अपनी क्रूरता और बर्बरता के लिए मशहूर अलाउद्दीन खिलजी एक सिरे से सभी युद्ध जीतता जा रहा था. उसने रणथम्भौर पर अपना वर्चस्व स्थापित करने के बाद चित्तौड़ के किले को अपना निशाना बनाया.
हालांकि, उसने यह किला भी अपने आधीन कर लिया लेकिन, इसे जीतने के लिए उसे बहुत ही करारी टक्कर का सामना करना पड़ा था. लगातार आठ महीने की कोशिश के बाद वह महल के अंदर प्रवेश कर पाया था.
राजा रत्न सिंह की सेना बरसात के मौसम में भी लगातार संघर्ष करते हुए आधी पहाड़ी तक पहुँच चुकी थी. जिससे डर के खिलजी ने अपनी सेना को पत्थरबाजी करके उन्हें पीछे हटने की योजना बनायी.
खिलजी के पास आधुनिक हथियार और राजा रत्नसिंह से भारी मात्रा में सेना होने के बावजूद भी उसे महल में प्रवेश करने में महीनों लग गए थे. तो आइये, जानते हैं इतिहास के पन्नों को पलटते हुए चित्तौड़गढ़ के युद्ध की कहानी:
जब अलाउद्दीन खिलजी ने किया था चित्तौड़ पर हमला
भारत के उत्तर-पश्चिम में स्तिथ मेवाड़ क्षेत्र में गुहिला साम्राज्य का राज हुआ करता था. जिसमें चित्तौड़ का किला भी शामिल था. सन 1299 में अलाउद्दीन खिलजी का जनरल उलुघ खान गुजरात की तरफ बढ़ रहा था.
इसी दौरान उसने रास्ते में पड़ने वाले मेवाड़ क्षेत्र पर भी हमला बोल दिया. 1301 में अलाउद्दीन ने रणथम्भौर जोकि दिल्ली और चित्तौड़ के बीच में स्थित है. वहां खिलजी ने अपनी जीत दर्ज करते हुए रणथम्भौर को अपने आधीन कर लिया था. इसी वर्ष रत्नसिम्हा (रत्न सिंह) ने चित्तौड़ की गद्दी पर चढ़ाई करते हुए इसे अपने अधिकार में ले लिया.
मलिक मुहम्मद जायसी की ऐतिहासिक कविता ‘पद्मावत’ के अनुसार, अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर हमला रानी पद्मिनी को प्राप्त करने के लिए किया था. रानी पद्मावत राजा रत्नसिम्हा (रत्न सिंह) की पत्नी थीं.
पद्मावत के अनुसार ही, एक राघव नाम के व्यक्ति ने अलाउद्दीन खिलजी को जाकर रानी पद्मिनी की ख़ूबसूरती का बखान किया. जिसे सुनकर खिलजी ने चित्तौड़गढ़ पर चढ़ाई करने के फैसला लिया. 28 जनवरी, 1303 को अलाउद्दीन ने अपनी बड़ी-सी सेना के साथ चित्तौड़गढ़ की तरफ चढ़ाई के मकसद से चलना शुरू कर दिया. सेना के साथ किले के पास पहुँचने के बाद उसने बेरच और गंभीरी नदी के बीच अपना कैंप लगा लिया.
खिलजी सेना ने 8 महीने तक डाला था किले के बाहर डेरा
खिलजी की सेना ने रत्नसिंह के किले को चारों ओर से घेर लिया. अलाउद्दीन ने खुद चित्तौड़ी पहाड़ी पर कैंप लगाकर जम गया.उसने यह घेराव लगातार आठ महीने तक किये रखा, जिससे यह साबित होता है कि बचाव करने वाले यानी राजा रत्नसिंह ने उसे करारी टक्कर दी थी.
खिलजी की नौबत ऐसी आ गयी कि आमिर खुसरो भी खिलजी का साथ देने के लिए इस युद्ध में कूद पड़ा. दोनों ने मिलकर दो बार सामने के द्वार से चढ़ाई करने की नाकामयाब कोशिश की. वह राजपूत राजा के सामने मुंह की खा रहे थे.पद्मावत के अनुसार, राजा रत्न सिंह की सेना दो महीने की बारिश के मौसम के दौरान लगभग आधी पहाड़ी तक पहुंचने में कामयाब हो गयी थी. लेकिन, दुर्भाग्यवश वह उसके आगे नहीं बढ़ पाई.
