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गुलाब के पौधे! धीरज की कलम से निकली वैलेंटाइन डे की कहानी

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Rose Proposal

“हैप्पी रोज़ डे हीरो” कॉलेज की पार्क के बीचों बीच अपनी असाइनमेंट फाइल पर झुके विनीत के सर पर एक गुलदस्ते से मारते हुए श्रेया ने कहा था.

“अरे वाह, सेम टू यू मेरी जान.” विनीत की नजरें अब फाइल से हट कर गुलदस्ते पर जा टिकी थीं.

“सेम टू यू से काम नहीं चलेगा. बताओ मेरा रोज़ कहां है?” श्रेया ने विनीत के चारों तरफ नजर घुमाते हुए कहा था.

विनीत जानता था कि कोई बहाना नहीं काम आने वाला इसीलिए उसने सच बोलना ही सही समझा. उसने श्रेया का हाथ पकड़ कर उसे नर्म घास पर बिठाते हुए कहा “जाना, मैं सच में भूल गया था. ये फाइल बनाने की टेंशन में सच में मुझे याद नहीं रहा.”

“हां हां, अब तुम्हें कहां याद रहेगा, मैं पुरानी जो हो गई हूं. ऊपर से मैं तुम्हें आसानी से मिल गई थी इसीलिए कद्र नहीं तुम्हें.” वैसे ये डायलॉग विनीत का था लेकिन मौका देख कर आज श्रेया ने इस पर अपना हक़ जमा लिया. ऐसा नहीं कि विनीत सच में ऐसा सोचता था बस वो भूल गया था और ये बात श्रेया भी जानती थी इसीलिए उसने मज़ाक में कहा था. मगर सच तो ये था कि श्रेया को थोड़ा बुरा तो ज़रूर लगा था. लगे भी कैसे न ये चौथा साल था उनके प्यार का. क्लास में सबसे पहले लव बर्ड यही दोनों तो थे. ये कॉलेज का तीसरा दिन था जब दोनों ने एक दूसरे को गौर से देखा और देखते ही देखते एक हो गए. न विनीत को ज़्यादा मेहनत करनी पड़ी न श्रेया ने ज़्यादा नखरे दिखाए. ऐसा लगा मानों दोनों ने खुद को सालों तक एक दूसरे के लिए ही संभाले रखा था.

अच्छी बात ये थी कि दोनों प्यार में थे मगर सनक में नहीं. दोनों होशियार थे, बात और हालात दोनों को समझते थे, एक दूसरे के सामने ऐसे होते जैसे इंसान आईने के आगे. दोनों को एक दूसरे से सीखने को भी बहुत मिलता था, इसका कारण था कि दोनों बेमेल थे. जो बात विनीत को पसंद होती वो श्रेया को नहीं और जो श्रेया को होती वो विनीत को नहीं. मगर इस पर दोनों झगड़ने की बजाए उस नापसंद के साथ अडजेस्ट करना, उसे समझना शुरू कर देते. इस तरह वो जान पाते कि जिसे वो सालों से नापसंद कर रहे थे उसे भी पसंद करने की वजह हो सकती है. खैर कुल मिला कर उनका प्यार उनकी उम्र और तजुर्बे से काफी बड़ा था.

दोनों लड़ते भी थे लेकिन अलग कभी नहीं होते थे. उन्होंने इन चार सालों के दौरान कॉलेज में रहते हुए अपना फ्री टाइम कभी अकेले नहीं बिताया, भले वो एक दूसरे से कितना भी नाराज़ हों. प्यार में नाराज़गी अंचार में खटास की तरह है. आप अंचार को बिना खटास के सोच ही नहीं सकते और कहीं खटास ज्यादा हो गई तब भी बेकार. इसीलिए बहुत संतुलित रखना पड़ता है नाराज़गी को. अब उसी दिन का देख लीजिए श्रेया के पास नाराज़ होने का अच्छा खासा मौका था लेकिन वो चाह कर भी नहीं हो पाई.

“तुम्हारे दिमाग में भी फालतू बातों की घास उगती रहती है. ऐसा कुछ नहीं है. मैं बस भूल गया था. वैसे भी यार हर साल एक ही बात को दोहराने में मज़ा नहीं आता और फिर नया किया भी क्या जाए.” विनीत थोड़ा रुड होते हुए बोला.

