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थॉमस रो: वो ब्रिटिश राजदूत जिसने दुनिया का नक्शा देकर मुगलों की दुनिया छीन ली थी

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3 नवंबर, 1605 ई. को अकबर की मौत के आठवें दिन उसका बड़ा बेटा मिर्ज़ा नूरुद्दीन बेग़ मोहम्मद ख़ान सलीम जहांगीर आगरा के तख्त पर बैठा. जहांगीर मुगल वंश का चौथा बादशाह था. जब वो राजा बना तब मुगल साम्राज्य का शासन उत्तर-पश्चिम में कंधार (अफगानिस्तान) से लेकर भारत के दक्षिण-पूर्व में बंगाल तक फैला था.

ये वो दौर था, जब कई युद्ध के बाद इंग्लैंड का खजाना लगभग खाली हो चुका था. अंग्रेज इस बात से भी परेशान थे कि पुर्तगालियों के साथ भारत के लंबे और मजबूत व्यापारिक संबंध थे. ऐसे में इंग्लैंड ने हिंदुस्तान में अपने आपको स्थापित करने और दक्षिण एशिया में व्यापार करने के लिए जहांगीर के दरबार में अपना एक खास दूत भेजा था. जिसका नाम था ‘थॉमस रो’. इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम की ओर से थॉमस रो को हिंदुस्तान भेजा गया था.

इतिहासकारों के मुताबिक वो ‘थॉमस रो’ही था, जिसने इंग्लैंड के राजा के लिए वह काम कर दिया जो उसके पहले कोई भी ब्रिटिश राजदूत नहीं कर पाया था. उसने न सिर्फ भारत की गुलामी की नींव रखी थी, बल्कि हिंदुस्तान को थाली में परोसकर अपने राजा के पास ले गया था. ‘थॉमस रो’ ने यह सब कैसे किया आइए जानते हैं?

कहानी शुरू होती है भारत के साथ व्यापार करने की इच्छा के साथ. अंग्रेज़ी शासन भारत से व्यापार करने के लिए आतुर हुआ जा रहा था. वो भारत के साथ यूरापियन देशों के व्यापार का हिस्सा बनने के लिए कई बार कोशिश कर चुका था. वो अपने कई मिशन मुगल दरबार में भेज चुका था. लेकिन उसे सफलता नहीं मिली थी.

इसी क्रम में सन 1601-03 तक अंग्रेजों ने दक्षिण एशिया में प्रवेश कर लिया था. सबसे पहले ईस्ट इंडिया कंपनी ने सुमात्रा के बैंटम में अपनी व्यापारिक कोठी खोली. अंग्रेज बैंटम बाजार में ऊनी कपड़ों का व्यापार करते थे. जल्द ही वह अन्य एशियाई सामानों, विशेष रूप से भारतीय वस्त्रों के साथ व्यापार करने के लिए भारत की ओर आकर्षित हुए. इस समय भारत में अपना समृद्ध वस्त्र बाजार था. आगरा, दिल्ली और लाहौर में मुगल साम्राज्य की रौनक थी. मुगल दरबार भव्यता और विलासिता से भरे पड़े थे. फिर 1608 में हेक्टर जहाज का कमांडर विलियम हॉकिन्स व्यापार की अनुमति के लिए मुगल बादशाह जहांगीर के दरबार में गया.

इस समय तक यूरोप के उनके प्रतिद्वंद्वी पुर्तगालियों का मुगल दरबार में दबदबा कायम हो चुका था. ऐसे में विलियम हॉकिन्स को मुगलों के साथ बिना किसी समझौता के ही वापस लौटना पड़ा. हालांकि, मुगल सम्राट जहांगीर विलियम हॉकिन्स की तुर्की की समझ से काफी प्रभावित हुए थे.

ऐसे में अंग्रेजों को एक ऐसे शख्स की तलाश थी, जो इंग्लैंड की ओर मुगल दरबार में जाए और अपनी कूटनीतिक चालों में मुगल बादशाह को फंसा ले. इसके लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने सन 1615 में सम्राट जेम्स प्रथम से मुगल दरबार में व्यापार के लिए एंबेसडर भेजने की अनुमति प्राप्त कर ली. आखिरकार, सर थॉमस रो को ब्रिटिश सम्राट का दूत बनाकर मुगल बादशाह जहांगीर के दरबार में भेजा गया. सर थॉमस रो एक अनुभवी, दृढ़, साहसी और प्रबंधन कौशल से भरा हुआ एक चालाक अंग्रेज था. वह अगले 3 सालों तक आगरा में ही रहा. इस दौरान इसने अपनी प्रतिभा के बल पर मुगल दरबार से पुर्तगाली प्रभाव को खत्म करने का काम किया.

