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तीन मुट्ठी चावल में खरीदा गया खुदीराम, खुद के प्राण देश पर न्योछावर कर गया
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Dhiraj Jhaआज हम जिस नायक की कहानी आपको सुनाने जा रहे हैं उन्होंने अपने देश, अपनी भारत माता के लिए जो किया वो उस समय के युवाओं के लिए एक नजीर बन गया. आइये शुरू करते हैं कहानी उस युवा की जिसने बचपन में खिलौनों से खेलने की बजाए हाथ में आजादी की मशाल थाम ली.
एक चिंता के साथ जन्में थे खुदीराम
बात है बंगाल के मिदनापुर जिले के छोटे से गांव मोहबनी की. सन था 1889, तारीख़ थी 3 दिसंबर और दिन था मंगलवार. दिन भर की मेहनत के बाद दिनकर बाबा विश्राम के लिए अपने कक्ष की ओर बढ़े चले जा रहे थे और शाम की लालिमा धीरे धीरे अपने पैर पसर रही थी. घर के बाहर तीन बच्चियां खेल रही थीं. हालांकि खेल तो बस सरोजिनी और नानीबाला ही रही थीं आपरूपा तो बस ये ध्यान रख रही थी कि कहीं दोनों झगड़ा न कर लें.
इतने में घर के भीतर से मां के कराहने की आवाज आई. छोटी बहनें अपने खेल में मगन थीं लेकिन आपरूपा ने मां की पीड़ा भरी आवाज़ सुन ली. वह दौड़ती हुई घर के अंदर भागी. मां को दर्द से छटपटाता देख आपरुपा ने पड़ोस की औरतों को बुला लिया. औरतों के आते ही वो फिर से अपनी छोटी बहनों के पास लौट आई.
आपरूपा के चेहरे पर चिंता साफ़ झलक रही थी. बहनों ने इसे भांप कर सवाल भी किये लेकिन आपरूपा के पास उनके सवालों के जवाब के लिए शब्द नहीं थे इसलिए उसने उन्हें किसी तरह टाल दिया. काफी देर की मेहनत के बाद अंदर से एक महिला ने मुस्कुराते हुए वहां की स्थानीय भाषा में कुछ कहा. उस मुस्कराहट का मतलब था कि लक्ष्मीप्रिया यानि उन बच्चियों की मां ने बेटे को जन्म दिया था.
ये खबर सुनते ही बच्चियां खुशी से घर की ओर दौड़ीं. बच्चियों के पिता और लक्ष्मीप्रिया के पति त्रैलोक्यनाथ बोस अभी तक घर नहीं आए थे. घर पर एकत्रित औरतों ने एक दो बार इस बात के लिए चिंता भी जताई. दरअसल त्रैलोक्यनाथ राजा नारजोल के यहां तहसीलदार के रूप में कार्यरत थे. काम ज्यादा होने के कारण अक्सर देर हो जाया करती थी उन्हें.
ये खुशखबरी सुनाने के लिए सब उनका बेसब्री से इतजार कर रहे थे. थोड़ी देर में त्रैलोक्यनाथ उधर से आते दिखे, उनके घर एकत्रित महिलाओं ने उन्हें घेर लिया और बधाई देने लगीं. भीड़ में से किसी ने बधाई देते हुए कहा, “बहुत बहुत बधाई हो त्रैलोक्यनाथ जी. जिसकी कमी महसूस हो रही थी वो कमी आज पूरी हो गयी.”
त्रैलोक्यनाथ इतना सुनते ही आश्चर्य में बोले “क्या मतलब ?”
“अरे पुत्र हुआ है.” इतना सुनना था कि त्रैलोक्यनाथ की आंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े. इस दिन का उन्हें न जाने कब से इंतजार था. दो पुत्र पहले भी हुए लेकिन आंखें खोलने से पहले ही काल का ग्रास बन गए. ऐसे में उनका मन कब से एक पुत्र के लिए तरस रहा था.
त्रैलोक्यनाथ उस दिन भले ही एक पुत्र की लालसा के पूरे होने पर खुश थे किन्तु वो दिन खुशी से ज्यादा गर्व करने का था क्योंकि उस दिन उनके घर एक ऐसे क्रांतिकारी ने जन्म लिया था जो आगे चल कर इतिहास के पन्नों पर अमर होने वाला था. जिसका नाम आने वाले दिनों में युवाओं के लिए एक मिसाल बनने वाला था.
इस खुशी के मौके पर त्रैलोक्यनाथ ने बीस किलो मिठाई मंगवाई. घर में पूरी तरह से खुशी का माहौल था लेकिन इस खुशी के साथ त्रैलोक्यनाथ की आंखों में चिंता की भी बड़ी गहरी लकीर दिखाई दे रही थी. चिंता का कारण यह था कि इससे पहले भी उनके दो पुत्र जन्म के बाद काल के मुंह में समा चुके थे.
उनके परिवार भर में ये धारणा बन चुकी थी कि उनके घर पुत्र जीवित नहीं रहेगा. यही कारण था कि तीन पुत्रियां सही सलामत थीं किन्तु दो पुत्र मर चुके थे. ऐसे में त्रैलोक्यनाथ बाबू को ये डर था कि उनके इस पुत्र को भी कहीं मौत उनसे छीन. भाई को चिंतित देख उनकी बहन अनुपमा उनके पास आई.
कैसे पड़ा खुदीराम नाम?
“क्या बात है भईया. इस खुशी के मौके पर भी आप खुश नहीं दिखाई दे रहे.”
“क्या बताऊं बहन ! चिंता यही है कि कहीं पहले के पुत्रों की भांति इसे भी न खो दूं.” अनुपमा को भी यही डर था.
“भईया, मेरी सास कहती हैं कि इस बच्चे को बेच दिया जाए. ऐसे में इसके ऊपर जो भी दैवीय संकट होगा वो दूर हो जाएगा.”
“हां बहन, ऐसा मैंने भी सुना है. लेकिन इसे हम बेचेंगे किसे?”
अनुरुपा वहां खड़ी दोनों की बात सुन रही थी. उसने झट से कहा, “बाबू जी, इसे मैं खरीदूंगी.”
“ऐसा कैसे संभव हो सकता है. ये काम बड़ों का है बच्चों का नहीं.” त्रैलोक्यनाथ ने कहा.
“बड़ों का ही क्यों ? हम तीनों बहनें इसे खरीदेंगी और इसे बड़े लाड़ प्यार से पलेंगी.”
“मगर खरीदोगी कैसे.”