“ठीक है फिर इस बार से हम लोग अपना अपना बर्थडे भी नहीं मनाएंगे. वो भी तो साल में एक बार आता है. तुम एनिवर्सरी पर भी मुझे विश ना करना, ओके.” अपने फूलों के गुलदस्ते को विनीत की फाइलों पर पटकते हुए श्रेया उठ कड़ी हुई.

“अरे यार वो अलग बात है. सुनों तो.” विनीत ने जल्दी जल्दी सारा सामान समेटा और पांव पटकते जा रही श्रेया के पीछे पीछे चल दिया लेकिन आखिरकार उसे रुकना ही पड़ा क्योंकि श्रेया गर्ल्स रेस्टरूम में घुस चुकी थी. कुछ देर इंतजार करने के बाद विनीत ये सोच कर क्लास रूम की ओर बढ़ चला कि श्रेया आखिर आएगी तो वहीं.

दिन गुज़र रहा था मगर श्रेया मानने को तैयार ही नहीं थी. एक तरफ जहां सारे कपल्स अपने इस वेलेंटाइन वीक की शुरुआत पर प्यार से भरे थे वहीं श्रेया का चेहरा गुस्से से तमतमाया था. उसे गुस्सा विनीत के भूलने पर नहीं आरहा था, उसके गुस्से का कारण था विनीत का रूखा और बेतुका सा जवाब. विनीत को सबसे ज्यादा डर श्रेया की उदासी से लगता था. उसका चेहरा उदासी में किसी बंजर ज़मीन सा लगता जिसे आंसुओं की बूंदें तक ना नसीब होतीं. वो एक दम गुमसुम हो जाया करती थी. विनीत उसके उजाड़ बंजर चेहरे पर मुस्कान के फूल खिलाने की हर संभव कोशिश कर चुका था लेकिन यहां तो जैसे ज़मीन ने फिर से लहलहाने का खयाल ही मन से निकाल दिया था. प्रेम के इस भाग में प्रेमी किसान हो जाता है. फसल की कोई उम्मीद न देख मायूस विनीत क्लास रूम से उठ कर चला गया.

वेलेंटाइन वीक की शुरुआत और ये रोज़ डे रोज के डे से भी बुरा रहा. श्रेया के दिमाग में तरह तरह की बातें आ रही थीं. वो सोच रही थी कि जब विनीत चार साल में ही कह रहा है कि क्या नया किया जाए तो फिर आगे तो इसे सब और बोर लगने लगेगा. वो खुद ही से सवाल कर खुद को ही जवाब दे रही थी. इस उपापोह में कॉलेज का पूरा दिन बीत गया था. श्रेया ने हल्का सा नज़र घुमा कर विनीत की सीट की तरफ देखा लेकिन वो वहां नहीं था. विनीत तब से वापस क्लास में लौटा ही नहीं था. वो ऐसे नहीं करता था. श्रेया के नाराज़ होने पर वो तब तक मनाता था जब तक वो मान ना जाती.

अकसर इंसान प्यार में इसलिए ही रूठता है कि उसे मनाया जाए. विनीत आज बदला सा लग रहा था. श्रेया भी क्लास से निकल गई उसने पूरे कैम्पस में देखा मगर विनीत उसे कहीं नज़र नहीं आया. श्रेया बेचैन सी होने लगी क्योंकि विनीत इस तरह कभी नहीं करता था. उसने उसके दोस्तों से भी पूछा मगर किसी को नहीं पता था विनीत कहा गया है. कॉलेज से छुट्टी का टाइम हो गया था. बेल बज गई सारे बच्चे एक एक कर कैम्पस से निकलते रहे मगर विनीत उनमें दिखाई न दिया. हार कर श्रेया भी ये सोचते हुए घर की तरफ चल पड़ी कि वो घर जा कर फिर विनीत के यहां जाएगी.

बहुत तरह की उलझनें और सवाल लिए श्रेया घर पहुंची. श्रेया के पापा को गार्डनिंग का शौक था तो उन्होंने अपने घर के पिछले हिस्से में एक छोटा सा गार्डन बनाया था. बिना किसी से बात किए श्रेया अपने कमरे की तरफ चलती चली गई. उसका कमरा भी घर के पिछले हिस्से में ठीक उस छोटे से गर्दन के सामने था. उसे देखते ही अमरुद की टहनी से लटके पिंजरे में से टुटु बोला “श्रेया श्रेया.” टुटु उसका तोता था. उसने एक नज़र गार्डन की तरफ घुमाई मगर हमेशा की तरह उसने टुटु का जवाब नहीं दिया. श्रेया कुछ सोच ही रही थी कि उसे अहसास हुआ गार्डन में कुछ बदला बदला है. उसने फिर से गार्डन में देखा वहां एक लाइन से लाइन से गुलाब के चार पौधे लगे थे. ये पहले यहां नहीं थे.