इस दौरान, अलाउद्दीन ने अपने सैनिकों को पहाड़ी और किले पर पत्थर फेंकने का आदेश दिया. साथ ही, उसके हथियारबंद सैनिकों को किले पर चारों ओर से हमला करने के आदेश दे दिया. माना जाता है कि इस दौरान किले की रखवाली करने वाली सेना भूख, अकाल और महामारी से जूझ रही थी.
खिलजी के दिए हुए आदेश पर 30 हजार लोग काट दिए गए
किले में मौजूद सेना की हालात बहुत खराब हो चुकी थी. 26 अगस्त, 1303 को अलाउद्दीन किले में प्रवेश करने में सफल हो गया. वहां अपनी फ़तेह हासिल करने के बाद उसने चित्तौड़ की जनता के नरसंहार का आदेश दे दिया. आमिर खुसरो के अनुसार, खिलजी के दिए हुए आदेश पर करीब 30 हजार हिंदुओं को काट डाला गया.
इस युद्ध में राजा रतन सिंह के साथ क्या हुआ, इस पर अभी भी मतभेद है. इस विषय पर अलग-अलग मुस्लिम लेखकों ने अलग-अलग बात कही है. जिसमें आमिर खुसरो, जियाउद्दीन बरानी और इस्लामी लिखते हैं कि चित्तौड़गढ़ के राजा ने अलाउद्दीन के सामने सरेंडर कर दिया और उन्हें खिलजी ने माफ़ भी कर दिया.
इसी प्रकार जैन लेखक कक्का सूरी ने लिखा कि अलाउद्दीन ने राजा की सारी संपत्ति ले ली और उसके बाद उसने राजा की हालत कुछ ऐसी कर दी कि वह एक राज्य से दूसरे राज्य तक मारा-मारा फिरते रहे. जबकि इसी विषय पर आधुनिक इतिहासकारों का मानना अलग है. उनके मुताबिक राजा रत्न सिंह आखिरी समय तक लड़ते हुए युद्धभूमि में ही शहीद हो गए. जबकि एक मत यह भी कि राजा ने खिलजी के सामने सरेंडर कर दिया था.
पद्मावत में तो इस बात का दावा किया गया है कि राजा रतन सिंह की मृत्यु कुम्भाल्नेर के राजा से लड़ाई के दौरान हो गयी थी. चित्तौड़गढ़ पर अपनी जीत हासिल करने के बाद कहते हैं कि खिलजी सात दिनों तक वहीं रहा. उसके बाद उसने चित्तौड़ की सत्ता की कमान अपने आठ वर्ष के बेटे हाथों सौंप दी.
खिलजी ने चित्तौड़ के किले का नाम खिज्राबाद रख दिया था
उसने अपने बेटे खिज्र खान के नाम पर ही चित्तौड़ के किले का नाम खिज्राबाद रख दिया. इसके बाद वह दिल्ली की ओर वापस लौट गया. इसी समय मंगोलों ने भी भारत पर हमला बोल दिया था.
चूंकि खिज्र खान अभी बच्चा था, इसीलिए उसके नाम पर चल रही सत्ता को अलाउद्दीन खिलजी का एक गुलाम मलिक शाहीन संभाल रहा था. जिसे खिलजी अपने बेटे की तरह ही मानता था. बाद में खिलजी ने विचार किया कि वह चित्तौड़ की सत्ता की कमान अब अप्रत्यक्ष रूप से एक हिन्दू राजा के हाथों में दे देगा.
इसके बाद उसने चित्तौड़ की कमान अपने बेटे खिज्र खान से लेकर चाहमाना के मुख्य मलादेव को सौंप दी. मलादेव ने अलाउद्दीन के कैंपेन में पांच हजार घुड़सवार और 10 हजार की सेना का योगदान दिया था. इसके अलावा, जब कभी भी खिलजी मलादेव को मदद का आदेश देता, तब मलादेव उसकी मदद के लिए हाजिर रहता.
इसके साथ ही, वह हर साल खिलजी से मिलने के लिए शाही कोर्ट में भी जाया करता था. वह वहां जाते समय बहुत सारे उपहार लेकर जाता था और बदले में उसे भी वहां से सम्मान प्राप्त होता था. मलादेव जब तक जीवित रहा, चित्तौड़ का कार्यभार उसी ने संभाला. लगभग सन 1321 के आसपास उसकी मृत्यु हो गई. जिसके बाद इस किले पर हम्मीर सिंह का कब्ज़ा हो गया. हम्मीर सिंह गुहिलाओं की सिसोदिया शाखा के ही शासक थे.