“तीन मुट्ठी खुदी (चावल के महीन टुकड़े) से.”
अनुपमा ने अनुरुपा की इस बात का समर्थन किया और तीनों बहनों ने तीन मुट्ठी खुदी में अपने भाई को खरीद लिया. ये सब संयोग था लेकिन कौन जानता था कि आगे चल कर सच में इस भाई को बहन ही पलेगी. जब बच्चे के नामकरण की बारी आई तो त्रैलोक्यनाथ ने बड़े भोज का आयोजन किया और राजा नारजोल सहित कई उच्च पदाधिकारियों को निमंत्रण भेजा. सभी मेहमान उपस्थित हुए. नामकरण का महूरत आगया.
सभी ने अपने अपने सुझाव दिए मगर अनुपमा बीच में ही बोल पड़ीं कि “सबसे क्षमा चाहूंगी और विनम्र विनती करूंगी कि यदि बच्चे को उसकी बहनों ने खरीदा है तो उसका नाम रखने का अधिकार भी उन्हीं को दिया जाए. सबने अनुपमा की बात का समर्थन किया. अनुरुपा और बाकि दोनों बहनों ने भाई को तीन मुट्ठी खुदी के बदले खरीदा था इसीलिए उसका नाम खुदीराम रखा गया.
बड़ी बहन ने मां की तरह पाला
जी हां वही खुदीराम बोस जिसने छोटी सी उम्र में अंग्रेजों की नाक में ऐसा दम किया कि अंग्रेज उसे किसी भी हाल में पकड़ने पर उतारू हो गए. खुदीराम के जन्म के एक साल बाद ही अनुरुपा का विवाह हो गया. लेकिन वो ससुराल नहीं गयीं या यूं कहें कि भाई के मोह ने उन्हें ससुराल जाने नहीं दिया. लेकिन ससुराल वाले भी कितना देखते, कुछ वर्षों में उन्होंने अनुरुपा को ससुराल बुला लिया.
त्रैलोक्यनाथ चाहते हुए भी बेटी को रोक नहीं पाए. इधर अनुरुपा की विदाई हो रही थी उधर खुदीराम ने चिल्ला चिल्ला कर घर सर पर उठा रखा था. पहले भी अनुरुपा के ससुराल जाने की बात सुन को वो उसके सीने से जा के चिपक जाया करता था. अनुरुपा भी उसे मां की तरह चाहती थी. कुछ वर्षों बाद सरोजिनी की भी शादी हो गयी और अब घर में बस नानीबाला और खुदीराम बचे.
पिता ने कर ली दूसरी शादी
इसी बीच त्रैलोक्यनाथ के सर पर मुसीबतों का पहाड़ तब टूटा जब 1895 में खुदीराम की मां लक्ष्मीप्रिया इस दुनिया से चल बसीं. इस समय खुदीराम मात्र 6 वर्ष के थे. अब दो बच्चों की जिम्मेदारी के साथ साथ नौकरी का बोझ भी ढोना पड़ रहा था त्रैलोक्यनाथ को. ऐसे में वो दो बच्चों को अकेला छोड़ कर नौकरी पर नहीं जा सकते थे और नौकरी छोड़ देते तो घर चलाना मुश्किल हो जाता.
बेटियों को भी कितने दिन मायके में रखा जाए. यही सब सोच कर उन्होंने दूसरी शादी कर ली. खुदीराम अपनी सौतेली मां से दूर दूर रहने लगा, जो त्रैलोक्यनाथ को चिंतित करता था. धीरे धीरे त्रैलोक्यनाथ बीमारी की चपेट में आ गए. बहुत उपचार हुआ लेकिन कोई फायदा नहीं. अंत में वो खुदीराम को अनाथ कर गए.
बचपन से ही थे क्रांतिकारी स्वभाव के
जिस बहन ने खुदिएराम को खरीदा उसी ने बाद में खुदीराम की जिम्मेदारी उठाई. ऐसे तो त्रैलोक्यनाथ की इच्छा थी कि वो पुत्र खुदीराम को पढ़ा लिखा कर बड़ा अधिकारी बनाएं किन्तु पहले पत्नी तथा बाद में वो स्वयं इस दुनिया से चल बसे. वैसे भी खुदीराम को वो चाह कर भी अपने मन मुताबिक नहीं ढाल सकते थे क्योंकि नियति ने उसे इतिहास रचने के लिए चुना था. ये वो दौर था जब बच्चा बच्चा अंग्रेजी हुकूमत से नफरत करने लगा था ऐसे में खुदीराम के मन में स्कूल के दिनों में ही क्रांति की मशाल जल उठी थी.
वो जलसे जलूसों में शामिल होते थे तथा अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ नारे लगाते थे. बोस को गुलामी की बेड़ियों से जकड़ी भारत माता को आजाद कराने की ऐसी लगन लगी कि उन्होंने नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी. इसके बाद वह सिर पर कफ़न बांधकर जंग-ए-आज़ादी में कूद पड़े. वह रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदेमातरम पंफलेट वितरित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में चलाए गए आंदोलन में भी उन्होंने बढ़-चढ़ कर भाग लिया.
कई बार किया पुलिस ने गिरफ्तार
इस छोटे से लड़के के तेवर इस तरह से बागी थे कि देश को आजाद कराने की ललक और अंग्रेजों के प्रति नफ़रत इसकी आंखों में देखी जा सकती थी. खुदीराम 28 फरवरी सन 1906 को सोनार बंगला नामक एक इश्तहार बांटते हुए पकड़े गए. पुलिस ने खुदीराम को जेल में बंद कर के पीटा लेकिन वो मजबूत थे. पुलिस मारते मारते थक गयी मगर बोस नहीं थके. अंत में वह पुलिस के शिकंजे से भाग निकले.
16 मई, सन् 1906 को एक बार फिर पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया, लेकिन उनकी आयु कम होने के कारण उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया गया था. 6 दिसम्बर, 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर किए गए बम विस्फोट की घटना में भी बोस भी शामिल थे. उन्होंने अंग्रेज़ी चीज़ों के बहिष्कार आन्दोलन में बढ़चढ़ कर भाग लिया.
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के आरंभिक चरण में कई क्रांतिकारी ऐसे थे जिन्होंने ब्रिटिश राज के विरुद्ध आवाज़ उठाई. खुदीराम बोस भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष के इतिहास में संभवतया सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी थे, जो भारत मां के सपूत कहे जा सकते हैं. बंगाल के विभाजन के बाद दुखी होकर खुदीराम बोस ने स्वतंत्रता के संघर्ष में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से एक मशाल जलाई. उन्होंने ब्रिटिश राज के बीच डर फैलाने के लिए एक ब्रिटिश अधिकारी के वाहन पर बम फेंक दिया.