“मम्मी, ये नए पौधे किसने लगाए हैं?” श्रेया अपने कमरे के दरवाजे से मुड़ी और मम्मी के कमरे की तरफ भागी.

“अरे तू ने ही तो भेजा था अपने दोस्त को. बता रहा था तुम लोगों को कोई टास्क मिला है. तेरी कॉपी भी रख गया है. वो सामने टेबल पर पड़ी है. खाना दूं ?” वो कॉपी ठीक पापा के सामने पड़ी थी. श्रेया पूरी बात भले नहीं समझी हो मगर इतना तो समझ गई थी कि उसका वो दोस्त विनीत ही था और उसने पक्का इस कॉपी में कुछ रखा होगा. उस ‘कुछ’ वाली कॉपी को पापा के सामने देख कर श्रेया हड़बड़ा गई.

“न न, नहीं भूख नहीं है.” इतना कह कर श्रेया कॉपी उठाने आगे बढ़ी.

“अरे बेटी थोड़ा खा लो कुछ.” पापा ने अपनी फाइलों से नज़र उठाते हुए कहा. इतनी देर में श्रेया ने कॉपी उठा ली थी.

“न न, नहीं पापा ज़रा भी मन नहीं.” श्रेया एक दम घबरा गई थी. ठंड के मौसम में भी उसके माथे पर पसीना था.

“बेटा ठीक तो हो. और ये पसीना क्यों…” पापा की बात पूरी होने से पहले ही श्रेया अपनी कमरे की तरफ भाग गई.

उसने कमरे का दरवाजा बंद किया और धड़कते दिल के साथ कॉपी खोली. कॉपी खोलने के बाद कुछ पन्ने पलटते ही श्रेया ने देखा कि वहां कुछ पन्नों पर गुलाब की कटिंग्स लगाई हुई हैं और उसके आगे कुछ लिखा है. श्रेया को ये चिंता भी थी कि अगर ये सब पापा देख लेते तो क्या होता, लेकिन इस चिंता से ज़्यादा उसे वो लिखा हुआ पढ़ने की बेचैनी थी. उसने पढना शुरू किया.

प्यारी श्रेया

मैंने आज बहुत गलत बात कही. हालांकि मेरी इस बात के पीछे कोई मतलब नहीं था लेकिन जिस तरह और जिस समय में ये कही गई वो बिलकुल सही नहीं था. इसके बाद मैंने सोचा कि हम अपने बर्थडे से ज़्यादा अपने किसी प्रिय का बर्थडे सोच कर उत्सुक होते हैं, क्योंकि हमें उस खास दिन उसे खुश करना होता है. उसकी ख़ुशी में अपनी जीत ढूंढनी होती है. मैं जो हर वक़्त तुम्हारी ख़ुशी चाहता हूं वो भला ऐसा कैसे सोच सकता है. मुझे सच में याद रखना चाहिए था ये खास दिन. कुछ नया न सही बस पहले की तरह तुम्हें गुलाब दे देता तो भी सब सही रहता. और यकीन मानों जब हम पहले जैसा कुछ करते हैं तो उसमें कुछ न कुछ नया अपने आप हो जाता है.

अब जैसे देखो न मैं तुम्हारे लिए गुलाबों का एक गुच्छा लेने गया था लेकिन मैंने वहां जा कर सोचा कि ये गुलाब सूख जाएंगे. तुम्हें छुपाने पड़ेंगे. गुलाब देख कर लोग भले कुछ न कहें लेकिन सूखे गुलाब अपने आप ही बहुत कुछ कह जाते हैं. तुम्हारी मम्मी उन्हें देख सकती थीं. तुमसे बेकार के सवाल हो सकते थे इसीलिए मैंने सोचा कि क्यों न मैं कुछ ऐसा करूं कि जो बे रोक-टोक हमेशा तुम्हारे सामने रहे.

