यूनिफॉर्म सिविल कोड को आसान भाषा में बताया जाए तो इस कानून का मतलब है कि देश में सभी धर्मों, समुदाओं के लिए कानून एक समान होगा. उत्तराखंड मंत्रिमंडल ने 4 फरवरी 2024 को (UCC) के मसौदे को मंजूरी देकर इसे एक बार फिर से चर्चा के केंद्र में ला दिया है. वैसे यह मुद्दा नया नहीं है. करीब एक सदी से भी ज्यादा समय से यह राजनीतिक नरेटिव और बहस के केंद्र बना हुआ है और बीजेपी के एजेंडा में रहा है.
भाजपा 2014 में सरकार बनने से ही UCC को संसद में कानून बनाने पर जोर दे रही है. भाजपा सत्ता में आने पर UCC को लागू करने का वादा करने वाली पहली पार्टी थी और यह मुद्दा उसके 2019 के लोकसभा चुनाव घोषणापत्र का हिस्सा था. पीएम मोदी ने UCC की पुरजोर वकालत करते हुए विरोधियों से सवाल किया कि दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चलेगा? उन्होंने साथ ही कहा कि संविधान में भी सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार का उल्लेख है. याद रखा जाना चाहिए कि भारत के संविधान में भी नागरिकों के समान अधिकार की बात कही गई है.
क्या है यूनिफॉर्म सिविल कोड का इतिहास?
यूसीसी के इतिहास की बात करें तो यह 100 साल से भी ज्यादा पुराना है. इसको 19वीं शताब्दी से जोड़कर देखा जा सकता है जब शासकों ने अपराधों, सबूतों और अनुबंधों से संबंधित भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता की आवश्यकता पर बल दिया था. हालांकि, तब विशेष रूप से सिफारिश की गई थी कि हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इस तरह के कानून से बाहर रखा जाना चाहिए. ब्रिटिश क्योंकि एकेश्वरवादी ईसाई थे, इसलिए उनके लिए भारत में चल रही जटिल प्रथाओं को समझना मुश्किल था.
भारत की स्वतंत्रता के बाद UCC पर अलग-अलग विचार थे. कुछ सदस्यों का मानना था कि UCC भारत जैसे अलग-अलग धर्मों और संप्रदायों वाले देश में लागू करना ठीक या बेहतर नहीं होगा, जबकि अन्य का मानना था कि UCC देश में अलग-अलग समुदायों के बीच एक देश-एक कानून की तर्ज पर सद्भाव लाएगा.
UCC को लेकर आंबेडकर- नेहरू में मतभेद थे?
जानकार बताते हैं कि UCC को लेकर बाबा साहब आंबेडकर और पंडित जवाहर लाल नेहरू की अलग-अलग राय थी.डॉ. बी.आर. अम्बेडकर का इस मुद्दे पर मानना था कि UCC कोई थोपा हुआ नहीं बल्कि केवल एक प्रस्ताव था. वहीं, देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का कहना था, ”मुझे नहीं लगता कि वर्तमान समय में भारत में मेरे लिए इसे आगे बढ़ाने का प्रयास करने का समय आ गया है.” खैर इस सबसे अलग सुप्रीम कोर्ट ने कई ऐतिहासिक निर्णयों में सरकार से UCC को लागू करने का आह्वान किया है और समय-समय पर न्यायालय ने केंद्र सरकार से इस पर अपना रुख स्पष्ट करने को कहा है.
मोहम्मद अहमद ख़ास बनाम शाह बानो बेगम के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला की याचिका पर सुनवाई करते हुए याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला दिया और समुदाय के व्यक्तिगत कानूनों की बजाय भारत के कानून CrPC को प्राथमिकता दी थी. इस फैसले में अदालत ने यह भी कहा था कि संविधान का अनुच्छेद 44 एक बेकार पड़ा हुआ आर्टिकल बनकर रह गया है।
हालांकि देश में एक शहर ऐसा भी है जहां आज या कल से नहीं बल्कि लगभग 150 साल पहले UCC लाया गया था. हम गोवा की बात कर रहे हैं, जहां वर्तमान में, गोवा भारत का एकमात्र राज्य है जहां समान नागरिक संहिता है. इस संहिता की जड़ें 1867 के पुर्तगाली नागरिक संहिता में मिलती हैं, जिसे पुर्तगालियों द्वारा लागू किया गया था और बाद में इसे वर्ष 1966 में नए संस्करण के साथ बदल दिया. गोवा में सभी धर्मों के लोगों के लिए विवाह, तलाक, विरासत आदि के संबंध में समान कानून हैं. इसी क्रम में अब पूरे देश में इसे लागू करने की मांग है
क्यों यह सामाजिक ढांचे के लिए जरूरी है?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 के भाग 4 में ‘यूनिफॉर्म सिविल कोड’ शब्द का स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है। अब अनुच्छेद 44 की मानें तो वो कहता है कि “राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा.” मतलब यह कोड विवाह, तलाक, रखरखाव, विरासत, गोद लेने और उत्तराधिकार जैसे क्षेत्रों को कवर करता है. यह सामाजिक ढांचे के लिए इसलिए भी जरूरी बताया जा रहा है.
दरअसल भारत में जाति और धर्म के आधार पर अलग-अलग कानून और मैरिज एक्ट हैं.
इसके कारण सामाजिक ढ़ांचा बिगड़ा हुआ है. वर्तमान समय में लोग शादी, तलाक आदि मुद्दों के निपटारे के लिए पर्सनल लॉ बोर्ड ही जाते हैं. इसका एक खास उद्देश्य महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित अम्बेडकर द्वारा परिकल्पित कमजोर वर्गों को सुरक्षा प्रदान करना है, साथ ही एकता के माध्यम से राष्ट्रवादी उत्साह को बढ़ावा देना है. जब यह कोड बनाया जाएगा तो यह उन कानूनों को सरल बनाने का काम करेगा जो वर्तमान में धार्मिक मान्यताओं जैसे हिंदू कोड बिल, शरीयत कानून और अन्य के आधार पर अलग-अलग हैं.