अंग्रेज अफसर को मरने की बनाई योजना
बात कुछ यूं थी कि कलकत्ता में उन दिनों किंग्सफोर्ड चीफ प्रेंसीडेसी मजिस्ट्रेट था. वह बहुत सख़्त और क्रूर अधिकारी था. वह अधिकारी देश भक्तों, विशेषकर क्रांतिकारियों को बहुत तंग करता था. उन पर वह कई तरह के अत्याचार करता. एक तरह से उसने क्रांतिकारियों का जीना दुर्लभ कर रखा था.
ऐसे में क्रांतिकारियों ने उसे मार डालने की ठान ली थी. युगान्तर क्रांतिकारी दल के नेता वीरेन्द्र कुमार घोष ने घोषणा की कि किंग्सफोर्ड को मुज़फ्फरपुर में ही मारा जाएगा. इस काम के लिए चुना गया स्वतंत्रा संग्राम के सबसे युवा क्रांतिकारी खुदीराम बोस तथा साथी प्रफुल्ल चाकी को.
ये दोनों क्रांतिकारी बहुत सूझबूझ वाले थे. इनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था. देशभक्तों को तंग करने वालों को मार डालने का काम उन्हें सौंपा गया था. वे दोनों मुज़फ्फरपुर पहुंच गए. वहीं एक धर्मशाला में वे आठ दिन रहे. इस दौरान उन्होंने किंग्सफोर्ड की दिनचर्या तथा गतिविधियों पर पूरी नज़र रखी. उनके बंगले के पास ही क्लब था. अंग्रेज़ी अधिकारी और उनके परिवार अक्सर सायंकाल वहां जाते थे.
30 अप्रैल, 1908 की शाम किंग्स फोर्ड और उसकी पत्नी क्लब में पहुंचे. रात्रि के साढे़ आठ बजे मिसेज कैनेडी और उसकी बेटी अपनी बग्घी में बैठकर क्लब से घर की तरफ आ रहे थे. उनकी बग्घी का रंग लाल था और वह बिल्कुल किंग्सफोर्ड की बग्घी से मिलती-जुलती थी. खुदीराम बोस तथा उसके साथी ने किंग्सफोर्ड की बग्घी समझकर उस पर बम फेंक दिया. देखते ही देखते बग्घी के परखचे उड़ गए. उसमें सवार मां बेटी दोनों की मौत हो गई. क्रांतिकारी इस विश्वास से भाग निकले कि किंग्सफोर्ड को मारने में वे सफल हो गए है.
खुदीराम बोस और घोष 25 मील भागने के बाद एक रेलवे स्टेशन पर पहुंचे. खुदीराम बोस पर पुलिस को इस बम कांड का संदेह हो गया और अंग्रेज़ पुलिस उनके पीछे लगी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया. अपने को पुलिस से घिरा देख प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मारकर शहीद हो गए. उनके मन में तनिक भी भय की भावना नहीं थी. खुदीराम बोस को जेल में डाल दिया गया और उन पर हत्या का मुक़दमा चला.
जज के सामने रहे निडर
अदालत कुछ ऐसा था कि कटघरे में खड़े उस 19 साल के लड़के को देख कोई कह नहीं सकता था कि ये उस उम्र में है जब तक लड़के अपनी जिंदगी में आगे क्या करना है ये भी तय नहीं कर पाए होते. हत्या का इल्जाम अपने सिर लिया हुआ ये लड़का इतने आत्म विश्वास में खड़ा था कि मानों उसने कुछ गलत ना किया हो. भय तो उसके आस पास भी नहीं भटक रहा था. जिलाधीश की कुर्सी पर बैठे थे वुडमैन. वुडमैन ने बोस से पूछा, “क्या तुमने बग्गी में बम किंग्सफोर्ड की हत्या करने के उदेश्य से फेंका था ?”
बोस का सधा हुआ जवाब था “हां.”
“तुमने ऐसा क्यों किया ?”
“क्योंकि वो बहुत अत्याचारी था.”
“तुमने ये उचित नहीं किया. ये शासन के खिलाफ विद्रोह है, जिसकी तुम्हें सजा मिलेगी.” सजा का नाम सुन कर इस बच्चे को डर जाना चाहिए था. मगर नहीं, उसकी आंखों में कहीं डर नहीं दिख रहा था.
उसने बड़े गर्व से कहा, “जो कोई भी मेरे देशवासियों पर अत्याचार करेगा उसका वही हाल होगा जो किंग्सफोर्ड का हो सकता था.”
“लेकिन बग्घी में सवार महिलाओं का क्या दोष था ?”
“हां, उनके लिए मुझे बेहद अफ़सोस है. वो बग्घी में हैं इसकी जानकारी हमें नहीं थी वरना हम ऐसा कतई न करते.”
सच की लड़ाई में नहीं लूंगा झूठ का सहारा
खुदीराम का मुकदमा लड़ने रंगपुर से सतीशचन्द्र आये थे. वो खुदी द्वारा सरे आरोप कबूल किये जाने पर बहुत चिंतित थे. जब खुदीराम अपने ऊपर लगे आरोपों को स्वीकार कर चुके थे तो ऐसे में सतीशचंद को उन्हें बचाने का कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था. ऐसे में उन्होंने खुदीराम से अकेले में मिलना सही समझा. खुदीराम से मिलने के लिए उन्होंने वुडमैन को अनुरोध पत्र पेश किया जिसे वुडमैन ने स्वीकार कर लिया.
खुदीराम से मिलते ही सतीशचंद्र ने कहा, “खुदीराम तुमने अपने आरोपों को स्वीकार क्यों कर लिया जबकि हम तुम्हें बचने में लगे थे.”
खुदीराम ने बड़ी निडरता और गर्व से कहा “सभी आरोप सही थे इसीलिए मैंने उन्हें कबूल कर लिया.”
“क्या तुम जीवित रह कर देश की सेवा नहीं करना चाहते ?”
“हां, लेकिन सच की लड़ाई में मैं झूठ का सहारा ले कर बचना भी नहीं चाहता.”
खुदीराम के इस जवाब के बाद सतीशचंद्र के पास कहने को कुछ नहीं बचा था.