श्रेया हमारे प्यार को चार साल हुए हैं इसीलिए मैंने आज के दिन गुलाब के चार पौधे लगाए हैं. ये हमेशा तुम्हारे सामने रहेंगे. तुम जब सुबह उठोगी तो इन गुलाबों को छू कर आने वाली हवा खुशबू बन कर तुम्हारी साँसों में समाएगी, तुम्हारे माथे को चूमते हुए याद दिलाएगी कि कोई दीवाना है जो तुम्हारा इंतजार कर रहा है. मैंने खुद से इस वादे के साथ ये चार पौधे लगाये हैं कि मैं हर साल एक पौधा लगाऊंगा और एक वक़्त होगा जब हम अपने इन्हीं गुलाब के पौधों से भरे खेत में खड़े हो कर एक दूसरे को गले लगाएंगे.

मैंने दिल दुखाया है तुम्हारा इसकी भरपाई तो नहीं कर सकता लेकिन मैं ये वादा कर सकता हूं कि आज के बाद मैं कभी इस तरह से दिल नहीं दुखाऊंगा तुम्हारा…मेरी जिंदगी में खुशबू फ़ैलाने वाले इस गुलाब को गुलाब डे मुबारक.

सिर्फ तुम्हारा

विनीत

श्रेया के बंजर चेहरे पर ख़ुशी के आंसुओं की बरसात हो चुकी थी, चेहरा मुस्कान की फसल से लहलहा चुका था. गुलाबों का ये दिन प्यार की खुशबू से महक उठा था ।

फिरदोबारा से

धीरज झा

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Genome Informatics क्या है? एक्सपर्ट ने बताया यह हमारी हेल्थ को कैसे कर सकता है प्रभावित?

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जीन (Gene) और Genome (जीनोम) आपको सुनने में एक ही तरह के शब्द लगते हैं, लेकिन इनमें बहुत अंतर है. जहां जीन DNA का एक खंड है, वहीं जीनोम किसी जीव की संपूर्ण आनुवंशिक संरचना है. जीनोम के सीक्वेंसिंग के बाद उसके सारे डेटा का अध्ययन किया जाता है जिसे साइंस की भाषा में Genome Informatics कहते हैं.

हेल्थ एक्सपर्ट बताते हैं कि मानव स्वास्थ्य से जुड़े 30 प्रतिशत मामलों में आनुवंशिकता ज़िम्मेदार होती है, लेकिन बीमारियों की रोकथाम और मरीज़ों की देखभाल के लिए इसकी जानकरी का इस्तेमाल न के बराबर होता है.

ध्यान देने वाली बात यह कि हर व्यक्ति में 40-50 लाख जेनेटिक वैरिएंट होते हैं और हर वैरिएंट का हमारी हेल्थ से जुड़े लक्षणों पर अलग-अलग असर पड़ता है. जीनोम सीक्वेंस के डेटा का इस्तेमाल हेल्थकेयर के साथ-साथ एग्रीकल्चर के क्षेत्र में भी किया जा सकता है. हालांकि, इस डेटा को सही तरीके से पढ़ना, समझना, और इसका विश्लेषण करना अब भी एक चुनौती है. Genome Informatics कैसे हमारी हेल्थ और लाइफस्टाइल को प्रभावित करता है, इसे आसान भाषा में समझने के लिए हमने इसके एक्सपर्ट अमित सिन्हा से खास बातचीत की.

Genome Informatics से पहले जानते हैं अमित सिन्हा कौन हैं?

बिहार की राजधानी पटना से संबंध रखने वाले अमित सिन्हा ने अपनी शुरुआती पढ़ाई डॉन बॉस्को से की. IIT Guwahati से इंजीयरिंग करने के बाद वह पहले यूनिवर्सिटी ऑफ सिनसिनाटी में पढ़े और फिर Harvard Medical School से अपनी PhD पूरी की. अमित सिन्हा ने 2002 में आईआईटी बॉम्बे में इंटर्नशिप करते हुए अपने करियर की शुरुआत की. 2004 में इन्होंने सिनसिनाटी चिल्ड्रन हॉस्पिटल मेडिकल सेंटर में रिसर्च असिस्टेंट के रूप में अपनी सेवाएं दीं. अमित 2008 के दौरान Harvard Medical School में इंस्ट्रक्टर भी रहे. इस सफर के दौरान इनके दिमाग में एक आईडी ने जन्म लिया और इसको इन्होंने नाम दिया Basepair.

