छत्तीसगढ़ के जंगलों से यह उम्मीद रखना बेकार है कि वहां सब ठीक हो सकता है. दशकों से वहां रहने वाले भी नहीं जानते कि आखिरी बार यहां सब कुछ ठीक कब हुआ था? लोग जीवन की व्यस्तताओं से समय निकालकर जंगलों में सुकून तलाशने जाते हैं, पर छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक जैसे कई और राज्यों के जंगल दहशत से भरे हुए हैं. दहशत यहां के जानवरों से ज्यादा इंसानों के कारण है, जिन्हें नक्सली कहा जाता है.
साल 2005 में सालवा जुडूम के जरिए शांति बहाली की कोशिश की गई थी. जब सेना, पुलिस, सरकार ने हथियार डाल दिए तब सालवा जुडूम की छत्रछाया में आम आदमी ने बंदूके उठा लीं. यह सोचकर कि अब शांति आएगी. पर क्या वाकई ऐसा हुआ? आखिर क्या था ‘सालवा जुडूम’, और क्या है इसकी कहानी?
आखिर क्या था ‘सालवा जुडूम’?
छत्तीसगढ़ का दंतेवाड़ा नक्सलवाद की कर्मभूमि कही जाती है. एक नक्सली के लिए फक्र की बात होती है कि उसे दंतेवाड़ा में कत्लेआम करने का मौका मिले. बहरहाल नक्सलवाद आजादी के बाद से ही प्रदेश में आने वाली सरकारों के लिए सिरदर्द बना हुआ था. पुलिस, सेना, सुरक्षा एजेंसियों के तमाम प्रयास दंतेवाड़ा की चौखट पर दम तोड़ रहे थे. तभी अचानक साल 2005 में एक खबर आई. खबर थी कि नक्सलियों से परेशान होकर छत्तीसगढ़ के करीब 200 गांव के लोगों ने एक अभियान शुरू किया है. नाम है ‘सालवा जुडूम’.
‘सालवा जुडूम’ गोण्डी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है ‘शांति का कारवां’. सालवा जुडूम की छत्रछाया में सम्मलेन हो रहे हैं, जागरूकता अभियान चल रहा है, सुरक्षा कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, यहां तक की स्वरोजगार पैदा करने पर जोर दिया जा रहा है. साथ ही नक्सलियों के खिलाफ गांव वालों ने हिम्मत जुटाना शुरू कर दिया है.
कुछ इन्हीं जुमलों को फैलाकर सालवा जुडूम का विस्तार किया जा रहा था. अभियान की अगुवाई कर रहे थे कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा. महेन्द्र कर्मा को बस्तर का टाइगर कहा जाता था. 2004 से 2008 तक वे विपक्ष के महत्वपूर्ण नेता रहे. उनका जन्म दंतेवाड़ा के दाराबोडा कर्मा में हुआ था. शायद इसलिए वे नक्सली समस्या से अच्छी तरह परिचित थे. जब से होश सम्हाला तब से उन्होंने नक्सलियों के खिलाफ जन जागरण अभियान चलाया. लेकिन साल 2005 में ‘सालवा जुडूम’ की स्थापना कर के जागरूकता अभियान का अर्थ ही बदल दिया.
‘सालवा जुडूम की सच्चाई क्या थी?
‘सालवा जुडूम’ शांति अभियान है यह तर्क महेन्द्र कर्मा का ही था. लेकिन क्या वाकई यह सच था? दरअसल ‘सालवा जुडूम’ अभियान में नक्सल प्रभावित गांव के आम लोगों और आदिवासियों को शामिल किया गया. भरोसा यह दिलाया जा रहा था कि विरोध ‘बापू की स्टाइल’ में होगा.
यानि मार्च निकालना, भूख हडताल, विरोध प्रदर्शन या उपवास आदि पर कुछ ही दिनों में तस्वीर बदलना शुरू हुई. गांव वालों के पास चाकू, कटृटे, तीर-कमान, तलवारे, फरसे और फिर सीधे बंदूके पहुंचा दी गईं. उन्हें बाकायदा वर्दी पहनाई गई और बताया गया कि आज से वे पुलिस विभाग का हिस्सा हैं.
दो वक्त की रोटी का जुगाड तक न कर पाने वाले भूखे पेट के लिए यह किसी पार्टी से कम नहीं था, क्योंकि उसे इन सबके साथ पैसे भी मिल रहे थे. अब सवाल उठता है कि क्या केवल महेन्द्र कर्मा अपनेे बल पर इस अभियान को चला रहे थे? तो ऐसा नहीं है. मानवाधिकार संगठन ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया है कि ‘सालवा जुडूम’ अभियान को राज्य और केन्द्र सरकार का पूरा समर्थन प्राप्त था.
‘सालवा जुडूम’ को बल देने के लिए राज्य में अतिरिक्त सुरक्षा बल तैनात किया गया. आला अधिकारियों और सिपाहियों के दलों ने गांव वालों को निशाना साधना और मुखबरी करना सिखया. इतना ही नहीं इन्हें पुलिस विभाग में एसपीओ का पद दिया गया, वो पद जिसका आधिकारिक तौर पर कोई आधार नहीं था.