8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून को उन्हें प्राण दण्ड की सजा सुनाई गई. इसके बाद 11 अगस्त, 1908 को इस वीर क्रांतिकारी को फांसी पर चढ़ा दिया गया. उन्होंने अपना जीवन देश की आज़ादी के लिए न्योछावर कर दिया.
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Constitution Day of India: इंद्राणी मुखर्जी का वो काला अध्याय जो हिला गया था देश
Published
1 month agoon
November 21, 2024By
BharatConstitution Day of India: आज संविधान दिवस के मौके पर हम आपको एक ऐसी कहानी सुनाने जा रहे हैं जो भारत के कानूनी इतिहास में एक काला अध्याय के रूप में दर्ज है। यह कहानी है इंद्राणी मुखर्जी और उनकी बेटी शीना बोरा की, एक ऐसी कहानी जो रहस्य, धोखा और क्रूरता से भरी हुई है।
शीना बोरा कौन थीं?
शीना बोरा इंद्राणी मुखर्जी की बेटी थीं। वह एक खूबसूरत, प्रतिभाशाली और महत्वाकांक्षी युवती थीं। वह मुंबई मेट्रो वन में असिस्टेंट मैनेजर के पद पर काम करती थीं। लेकिन उनकी जिंदगी एक रहस्यमयी तरीके से खत्म हो गई।
क्या हुआ था 24 अप्रैल 2012 को?
24 अप्रैल 2012 को शीना बोरा अचानक गायब हो गईं। उनके परिवार और दोस्तों ने उनकी खोज शुरू की लेकिन उनका कोई पता नहीं चला। पुलिस में भी शिकायत दर्ज की गई लेकिन कोई सफलता नहीं मिली।
क्या था सच?
कई सालों तक यह रहस्य बना रहा। लेकिन 2015 में एक चौंकाने वाला खुलासा हुआ। पुलिस ने इंद्राणी मुखर्जी को गिरफ्तार किया और आरोप लगाया कि उन्होंने अपनी ही बेटी शीना बोरा की हत्या कर दी थी।
क्या था हत्या का कारण?
पुलिस की जांच में सामने आया कि इंद्राणी मुखर्जी को शीना बोरा का रिश्ता पसंद नहीं था। शीना बोरा अपने प्रेमी राहुल मुखर्जी के साथ रह रही थीं, जो इंद्राणी मुखर्जी के पूर्व पति पीटर मुखर्जी के बेटे थे। इंद्राणी मुखर्जी इस रिश्ते से खुश नहीं थीं और उन्होंने शीना बोरा को खत्म करने का फैसला किया।
कैसे की गई थी हत्या?
पुलिस के मुताबिक, इंद्राणी मुखर्जी ने अपने ड्राइवर शाम्वर राय की मदद से शीना बोरा का अपहरण किया और फिर उनकी हत्या कर दी। उन्होंने शीना बोरा के शव को जला दिया और उसके अवशेषों को मुंबई के पास के जंगल में फेंक दिया।
क्या था सबूत?
पुलिस ने कई सबूत जुटाए, जिनमें शामिल थे:
- शीना बोरा के मोबाइल फोन के रिकॉर्ड्स
- इंद्राणी मुखर्जी के फोन कॉल रिकॉर्ड्स
- शाम्वर राय की बयान
- जंगल में मिले हड्डियों के अवशेष
इन सबूतों के आधार पर पुलिस ने इंद्राणी मुखर्जी और शाम्वर राय को गिरफ्तार किया। बाद में, इंद्राणी मुखर्जी के पूर्व पति पीटर मुखर्जी को भी गिरफ्तार किया गया।
क्या हुआ कोर्ट में?
इंद्राणी मुखर्जी, शाम्वर राय और पीटर मुखर्जी के खिलाफ हत्या, अपहरण और साक्ष्य छिपाने के आरोप में मुकदमा चलाया गया। कोर्ट में कई सालों तक सुनवाई चली।
क्या था फैसला?
2022 में कोर्ट ने इंद्राणी मुखर्जी, शाम्वर राय और पीटर मुखर्जी को दोषी करार दिया और उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई।
क्या है अब हालात?
इंद्राणी मुखर्जी, शाम्वर राय और पीटर मुखर्जी फिलहाल जेल में हैं। वे अपनी सजा काट रहे हैं। शीना बोरा के परिवार और दोस्तों को अभी भी इंसाफ की उम्मीद है।
क्या सीख मिलती है इस कहानी से?
यह कहानी हमें सिखाती है कि क्रूरता और धोखा कभी भी अच्छा परिणाम नहीं देता है। हमें हमेशा सच बोलना चाहिए और गलत काम करने से बचना चाहिए। हमें अपने परिवार और दोस्तों का सम्मान करना चाहिए और उनकी खुशी की कामना करनी चाहिए।
यह कहानी हमें यह भी सिखाती है कि कानून सबके लिए समान है। कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। अगर कोई व्यक्ति गलत काम करता है तो उसे सजा मिलनी ही चाहिए।
संविधान दिवस के मौके पर हमें याद रखना चाहिए कि हमारा संविधान हमें न्याय, समानता और स्वतंत्रता का अधिकार देता है। हमें इस अधिकार का सम्मान करना चाहिए और अपने देश के कानून का पालन करना चाहिए।
History
दंगों का इतिहास: ब्रिटिश हुकूमत , पारसी और आवारा कुत्ते
Published
10 months agoon
March 12, 2024By
Dhiraj Jhaलेख– ध्रुव तिवारी
दुनिया का कोई भी देश दंगों से अछूता नहीं रह पाया है. एक सभ्य समाज कभी भी दंगों की कल्पना नहीं कर सकता, इसके बावजूद अलग अलग कारणों से दंगे होते रहे हैं. लोगों की अलग अलग मानसिकता इन दंगों का सबसे मुख्य कारण बनती हैं. लोगों की यही अलग अलग मानसिकता मतभेद पैदा करती हैं. धार्मिक भावनाओं का आहत होना, या फिर समाजिक व राजनैतिक विचारधारा ऐसे मतभेद पैदा करती हैं जो दंगों का रूप ले लेते हैं. Gistwist आपके लिए भारत के इतिहास में हुए सबसे बड़े दंगों की कहानियां लेकर आया है. जो हमें समझने में मदद करेंगे कि आखिरकार ये दंगे क्यों हुए और इन्हें अंजाम देने के पीछे किनका हाथ था.