Basepair क्या है, Genome Informatics से इसका क्या कनेक्शन?

आसान भाषा में समझें तो Basepair एक प्लेटफॉर्म है, जिसकी मदद से जीनोम के सीक्वेंसिंग के बाद उसके डेटा का अध्ययन किया जाता है। यह Genome Informatics को आसान बनाने की दिशा में काम कर रहा है. Basepair की जरूरत क्यों पड़ीं? इस सवाल के जवाब में सिन्हा ने कहा, “जब मैं जीनोमिक्स में काम कर रहा था तब मैंने पाया कि पूरा डेटा जेनरेशन या एक्सपेरिमेंट तो फिजिशियन साइंटिस्ट या बायलॉजिस्ट करते हैं, लेकिन उनको प्रोग्रामिंग में अक्सर दिक्कत आती है. उनकी ट्रेनिंग में प्रोग्रामिंग, डाटा, एनालिसिस ये सब नहीं आता”

”परिणाम स्वरूप वे हमारे जैसे लोगों के साथ काम करते हैं. बिल्कुल वैसे ही जैसे कि वो कोई एक्सपेरिमेंट या किसी पेशेंट से डाटा कलेक्ट करते हैं, फिर हमें भेजते हैं. हम जितना समझ पाते हैं उस हिसाब से उसमें बदलाव करते हैं. फिर डेटा उनके पास जाता है और वे फिर दोबारा से किसी बदलाब के लिए हमारे पास भेजते हैं”

”ऐसी प्रक्रिया में बहुत समय लगता है. इसी को देखते हुए मुझे लगा कि एक ऐसा सिंपल सॉफ्टवेयर बनाया जाना चाहिए जो कॉम्प्लेक्स एनालिसिस को सिंपल कर दे. जिसको प्रोग्रामिंग या डाटा एनालिसिस नहीं आता वो भी ड्रैग एन ड्रॉप करके, पॉइंट इन क्लिक करके अपनी एनालिसिस कर पाए और सही रिजल्ट पा सके.”

Genome Informatics की मदद से क्या क्या बदलाव आए हैं?

Genome Informatics से आए बदलाव के बारे में बात करते हुए अमित बताते हैं कि मेडिकल की जो भी एस्पेक्ट है हर चीज डेटा ड्रिवन, एल्गोरिथमिविन ड्रिवन, मशीन लर्निंग ड्रिवन हो रही है. जैसे पहले कोई ऑर्थोपीडिक एक्सरे देखता था, तो एक्सरे निकलता था उसको लाइट में उठाकर देखता था कि कहां पर क्रैक है, वो चीज आज इमेज एनालिसिस से हो जाती है. आप एक्सरे की इमेज को अपलोड कीजिए, कंप्यूटर प्रोग्राम आपको बता देगा कि यहां पर ये क्रैक है, यहां पे डिफेक्ट है. कैंसर के लिए भी ऐसे ही काम होता है. पहले जो डॉक्टर था वो माइक्रोस्कोप में सेल्स को देखता है, उसका ग्रेडिंग करता था, फिर इलाज होता था. अब उसका डेटा एनालिसिस म्यूटेशन आ जाता है. इससे पता चल जाता है मरीज को जो म्यूटेशन है उसको उस हिसाब से दवा दी जाए.”

आइए अब एक्सपर्ट से Genome को आसान भाषा में समझते हैं

जीनोम को आसान भाषा में समझाते हुए अमित ने बताया कि, ”इंसान से लेकर बैक्टीरिया तक हर सजीव के अंदर DNA होता है, जो एक तरह से उसका सोर्स कोड होता है, उसका सेट ऑफ इंस्ट्रक्शन होता है, उसके हिसाब से वो चीज चलती है. बैक्टीरिया साइज में छोटा है. उसकी कॉम्प्लेक्सिटी कम है लेकिन उसके अंदर भी डीएनए में एक इंस्ट्रक्शन है. ह्यूमन बीइंग ज्यादा बड़ी चीज है, उसके अंदर भी इंस्ट्रक्शन है.”

” बीस साल पहले तक यूएस, जापान जैसे देशों के पास भी ये इंस्ट्रक्शन नहीं थी. फिर ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट शुरू हुआ, जहां पूरी दुनिया के साइंटिस्ट एक साथ आए और ये फैसला किया कि इतनी बड़ी समस्या के निवारण के लिए वे एक साथ काम करेंगे, इससे अकेले नहीं निपटा जा सकता. तब उन्होंने ऐसा प्रोजेक्ट शुरू किया जिसके लिए दुनिया भर के साइंटिस्ट ने अपना योगदान दिया.”