‘सालवा जुडूम’ के प्रति खौफ
मुखबरी के बदले 2100 रुपए मासिक वेतन और किसी वारदात में शामिल होने पर 3000 रुपए दिए जाना शुरू हुए. अभियान की शुरूआत में छोटी-मोटी सफलताएं हाथ लगीं. ‘सालवा जुडूम’ कार्यकर्ताओं की मदद से राज्य पुलिस और अतिरिक्त पुलिस बल के जवानों ने कई नक्सलियों को गिरफ्तार किया, या उनका एनकाउंटर हुआ. धीरे-धीरे नक्सलियों में ‘सालवा जुडूम’ के प्रति खौफ बैठने लगा था और महेन्द्र कर्मा के प्रति गुस्सा.
उम्मीद थी कि अब नक्सलवाद का छत्तीसगढ़ से सफाया होना तय है! लेकिन होना कुछ और ही था. नक्सलियों और ‘सालवा जुडूम’ के बीच रंजिश का माहौल था. खून बस एक ओर से कैसे बहता.
नक्सलियों को अपने साथियों की मौत का बदला जो लेना था. सो साल 2006 में नक्सलियों ने द्रोणपाल में 30 सलवा जुडूम समर्थकों को लैंडमाईन ब्लास्ट से मौत की नींद सुला दिया. गुस्सा यहीं खत्म नहीं हुआ. उसी साल गंगालुर गांव में 7 एसपीओ को बर्बर तरीके से मार डाला गया. यह घटनाएं आम हो रही थीं. संघर्ष बिना रूकावट जारी रहेे इसलिए सरकार ने आदिवासियों की मर्जी जाने बिना, जबरन 600 से ज्यादा गांव खाली करवा लिए.
महेंद्र कर्मा गए एक खलनायक
करीब 1 लाख से ज्यादा लोग बेघर हो कर राहत कैंप पहुंच गए. कईयों ने राज्य से पलायन कर दिया. जो अभियान शांति से शुरू हुआ था अब वह हिंसात्मक हो चुका था. 2005 में राज्य में बीजेपी की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे रमन सिंह लेकिन उन्हें ‘सालवा जुडूम’ से कोई दिक्कत नहीं थी. कांग्रेस नेता के बल पर ही पर उन्हें लगा था कि राज्य से नक्सलियों का सफाया हो जाएगा. हालांकि ऐसा हो नहीं पाया.
महेंद्र कर्मा को आदिवासियों का एक बड़ा तबका खलनायक के रूप में भी देखने लगा था. हालांकि कर्मा इन आरोपों का खंडन करते रहे कि उनकी वजह से बड़े पैमाने पर आदिवासियों का पलायन शुरू हुआ है. 2008 के विधानसभा चुनाव से पहले कर्मा का रूतबा सीएम रमन सिंह से कम नहीं था, पर चुनाव में हार का मुंह देखने के बाद यह भ्रम टूट गया. सबने उनसे और सलवा जुडूम से किनारा कर लिया.
वजह यह थी कि राज्य में चल रहे खूनी संघर्ष और आदिवासियों के पलायन के मसले को मानव अधिकार संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा दिया था. देश में दो पक्ष तैयार हो गए थे. एक वो जो नक्सलियों को उन्ही की भाषा में जवाब देने के पक्ष में था और दूसरा वो जो इस तरीके से खफा था.
सुप्रीम कोर्ट ने दिया अहम फैसला
आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि माओवादियों से निपटने का काम पुलिस और सुरक्षाबलों का है. स्थानीय प्रशासन अपनी कमजोरी छिपाने के लिए किसी भी नागरिक को मौत के मुंह में नहीं धकेल सकता. इस तरह साल 2008 में इस अभियान को पूरी तरह से असंवैधानिक करार देते हुए बंद कर दिया गया.
एक पल के लिए लगा जैसे यह नक्सलियों की जीत थी. सालवा जुडूम के कार्यकर्ता और नेता अचानक ही रास्ते पर आ गए. राज्य और केन्द्र सरकारों का समर्थन छिन गया. अब वेे पुलिस और नक्सलियों दोनों के निशाने पर थे. संरक्षण मिला नहीं इसलिए नक्सलियों ने चुन-चुनकर सालवा जुडूम के नेताओं को निशाना बनाया पर मुख्य टारगेट थे महेन्द्र कर्मा. नक्सलियों को डर था कि यदि कर्मा जिंदा रहे तो सालवा जुडूम फिर पैदा हो सकता है.
महेन्द्र कर्मा पर नक्सलियों ने कई बार जानलेवा हमला किया, पर जेड प्लस सुरक्षा ने उन्हें बचा लिया. लेकिन 25 मई 2013 को किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया. कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर बड़ा नक्सली हमला हुआ. जिसमें प्रदेश अध्यक्ष नंद कुमार और महेंद्र कर्मा समेत 23 लोगों की मौत हो गई. यह वो घटना थी जिसने ‘सालवा जुडूम’ के पुर्नजन्म की आखिरी उम्मीद को भी खत्म कर दिया. लेकिन ‘सालवा जुडूम’ के कार्यकर्ता आज भी दहशत में हैं.
‘सालवा जुडूम’ सही, या फिर गलत ?
2008 से लेकर अब तक 150 से ज्यादा कार्यकर्ताओं को मौत की नींद सुलाया जा चुका है और दर्जनों बाकी हैं. खाली हुए गांव दोबारा बस गए हैं, पर हालही में 30 अक्टूबर को दंतेवाड़ा में हुए नक्सली हमले ने ‘सालवा जुडूम’ को दोबारा शुरू करने की आवाज को मुखर कर दिया है. वैसे ‘सालवा जुडूम’ का पुर्नजन्म सही है या गलत?