बॉम्बे डॉग राइट्स
दंगों की इन कहानियों की शुरुआत हम उस दंगें से जहां “पारसी, अंग्रेज और आवारा कुत्ते सबसे ज्यादा चर्चा में रहे. टोरंटो विश्वविद्यालय के शोध विद्वान Ph.D Jesse S. Palsetia भारत के पारसी समाज के विशेषज्ञ हैं. जेसी ने अपनी किताब और रॉयल एशियाटिक सोसाइटी में लिखे अपने लेख ‘Mad Dogs and Parsis: The Bombay Dog Riots of 1832’ में बताया है कि ये दंगा मुख्य तौर पर उस समय बॉम्बे में रह रहे पारसी समाज और अंग्रेजी हुकूमत के बीच हुआ था. जिसका मुख्य कारण थे आवारा कुत्ते.
कहां से आए पारसी?
कहानी है 1832 की, जब मुंबई बॉम्बे था और पारसी समुदाय के लोग गुलाम भारत में बहुत रसूख रखते थे. उनके अंग्रेजो के साथ अच्छे संबंध थे. जिस वजह से उनको सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक लाभ मिला करता था. गोदरेज, टाटा, सायरस पूनावाला, दादाभाई नोरीजी , होमी जहांगीर भाभा जैसी नामचीन हस्तियां पारसी समुदाय से ही आती हैं.
मुलतः भारत से ना होने के बावजूद पारसियों ने भारत को बड़ा बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. पारसी लोग उस ईरान से संबंध रखते हैं जिसे कभी फारस कहा जाता था. इंडिया में पारसियों के माइग्रेशन का जिक्र करने वाले पहले स्रोत ‘क़िस्सा ए संजान’ के अनुसार, पारसी समुदाय घूमते घामते, समुद्री यात्रा करके गुजरात के समुद्री तट संजान में उतरे. संजान पारसियों की सबसे पहली बस्ती थी. बॉम्बे जब बसाया जा रहा था तब पारसी वहां बसने वालो में सबसे पहले थे.
कुत्तों को क्यों मारना चाहते थे अंग्रेज?
आवारा कुत्तों के लिए हुए दंगे के समय बॉम्बे की जनसंख्या दो लाख थी और इनमें 10738 लोग पारसी थे. अब सोचने वाली बात ये है कि जिन पारसियों के अंग्रेजों के साथ अच्छे संबंध थे उनका अंग्रेजों के साथ विवाद क्यों और कैसे हुआ? दरअसल उस समय अंग्रेजी हुकूमत ने आवारा कुत्तों को ले कर एक कानून पारित किया था. तत्कालीन पुलिस मजिस्ट्रेट ने बॉम्बे के सरकार से एक कानून बनाने को लेकर अनुमति मांगी ताकि बम्बई शहर और द्वीप के आवारा कुत्तों का समाधान किया जा सके.
इस कानून के अनुसार कुत्तों को मरने की मुहीम दो बार चलायी जानी थी, जहां पहले 15 अप्रैल से 15 मई और फिर 15 सितम्बर से 15 अक्टूबर के बीच उन सभी कुत्तों को मारने का लक्ष्य निर्धारित किया गया जिनका कोई मालिक नहीं था. बाद में ज्यादा से ज्यादा कुत्तों को मारने के लिए समय अवधि को बढ़ा कर 15 जून कर दिया गया. आवारा कुत्तों की संख्या कम करने के पीछे गवर्नर जॉन अर्ल क्लेयर ने ये वजह बतायी कि इनकी वजह से आम जनता खतरे में है. इन हानिकारक और जानलेवा जानवरों का हमला रोकने के लिए हमें अगर पुराने कानून बदल कर नए कानून लाने की जरुरत पड़ती है तो वो भी किया जाना चाहिए.
पब्लिक सेफ्टी को आधार बनाकर इस कानून को सही ठहराने की कोशिश की गयी लेकिन जिस तरह से ये इम्प्लीमेंट किया गया वो काफी विवादित रहा. स्पेशल पुलिस को एक कुत्ता मारने के बदले 8 आने का इनाम देने की घोषणा की गयी. कुत्तो को मार कर सड़कों पर सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता था. ये कानून गर्मी के मौसम में उत्पन्न होने वाले रेबिड कुत्तों को खत्म करने के मकसद से लाया गया था लेकिन अब इनाम की वजह से पालतू कुत्ते जो लोगों ने अपने घरों में पाले थे, उनको भी जबरजस्ती निकाल कर मारा जाने लगा.
क्यों हुए थे दंगे?
कुत्तों की हो रही लगातार ह्त्या के कारण लोगों में मानवीय और धार्मिक कारणों की वजह से आक्रोश भर आया. दरअसल, पारसी धर्म में कुत्तों का विशेष स्थान है. कुत्तों के लिए पारसियों के मन में श्रद्धा रहती है. दरअसल, पारसी धर्म Zoroastrian में ऐसी मान्यता है कि कुत्ते Bridge Of Judgement ( चिनवट) के Gardien होते हैं. ऐसा माना जाता था कि मृत्यु के बाद प्रत्येक आत्मा को चिनवट पुल पार करना पड़ता है. और कुत्ते उनके रक्षक हैं.
भावनाएं आहत होने का एक कारण ये भी था कि ये कानून पारसियों के पवित्र दिन और मुसलमानों के रमजान के महीने में ही लागू किया गया था. कुत्तों के लिए पारसियों जितनी श्रद्धा न रखने के बावजूद मुसलमान समुदाय भी इस अमानवीय कृत्य से नाराज था. रमजान के महीने में मरे हुए कुत्तो को सड़कों पर छोड़ने के कारण भी मुस्लिम नाराज थे. वहीं हिन्दू संस्कृति में भी जीव जंतुओं और बेजुबान के लिए प्रेम भाव था.
जेसी के अनुसार, पहली हिंसा बुधवार 6 जून को हुई. शहर में कुत्तो के लिए घेराबंदी करने के दौरान पारसियों द्वारा पुलिस को आगाह किया गया कि कुत्तों का ये कत्लेआम उनकी धार्मिक भावनाओं को आहात कर रहा है, ऐसे में इसे बंद किया जाना चाहिए. घेराबंदी किले में चल रही थी जिसके अंदर बॉम्बे शहर बसा करता था. किला 2 मील लम्बा और तीन चौथाई चौड़ा एरिया कवर करता था. पारसियों की ज्यादातर आबादी इसी किले के अंदर केंद्रित थी. किले के अंदर ही इनके कारोबार, बस्तियां और पूजा स्थल सब थे.
कैसे शुरू हुए दंगे?