“आज उसी इंस्ट्रक्शन को एक टेक्नीशियन एक दिन में कर सकता है. बीस साल में इतनी तरक्की हुई है इस फील्ड में. तो आज हमारी इतनी कैपेबिलिटी हो गई है, चाहे वो यूएस हो, यूरोप हो, इंडिया हो, थाईलैंड हो, जापान हो हर जगह लोग इस अंदर के इंस्ट्रक्शन को पढ़ सकते हैं, इसी को जनॉमिक्स बोलते हैं.”

Genome Editing को भी समझ लीजिए काम आएगी

जिनोम एडिटिंग के बारे में जानकारी देते हुए अमित सिन्हा कहते हैं, “जेनॉमिक्स में पढ़ कर हम जब प्रॉबलम के बारे में बताते हैं तो निश्चित रूप से ये सवाल सामने आता है कि क्या इसमें बदलाव किए जा सकते हैं?”

”वैसे तो साइंटिस्ट काफी पहले से इसपर काम कर रहे थे मगर वो टेक्निकस उतनी असरदार नहीं थीं मगर एक नई टेक्नोलॉजी आई है जिसका नाम Crispr, जिससे चीजें काफी सिंपल और काफी फ्लैक्सेबल हो जाती हैं. दो चीज चाहिए, पहले तो हमें एक इंस्ट्रक्शन का कैटलॉग बनाना पड़ेगा क्योंकि हो सकता है हमें आज यह ना पता हो कि लंग्स कैंसर किस जेनेटिक इफेक्ट से हो रहा है या किसी को ब्लड प्रेशर है तो क्या डिफेक्ट है.”

”पहले तो हमें काफी रिसर्च करके, काफी जेनॉमिक सीक्वेंसिंग करके समझना पड़ेगा कि कौन सी डिजीज किस प्रॉब्लम से आती है. एक बार वो हमें पता चल गया फिर हमारे पास एक मौका है कि उसको हम जीनोम एडिटिंग या Crispr से इंस्टक्शन को चेंज कर सकें.”

जीनोम एडिटिंग में आने वाली दिक्कतों के बारे में बात करते हुए अमित ने कहा कि, “लेकिन इसमें कुछ एथिकल प्रॉब्लम्स भी आती हैं. जैसेकि किसी ने कहा मेरा बच्चा इंटेलिजेंट हो, उसकी आंखों का रंग नीला चाहिए, उसकी हाइट छः फिट होनी चाहिए. तो उससे कुछ नेगेटिव भी हो सकता है. जब हम जीनोम एडिटिंग की बात करते हैं तो इसमें एक एथिक्स भी आ जाती है.”

अमित सिन्हा के साथ हुई खास बातचीत का वीडियो यहां है:

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उस पार का प्रेम: धीरज झा की कलम से निकली एक दिलचस्प प्रेम कहानी

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“ऐ दाई, जल्दी उठ ना.” आखरी सांसें गिन रहा इंसान जिस तरह ज़िंदगी से लड़ने की नाकाम कोशिश करता है उसी तरह रह रह कर छोटी छोटी हिच्चकियां लेती हवा उस रात की उमस से लड़ने की पूरी कोशिश कर रही थी. सारी रात नींद को कुछ घड़ी पनाह देने की गुहार लगाने के बाद कहीं जा कर दुलारी की बूढ़ी आंखों ने एक छोटा सा कोना नींद को दिया था. डेढ़ घंटा भर ही हुआ था ‘दुलरिया’ की आंख लगे कि इतने में उसके बारह साल के पोते पदारथ ने आ कर कांपते हाथों और लड़खड़ाती ज़ुबान से दुलारी को जगाया था.

“फिर से बछिया खुल गई क्या? बाबू से कह के नहीं बंधवा सकता क्या जो मुझे जगाने चला आया ?” नींद से अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश करती हुई दुलारी ने अधजगी आवाज़ में सवाल किया. “मुनमुनिया” जो अभी कुछ ही महीने भर पहले उस बड़े कूबड़ वाली जर्सी गईया के कोख से होती हुई दुलारी के अंगना में आई है वो हद से ज़्यादा शरारती है, खुद से ही खूंटे से बंधी रस्सी छुड़ा लेती है और फिर जब तक दुलारी उसे पुचकारते हुए अपने पास नहीं बुलाती तब तक वो किसी के हाथ नहीं आती. अजब सा स्नेह है दोनों के बीच.