थॉमस रो ने 2 फरवरी, 1615 को हिंदुस्तान के लिए अपनी समुद्री यात्रा शुरू की. जनरल विलियम कीलिंग उनके बेड़े का कमांडर था. लगभग छह महीने की यात्रा के बाद वे सूरत के पास हिंदुस्तानी जमीन पर उतरे. यहां पहुंचने के बाद जनरल कीलिंग ने सूरत के गवर्नर जुल्फीखार खान को इंग्लैंड के राजा के राजदूत के आगमन की सूचना का एक संदेशा भेजा. थोड़ी देर बाद ही सही, जुल्फीखार ने राजदूत का स्वागत करते हुए एक संदेशा भेजा.

उस दौरान, किसी भी विदेशी के आगमन पर उसके जहाज, सामान और लोगों की तलाशी ली जाती थी. थॉमस रो को इस जांच से छूट दी गई. हालांकि, गवर्नर इस बात पर जोर देता रहा कि मुगल तटों पर उतरने वाले प्रत्येक व्यक्ति की जांच करना उसका कर्तव्य है. बादशाह जहांगीर के दरबार में 10 जनवरी, 1616 को इनके व्यापार की अनुमति वाले सौदे पर सुनवाई हुई. जहांगीर के विनम्र और दयालु स्वागत से रो बहुत प्रभावित था.

उसने अपनी डायरी में इस बात का जिक्र करते हुए लिखा कि, “मुगल दरबार में किसी भी तुर्की या फारसी या किसी अन्य देश के राजदूत की तुलना में मुझे ज्यादा महत्व दिया गया.” हालांकि थॉमस रो को बादशाह व मुगल रईसों के विश्वास को जीतने में सालों लग गए. बावजूद इसके जहांगीर ने थॉमस रो को व्यापार की पूर्ण रूप से अनुमति नहीं दी. थॉमस रो, वास्तव में एक अड़ियल किस्म का इंसान था. उसकी नजरों में मुगल कोर्ट के मानदंडों का कोई मूल्य नहीं था. मुगल संस्कृति रो के लिए पूरी तरह से विदेशी थी. वह अपने आपको बादशाह के बाद दूसरे नंबर का समझता था. इसका एक कारण ये भी था कि वह इंग्लैंड के राजा जेम्स प्रथम का शाही दूत था.

थॉमस रो ऑटोमन साम्राज्य से भी ज्यादा की आबादी वाले हिंदुस्तान के सम्राट के दरबार में जा रहा था. जिसका दरबार दुनिया में सबसे भव्य और आलीशान था. 1616 की शुरुआत में थॉमस रो आगरा पहुंचा. रास्ते में उसकी मुलाकात शहजादे खुर्रम से हुई. हिंदुस्तान की धरती पर थॉमस रो का पहला साल कुछ ज्यादा कारगर नहीं रहा.

न तो रो को खुर्रम पसंद था, न हीं खुर्रम को रो एक आंख भाता था. बावजूद इसके अपने-अपने लाभों के लिए दोनों एक-दूसरे से जुड़े थे. रो के प्रति खुर्रम का व्यवहार कुछ अच्छा नहीं था. रो ने खुर्रम को खमंड में चूर और एक गंवार के रूप में परिभाषित किया है. एक बार जब सूरत में मुगल अधिकारियों ने अंग्रेजों का माल जब्त कर लिया, तो थॉमस रो ने शहजादे खुर्रम के पास माल को छोड़ने और अंग्रेजों पर दया दिखाने की गुहार लगाई.

थॉमस रो ने मुगलों के भरोसे को जीतने के लिए बादशाह के सामने उचित न्याय करने का रोना रोया. उसने मुगल बादशाह और उसके फैसले के प्रति सम्मान जताते हुए, अंग्रेजों के लिए रहम की भीख मांगी और दयनीय भाव-भाषा का इस्तेमाल किया. ऐसा एक नहीं कई बार किया गया.