उस दिन दो यूरोपियन कांस्टेबल पेट्रोलिंग पर थे. कुत्तो को मारने की कार्यवाही में इनका कोई योगदान नहीं था, वे केवल गश्त पर थे. इनको पारसियों और बाकि भारतियों की भीड़ ने घेर लिया और उन्हें पीटना शुरू कर दिया. एक कांस्टेबल को दर्जन भर घाव लगे जबकि दूसरा छुपता छुपाता वहां से भाग निकला हु. ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ ये पहली ऐसी हिंसक घटना थी जिसे पारसियों ने अंजाम दिया था.
200 से ज्यादा लोगों की भीड़ हाथ में पत्थर ,डंडा, सरिया लिए हुए पुलिसवालों को ढूंढने लगी. इस घटना के बाद पूरा पुलिस महकमा भयभीत हो गया. दुकानें बंद करा दी गयीं. करीब 3 बजे कॉन्स्टेबल्स की पिटाई के बाद पारसियों ने सुप्रीम कोर्ट और पुलिस थानों को घेर लिया और कुत्तों को मारने वाले कानून को वापस लेने की मांग करने लगे. गौर करने वाली बात ये थी कि अपनी कुत्तों के प्रति संवेदना दिखा रही इस भीड़ में अधिकतर पारसी समुदाय के निचले तबके के लोग ही शामिल थे.
निचले तबके से हमारा मतलब है रसोइये, साफ़ सफाई करने वाले, सामान ढोने वाले. इनमें कोई भी नामचीन हस्ती या व्यापारी शामिल नहीं थे. अपना रोष प्रकट करने के बाद भीड़ वापस चली गयी. हालांकि इस घटना के बाद हर तरफ डर का माहौल था, इसी वजह से दुकानों को बंद ही रखा गया. ये आशंका जताई गयी कि दुकानें अगर खुली रहीं तो उन्हें लूटपाट और छति पहुंचाने की कोशिश की जा सकती है. इस पूरी घटना का एकलौता मक़सद अंग्रेजी हुकूमत के समक्ष शक्ति प्रदर्शन करना था. उन्हें ये बताना जरूरी था कि अगर हमारी मांग ना मानी जाने की स्थिति में परिणाम गंभीर हो सकते हैं.
पूरी योजना के साथ किया विरोध
बात यहीं खत्म नहीं हुई, अगले दिन लोग इस तैयारी में जुट गए कि 7 जून को हड़ताल व रोजमर्रा की चीज़ो को रोका जाएगा. भिंडी बाजार और किले के सामने मैदान में लगने वाली दुकाने जबरजस्ती बंद करा दी गयीं. पालकी और घोड़ागाड़ी में बैठकर किले में जाने वाले अंग्रेज अफसरों के काफिले को किले में जाने से रोका जाने लगा. मजिस्ट्रेट Claude Stewart और पैट्रिक स्टीवर्ट की बग्गी को भारी विरोध के बाद वापस जाना पड़ा. कुछ पालकी और घोड़ेगाड़ी पर मरे हुए चूहे, सड़े हुए टमाटर और पत्थर फेंके गए.
इंडिया में रह रहे उस समय के अंग्रेज अफसर अपने हर रोजाना के काम के लिए भारतीयों पर निर्भर थे. जैसे लॉन्ड्री, रोटी, ब्रेड, दूध ,मांस, पहुंचाने वाले सब भारतीय ही थे. इन सबको रोक दिया गया. इन छोटी छोटी जरूरतों को रोक कर अपने आक्रोश को व्यक्त किया गया. जो कल तक भारतियों से गुलामों की तरह काम करवाते थे, अब खुद अपने जरुरत का सामान लेने के लिए अपने लाव-लश्कर के साथ बाजार निकलने को मजबूर थे.
ये पहली ऐसी घटना थी जब लोगों ने धर्म, गरीबी, अमीरी से ऊपर उठकर अंग्रेजो के खिलाफ बगावत की थी. अंग्रेजों ने जब इस घटना की जांच की तब उन्हें पता चला कि ये एक महज छोटी घटना नहीं थी, इसे योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दिया गया था. पारसियों की पंचायत ‘सेठिया महाजन’ और अन्य समुदायों की पंचायतों ने एक साथ मिलकर इस योजना की तैयारी की थी.
घटना के बाद अंग्रेजी हुकूमत को लोगों ने अपनी व्यथा पेटिशन लिख के बताई गयी. जिसमें उनहोंने बताया कि उनके लिए कुत्तों की क्या अहमियत है. इस दंगे मामले में कुछ लोगों को पुलिस ने पकड़ा भी लेकिन सबूतों के आभाव और क्राइम के स्केल को देखते हुए लगभग सभी को छोड़ दिया गया.
मारे गए 63000 से ज़्यादा कुत्ते?
उस दौरान कुत्तों का सफाया किस स्तर पर किया था इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि सरकार का कुत्तों की समस्या से निपटने के लिए वार्षिक खर्च लगभग 3200 रुपये आया करता था. 1823 से 1832 तक कुत्तों को मरने के लिए 31390 रुपये खर्च किए गए थे, जिस दौर में 1000 रुपये रखने वालों को हजारी बाबू कह कर अमीरों की श्रेणी में रखा जाता था उस दौर में ये काफी बड़ी रकम थी. इस खर्च से 63000 कुत्ते मारे गए थे. 7924 कुत्ते ज़िंदा पकड़े गए, इनमें से भी 3500 कुत्तों को मार दिया गया.
हैरानी की बात यह कि जिस दौर में इंसानों के जान की कीमत ही बहुत काम थी, उस दौर में हमारे देशवासी कुत्तों को बचाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत से लड़ गए. उस समय ना Peta था ना ही एनिमल वेलफेयर वाली संस्था फिर भी संस्कृति और अपने धर्म में अटूट विश्वास के कारण लोग इन बेजुबान जानवरों के लिए मसीहा बनकर उभरे.
History
आल्हा-ऊदल की वीरगाथा, जिन्हें नौ सौ साल बाद भी याद किया जाता है
Published
10 months agoon
March 10, 2024By
Dhiraj Jhaवीर इस धरा की शोभा माने जाते हैं. उनकी वीर गाथाओं को हमेशा याद रखा जाता है. कुछ को किताबों में सहेजा जाता है तो कुछ को लोकगीतों में, और तो और कई वीरों की याद में तो आज तक महोत्सव मानाये जाते हैं. उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में मनाया जाने वाला कजली महोत्सव भी ऐसा ही एक उत्सव है जिसे दो वीरों की याद में मनाया जाता है.