“अनर्थ हो गया दाई.” पदारथ ने अपने गमछे से अपनी चिहुंकी हुई आवाज़ को चीख बनने से रोकते हुए कहा.

“क्या हो गया, अब बताएगा भी. मेरा मन बईठा जा रहा है.” अपनी सिकुड़ चुकी सुती साड़ी का अंचरा जो उसके बेसुध सोने की वजह से आवारा घूम रहा था को उसने अपने कंधे पर टिकाटे हुए बड़ी बेचैनी के साथ पदारथ से पूछा

“धर्मेसर बाबा…..” इसके बाद पदारथ का गमझा भी उसकी सिसकियों को चीख़ बनने से ना रोक पाया.

“क्या हुआ धर्मेसर को ?” धर्मेसर बाबा के बारे में आधा अधूरा सुनते ही दुलरिया के दिल की गति जैसे कुछ देर के लिए थम सी गयी.

“वो नहीं रहे दाई. हमें छोड़ कर चले गये.” इसके बाद दुलरिया सुन्न थी और परमेसर उसके पैरों में पड़ा चिल्ला रहा था. दुलरिया ना कुछ बोल पा रही थी ना कुछ सुन पा रही थी. उसके आंसुओं से भरे नयनों के आगे बस धर्मेसर बाबा का चेहरा घूम रहा था.

सिर्फ पदारथ ही नहीं बल्की पूरा हसनपुर गांव ही इस खबर के सुनते ही शोक के सागर की सबसे गहरी सतह पर जा बैठा था. आज दिनकर भी इतने मायूस थे कि एक पहर दिन चढ़ जाने के बाद तक भी अपनी कुटिया से बाहर नहीं निकले थे. आसमान ने बहुत कोशिश की थी कि अपने दुःख को सामने ना लाए मगर रोकते रोकते एक झर बारिश के रूप में धर्मेसर बाबा को अंतिम विदाई दे ही दी थी.

आज हर आंख भीगी थी, आज गांव का हर चूल्हा ठंडा था. मगर दुलरिया का दुःख इन सबसे कहीं ज़्यादा गहरा था. उसका रोम रोम धर्मेसर को नमन कर रहा था. धर्मेसर बाबा जो अपनी उदारता और हर किसी की मदद के लिए हर वक्त तैयार रहता था, जो गांव वालों के लिए किसी ईश्वर से कम नहीं था वो दुलरिया के लिए क्या मायने रखता था इस बात को तीन लोग ही जानते थे एक दुलरिया खुद दूसरा धर्मेसर जो तब बाबा नहीं था और तीसरा वो चांद जो उस रात बेहद उदास हो गया था. बादलों के बीच उसने ऐसा मुंह छुपा कर रोया कि तीन रातों तक बारिश ने एक पल के लिए भी नहीं रुकी.

गांव की चिंताओं का बोझ उठाने के कारण कमर से आगे की तरफ झुका हुआ उनका कांटी शरीर जो एक ज़माने में कसरती और सुडौल था जो एक झलक से ही किसी की नज़र में चढ़ जाता था.  दाढ़ी से ढके उनके नूरानी चेहरे को सिर्फ उन्होंने ही देखा था जो धर्मेसर नारायण को धर्मेसर बाबा बनने से पहले जानते थे. गांव का हर छोटा बड़ा झगड़ा थाने कि बजाय धर्मेसर नारायण के न्यायालय में सुलझाया जाता था. मगर जब धर्मेसर को न्याय चाहिए था तब ईश्वर तक ने उसकी नहीं सुनी.

पांच सौ बिघा ज़मीन और लाखों की दौलत का अकेला वारिस था धर्मेसर नारायण. हर किसी की मदद के लिए हमेशा तैयार रहता था. बड़ी साफ़ नीयत और नज़र का स्वामी था ये लड़का. इतनी संपत्ति के बाद भी घमन्ड छू कर भी नहीं गुज़रा था इसे. कड़क स्वभाव के साथ साथ सिर्फ अपने काम से मतलब रखने की आदत धर्मरेसर को हमेशा से थी. कड़क स्वभाव था उसका मगर प्रेम का क्या है इसका बीज तो किसी बेरुखे दिल की सूखी बंजर ज़मीं पर भी पनप सकता है.