आखिरकार, अपने सामने गिड़गिड़ाते थॉमस रो को देखते हुए प्रिंस खुर्रम ने अंग्रेजों के हक में दो फरमान जारी कर दिए. पहला, सूरत में अंग्रेजों को रहने की इजाजत दी गई. दूसरा, माल के नुकसान के लिए 17,000 ममुदी का भुगतान करने का आदेश दिया गया. इसके बाद, सितंबर, 1617 में, शहजादे खुर्रम ने बंगाल में व्यापार के लिए रो को एक फरमान जारी किया. इसके तहत शाही प्रभुत्व के अंतर्गत कंपनी को मुफ्त विशेषाधिकार प्रदान किए गए.

अगस्त 1618 को रो के इंग्लैंड लौटने से 6 महीने पहले, सूरत में हिंदुस्तानियों के साथ पुर्तगालियों के झगड़े की खबर मुगल दरबार में पहुंची. थॉमस रो ने इस मौके को भुनाते हुए हिंदुस्तानी जहाजों को अंग्रेजी सुरक्षा देने की पेशकश के बदले विशेषाधिकारों हासिल करने की कोशिश की.

आखिरकार, अंग्रेजों को इसका फायदा मिला और खुर्रम ने अंग्रेजों को अनुदान दे दिया. हालांकि, अंग्रेजों की सभी मांगें नहीं मानी गईं, लेकिन वह व्यापार के लिए पर्याप्त मुगल संरक्षण हासिल करने में सफल रहे.

ताजा फरमान के अनुसार, अंग्रेजों को व्यापार के लिए मुफ्त पहुंच की अनुमति दी गई. इंग्लैंड से आए अंग्रेजी माल पर कोई कस्टम शुल्क नहीं लगाया गया. बिना शुल्क के जवाहरात को देश में बेचा जा सकता था. बंदरगाह से गुजरने वाले अंग्रेजी सामानों पर किसी भी प्रकार के टोल को समाप्त कर दिया गया.

वहीं, पुर्तगालियों द्वारा हिंदुस्तानियों पर हमला करने के मामले में अंग्रेजों को भारतीयों की सहायता करने का आदेश दिया गया. उन्हें कारखानों की स्थापना के लिए भवनों को किराए पर लेने के लिए कुछ प्रतिबंधों के तहत अनुमति दी गई. हालांकि, उन्हें यहां स्थायी आवास खरीदना या बनाना अभी भी प्रतिबंधित था.

साथ ही, सूरत में हथियार ले जाने वाले अंग्रेजों की संख्या को सीमित कर दिया गया. हालांकि, रो खुर्रम को इस बात का आश्वासन देने में सफल रहा कि सूरत में हथियारबंद अंग्रेज कोई गलती नहीं करेंगे या किसी को चोट नहीं पहुंचाएंगे. इसके बाद इस शर्त को भी समाप्त कर दिया गया.

आखिरकार, स्वतंत्र व्यापार की आज्ञा देकर मुगलों ने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया. इससे मुगलों की भारत में जड़े कमजोर होती चली गईं और अंग्रेजों का वर्चस्व बढ़ता गया. भारत में मुक्त व्यापार की अनुमति मानो अंग्रेजों के लिए लूट मचाने का एक लिखित आदेश थी. अंग्रेजों ने इसी आदेश के बल पर हिंदुस्तान को 1739 में फारसी लुटेरा नादिर शाह से भी ज्यादा लूटा.

भारत के कुशल दर्जियों और बुनकरों द्वारा बनाए गए खूबसूरत डिजाइनों के कपड़ों की मांग पूरे एशिया में थी. जल्द ही इंग्लैंड के बाजारों में भी भारतीय कपड़ों की मांग तेजी से बढ़ गई. यहां तक कि अंग्रेजों ने अपने नए कपड़ा उद्योग के लिए कई पैटर्न भारत से लिए थे. 1750 तक कंपनी की बिक्री का 60 प्रतिशत हिस्सा भारतीय रेशम, कॉटन और कैलिको था. ये वो समय था, जब भारत में अंग्रेजों का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा था.

वहीं, मुगलों की स्थिति कमजोर हो रही थी. अंग्रेजों ने मौके का फायदा उठाया और मुगल साम्राज्य के प्रति क्षेत्रीय ताकतों को उभारा और फिर संधि कर उन्हें अपने अधीन कर लिया. जल्द ही एक फलविहीन पेड़ की तरह कमजोर और बूढ़ा हो चला मुगल साम्राज्य उखाड़ कर फेंक दिया गया.

1858 तक हिंदुस्तान में मुगल राजवंश की सत्ता समाप्त हो गई. जल्द ही कंपनी ने भारत की राजनीति में अपना स्थान पक्का कर लिया और इसी ने भारत को मुगलों के बाद अंग्रेजों का गुलाम बना दिया.

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