आइए जानते हैं नौ सौ साल पुराने इस महोत्सव और वीरों के बारे में:
कब मनाया जाता है कजली महोत्सव?
बुन्देलखण्ड की भूमि में तीन दिवसीय कजली मेला पुरानी सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है जिसका आगाज रक्षाबंधन के पर्व पर होगा. पहले दिन बांदा, हमीरपुर, चित्रकूट, छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दतिया व ग्वालियर सहित कई इलाकों से भारी भीड़ जुटेगी. इस एतिहासिक मेले की तैयारी पूरी कर ली गयी है. जिले में तीन दिवसीय कजली मेले का आगाज रक्षाबंधन पर्व के अगले दिन भादों मास की प्रतिपदा को कीरत सागर के तट पर होगा. यह कजलियों व भुजरियों का मेला नाम से भी विख्यात है.
क्यों मनाया जाता है कजली महोत्सव?
इस मेले का नौ सौ साल पुराना इतिहास है. बात है सन् 1182 की, जब राजा परमाल की पुत्री चंद्रावलि 1400 सखियों के साथ भुजरियों के विसर्जन के लिए कीरत सागर जा रही थीं. उस समय रजा परमाल और पृथ्वीराज चौहान के बीच मतभेद चल रहे थे. इस मतभेद और और उरई के नरेश माहिल के उकसाने के कारण पृथ्वीराज चौहान ने उस समय महोबा को चारों ओर से घेराबंदी कर हमला कर दिया था.
जब रक्षाबंधन पर्व की लोग तैयारी कर रहे थे. पृथ्वीराज चौहान के युद्ध के खतरे की चिंता न करती हुयी रानी मल्हना व राजकुमारी चन्द्रावल ने कीरत सागर पर रक्षाबंधन पर्व मनाने का फैसला किया. 1800 डोलों में कजलियों के समूहों के साथ रानी मल्हना अपने महल से 1400 वीरांगना सखियों के साथ कजली खोटनें कीरत सागर तट जा रही थीं तभी रास्ते में पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामुंडा राय ने आक्रमण कर दिया था.
क्या हुआ था युद्ध में?
यह वही समय था जब किसी मतभेद के कारण आल्हा-उदल महोबा छोड़ चुके थे और अपने मित्र मलखान के पास कन्नौज में रह रहे थे. आल्हा ऊदल के न रहने से महारानी मल्हना तलवार ले स्वयं युद्ध में कूद पड़ी थी. दोनों सेनाओं के बीच हुए भीषण युद्ध में राजकुमार अभई मारा गया. चामुंडा राय ने सभी दोलों को लूट लिया. वो राजकुमारी चंद्रावल और डोलों को पश्चिम छोर पचपहरा गांव में अपने शिविर ले गया.
जब आल्हा उदल ने उठाई तलवार
अपने राज्य के अस्तित्व व अस्मिता के संकट की खबर सुन वीर आल्हा ऊदल की तलवारें सभी मतभेदों को भूल गयीं. ये खबर पाते ही कन्नौज से वीर योद्धा आल्हा ऊदल महोबा आये और अभई, रंजित, सैय्यद व लाखन ढेबा के साथ मिलकर पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामुण्डाराय को चारों ओर से घेरकर आक्रमण कर दिया.
इन वीर योद्धाओं ने कसम भी खायी थी कि जब तक रानी के लूटे गये डोले वापस नहीं लायेंगे तब तक रक्षाबंधन पर्व नहीं मनाया जायेगा. पूरे दिन पचपहरा गांव में भीषण संग्राम हुआ जिसमें वीर योद्धा आल्हा ऊदल के हाथों सेनापति चामुण्डाराय पराजित हुआ. वीर योद्धा लूटे गये कजली के डोले वापस लाये.
जब महिलाओं ने थामी तलवारें
चंदेल और चौहान सेनाओं की बीच हुए युद्ध में कीरत सागर की धरती खून से लाल हो गई. युद्ध में दोनों सेनाओं के हजारों योद्धा मारे गये. राजकुमारी चंद्रावल व उनकी सहेलियां अपने भाईयों को राखी बांधने की जगह राज्य की सुरक्षा के लिये युद्ध भूमि में अपना जौहर दिखा रही थी. इसी वजह से भुजरिया विसर्जन भी नहीं हो सका. तभी से यहां एक दिन बाद भुजरिया विसर्जित करने व रक्षाबंधन मनाने की परंपरा है.
महोबा की अस्मिता से जुड़े इस युद्ध में विजय पाने के कारण ही कजली महोत्सव विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है. सावन माह में कजली मेला के समय गांव देहातों में लगने वाली चौपालों में आल्हा गायन सुन यहां के वीर बुंदेलों में आज भी 1100 साल पहले हुई लड़ाई का जोश व जुनून ताजा हो जाता है.
आल्हा-ऊदल की वीरगाथा में कहा गया है ‘बड़े लड़इया महुबे वाले, इनकी मार सही न जाए..!’ युद्ध के कारण बुंदेलखंड की बेटियां रक्षाबंधन के दूसरे दिन ‘कजली’ दफन कर सकी थीं. आल्हा-ऊदल की वीरगाथा के प्रतीक ऐतिहासिक कजली मेले को यहां ‘विजय उत्सव’ के रूप में मनाने की परम्परा आज भी जीवित है.
History
कहानी 80 साल के उस बूढ़े शेर की, जिसकी दहाड़ से अंग्रेज थर थर कांपते थे
Published
10 months agoon
March 10, 2024By
Dhiraj Jhaदेशभक्ति का जज्बा हर उम्र के देशवासी की रगों में उबाल ला देता है. बात जब देश की आन पर आ जाए तो क्या बच्चा क्या बूढ़ा, सब के सब, ना दुश्मन को मारने से पहले सोचते हैं और ना खुद के प्राणों की आहुति देने से पहले. देश की आज़ादी के लिए जहां 19 वर्ष के खुदीराम बोस जैसे जोशीले नवयुवक फांसी के फंदे को कहूं गए, वहीं 80 वर्ष के एक योद्धा ने भी अंग्रेजों को नाकों तले चने चवबा दिए.
