन्होंने स्वामी जी के विदेश जाने का पूरा प्रबंध किया.
विश्व धर्म सम्मलेन में भारत के प्रतिनिधि बने
कहा जाता है कि स्वामी जी को विवेकानंद नाम भी उन्होंने ही दिया था. महाराजा को पुत्र हुआ था जिस खुशी में एक उत्सव मनाया जा रहा था. दरबार में कई सामंत, प्रजाजन और कलाकार उपस्थित थे. कार्यक्रम के आखिरी में एक गणिका अपना नृत्य औऱ गीत प्रस्तुत करने के लिए उपस्थित हुई. स्वामी जी तत्काल सभाग्रह से उठकर अपने कक्ष में चले गए. गणिका को यह अच्छा नहीं लगा और उसने मधुर कंठ से गीत गाया, ‘प्रभुजी मोरे अवगुण चित न धरो’. स्वामी जी ने जब यह गीत सुना तो वे अपने कमरे से वापस सभाग्रह में आए और कार्यक्रम में उपस्थित रहे. स्वामी जी ने सोचा, मैं वितराग संन्यासी हूं और मुझमें नारी और पुरुष के प्रति यह भेदबुद्धि नहीं होना चाहिए.
इसके बाद वो 1893 में अमेरिका के शिकागो में हुए विश्व धर्म सम्मलेन में स्वामी विवेकानंद भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुंचे. जहां यूरोप-अमेरिका के लोगों द्वारा गुलामी झेल रहे भारतीयों को हीन दृष्टि से देखा जाता था. परिषद में मौजूद लोगों की बहुत कोशिशों के बावजूद एक अमेरिकी प्रोफेसर के प्रयास से स्वामी विवेकानंद को बोलने के लिए थोड़ा समय मिला. यहां अपने भाषण की शुरुआत ‘मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों’ कहकर की थी.
उनके विचार सुनकर वहां मौजूद सभी विद्वान चकित रह गए और उसके बाद वह तीन वर्ष तक अमेरिका में रहे और लोगों को भारतीय तत्वज्ञान प्रदान करते रहे. ने जिसके बाद धर्म, सभ्यता और भारतीय संस्कृति पर उनके विचारों से वहां के लोग काफी प्रभावित हुए. विदेशी मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिंदू नाम दिया था. भारतीय साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार पाने वाले गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था, ‘अगर आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए, उनमें सब कुछ सकारात्मक है, नकारात्मक कुछ भी नहीं.’
मात्र 39 साल की उम्र में हो गया था निधन
स्वामी विवेकानंद की कम उम्र में मृत्यु को लकेर मशहूर बांग्ला लेखक शंकर ने अपनी किताब ‘द मॉन्क ऐज मैन’ में लिखा था कि स्वामी अनिद्रा, मलेरिया, माइग्रेन, डायबिटीज समेत दिल, किडनी और लिवर से जुड़ी 31 बीमारियों के शिकार थे. इसी वजह से उनका मात्र 39 साल की उम्र में 4 जुलाई, 1902 को निधन हो गया.