आज हम आपको उसी 80 वर्ष के योद्धा की अद्भुत कहानी बताने जा रहे हैं:
बूढ़े शेर की दहाड़ से दहले अंग्रेज
कवि मनोरंजन प्रसाद सिंह की एक कविता है जिसके बोल कुछ इस तरह हैं कि:
अस्सी वर्ष की बूढ़ी हड्डी में जागा जोश पुराना था
सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था
जी हां हम यहां बात कर रहे हैं 1857 स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे गुमनाम नायक की जिसकी लोकप्रियता मात्र क्षेत्रीय हो कर रह गई. बाबू वीर कुंवर सिंह के नाम से जाना जाने वाला ये बूढ़ा शेर अंग्रेजों के साथ लड़ते हुए अपने क्षेत्र को आजाद करने वाला एकमात्र राजा था. बाबू वीर कुंवर सिंह ने 23 अप्रैल, 1858 को शाहाबाद क्षेत्र को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराया था. उन्होंने जगदीशपुर के अपने किले से ब्रिटिश झंडे को उतारकर अपना झंडा फहराते हुए इस किले को फतह कर लिया था.
बिहार की धरती को किया था गौरवान्वित
साल 1777 में बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर में जन्मे बाबू वीर कुंवर सिंह के पिता साहबजादा सिंह राजा भोज के वंशजों में से थे. 1826 में पिता की मृत्यु के बाद कुंवर सिंह जगदीशपुर के तालुकदार बने. कुंवर सिंह बचपन से ही बहुत वीर योद्धा थे. वह गुर्रिल्ला युद्ध शैली में बहुत कुशल थे. अपनी इसी कुशलता का प्रयोग उन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई में अंग्रेजों के खिलाफ किया था.
उम्र 80 थी जोश था 20 का
कुंवर सिंह के बारे में सबसे खास बात यही है कि उन्होंने अपनी वीरता को 80 साल की उम्र तक भी बनाए रखा और इस उम्र में भी अंग्रेजों से ऐसे लड़े जैसे कि वह 20 वर्ष के युवा हों. उन्होंने कभी भी अपनी उम्र को खुद पर हावी नहीं होने दिया.
साल 1857 में जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का डंका बजाय तो एक तरफ नाना साहब, तात्या टोपे डटे खड़े अंग्रेजों का लोहा ले रहे थे तो वहीं महारानी रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हजरत महल जैसी वीरांगनाएं अपने तलवार का जौहर दिखा रही थीं. ठीक इसी समय बिहार में एक बूढ़े शेर की दहाड़ ने अंग्रेजों के पसीने छुड़ा दिए यहे. बाबू वीर कुंवर सिंह ने भी ब्रिटिश शासकों के खिलाफ लड़ रहे बिहार के दानापुर के क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया.
80 साल की उम्र में जहां शरीर आराम चाहता है वहीं कुंवर सिंह अपनी हड्डियों में बारूद और न्यास न्यास में देशभक्ति की लहर लिए अपने सेनानी भाइयों के साथ अंग्रेजों का डटकर मुकाबला कर रहे थे. कुंवर सिंह के दो भाई थे हरे कृष्णा और अमर सिंह, जो उनके सेनापति भी थे.
खड़ी कर दी थी अपनी सेना
साल 1848-49 में जब अंग्रेजी शासकों ने विलय नीति अपनाई जिसके बाद भारत के बड़े-बड़े शासकों के अंदर रोष और डर जाग गया. वीर कुंवर सिंह को अंग्रेजों की ये बात रास ना आई और वह उनके खिलाफ उठ खड़े हुए. अपने इस क्रोध को एक आग में बदलते हुए कुंवर सिंह ने दानापुर रेजिमेंट, रामगढ़ के सिपाहियों और बंगाल के बैरकपुर के साथ मिल कर अंग्रेजो के खिलाफ धावा बोल दिया.
दूसरी तरफ मेरठ, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, झांसी और दिल्ली में भी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह जोर पकड़ने लगा. इस दौरान वीर कुंवर सिंह ने अपने साहस, पराक्रम और कुशल सैन्य शक्ति का उद्धहरण पेश करते हुए सेनाओं का नेतृत्व किया और ब्रिटिश सरकार को घुटनों पर ला दिया.
उन्होंने अपने पराक्रम से आरा शहर, जगदीशपुर तथा आजमगढ़ आजाद कराया. ये कुंवर सिंह ही थे जिनके कारण अंग्रेजी हुकूमत के बीच आजमगढ़ 81 दिनों तक आजाद रहा था.
जब गंगा को समर्पित कर दी थी अपनी बांह
1958 में जगदीशपुर के किले पर अंग्रेजों का झंडा उखाड़कर अपना झंडा फहराने के बाद बाबू वीर कुंवर सिंह अपनी पलटन के साथ बलिया के पास शिवपुरी घाट से गंगा कशतियों में नदी पार कर रहे थे. इस बात की भनक अंग्रेजों को लग चुकी थी और उन्होंने मौका देखते हुए बिना किसी सूचना के वीर कुंवर सिंह को घेर लिया और उनपर गोलीबारी करने लगे.
इसी गोलीबारी में कुंवर सिंह के बाएं हाथ में गोली लग गई. बांह में लगी गोली का जहर पूरे शरीर में फैलता जा रहा था. दूसरी तरफ कुंवर सिंह ये नहीं चाहते थे कि उनका शरीर जिंदा या मुर्दा अंग्रेजों के हाथ लगे. इसी सोच के साथ उन्होंने अपनी तलवार से अपनी वह बांह ही काट दी जिस पर गोली लगी थी और उसे गंगा नदी को समर्पित कर दिया. इसके बाद वह एक ही हाथ से अंग्रेजों का सामना करते रहे.
घायल अवस्था में होने के बावजूद उनकी हिम्मत नहीं टूटी और ना ही वह अंग्रेजों के हाथ आए. उनकी वीरता को देखते हुए एक ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा कि ‘यह गनीमत थी कि युद्ध के समय उस कुंवर सिंह की उम्र 80 थी. अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता.’
23 अप्रैल 1858 को वह अंग्रेजों को धूल चटा कर अपने महल में वापिस लौटे लेकिन उनका घाव इतना गहरा हो चुका था कि वह बच ना सके. 26 अप्रैल 1858 को इस बूढ़े शेर ने दुनिया को अलविदा कह दिया.
आज हम अगर आजाद भारत में चैन की सांस ले रहे हैं तो उसकी वजह कुंवर सिंह जैसे वीर ही हैं. ऐसे नायकों को पूरे देश से सम्मान मिलना जरूरी है और ऐसा तभी होगा जब इनके बारे में केवल बिहार और पूर्वाञ्चल के लोग नहीं बल्कि पूरा देश जानेगा.
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