दुलरिया जो उनके जन (नौकर) संभू की इकलौती बेटी थी, को धर्मेसर बचपन से देखता आ रहा था. दुलरिया के बचपन से जवानी तक आए हर छोटे बड़े बदलाव को धर्मेसर ने इतनी ग़ौर से ध्यान में रखा था कि जितना उसके माता पिता ने भी नहीं रखा होगा. मन ही मन दुलरिया को पूजा करता था धर्मेसर मगर प्रेम में अंधा हो कर मर्यादा नहीं भूलना चाहता था वो इसीलिए आज तक उसने सबको अपने इस प्रेम के फूल की खुशबू तक से दूर रखा था. मगर अब बर्दाश्त की हद थी. जवानी का जोश था और प्रेम के साथ साथ इरादा भी सच्चा और पक्का था. दुर्गा पूजा के मेले में धर्मेसर ने दुलरिया की बांह पकड़ कर उसे पूजा के पंडाल के पीछे खींच लिया था.

“ई का कर रहे हैं धर्मेसर बाबू ?” घबराई हुई दुलरिया ने हाथ छुड़ाने की कोशिश करते हुए कहा.

“डरो नहीं दुलारी, दुर्गा मईया की पीठ पीछे खड़े हैं. मन में बुरा इरादा तो दूर अगर बुरी सोच भी हो तो मईया हमारे प्राण ले लें. बस कुछ बातें हैं ऊ सुन लो फिर चली जाना. और अगर नहीं सुनने का मन तो अभिए चली जाओ.” इतना कह कर धर्मेसर ने दुलरिया का हाथ छोड़ दिया. उसका मन यह सोच कर डर भी रहा था कि कहीं दुलरिया सच में चली ना जाए और बाहर जा कर बिना उसका मकसद जाने उसे बदनाम ना कर दे. मगर जब उसके हाथ छुड़ाने के बाद भी दुलरिया अपनी बड़ी आंखों को पलकों के नीचे छुपाए हुए सर झुका कर खड़ी रही तो धर्मेसर समझ गया कि वो अब उसकी बात सुनने को तैयार है.

“दुलारी, हमको गलत मत समझना. हमारा तरीका भले गलत था मगर हमारे मन में कोई पाप नहीं. बस हमको कोई उपाये नहीं सूझा तुमसे अकेले में मिलने का तो ये हरकत करनी पड़ी. दुलारी हम तुमको तब से चाहते हैं जब तुम रोते रोते अपनी आंखों के साथ साथ नाक भी बहा लेती थी. बचपन से आज तक हमने अपने उस दिन को अधूरा माना जिस दिन मुझे तुम नहीं दिखी. मगर हम हमेशा डरते रहे, कभी कह नहीं पाए यह सोच कर कि कहीं तुम गलत ना समझो. हम सबको मना लेंगे बस तुम हमारे प्रेम को स्वीकार कर लो. हम तुम्हारे सिवा किसी और के बारे में सोच तक नहीं सकता.” दुलरिया के मन रूपी समंदर में दुविधाओं का ऐसा तूफान उमड़ रहा था कि जिसने उसके दिमाग के हर उस कोने को जाम कर दिया जहां जहां से सोचा जाता होगा.

कुछ देर मौन रहने के बाद दुलरिया ने कुछ सोच कर मौन तोड़ा “आपका प्रेम मिलना बड़े सौभाग्य की बात है धर्मेसर बाबू. मगर नियती हमारे और आपके मान लेने से नहीं चलती. आपने बहुत देर कर दी धर्मेसर बाबू. मेरे पिता ने मेरा बियाह तय कर दिया है. मैं चाह कर भी कुछो नहीं कर सकती. आपकी भी मैंने हमेशा पूजा की है मगर साथ साथ मन को ये भी समझाया कि फूस के घर में ज़मीन पर बिछी चादर महलों के सेज की शोभा नहीं हो सकती. आप अमीर हैं, प्रेम आपके लिए शौक भी हो सकता है. भला आपके शौक के लिए मैं अपनी और अपने बाप की इज्ज़त को कैसे दांव पर लगा देती. आपको मैंने भगवान मान लिया और साथ में ये भी मान लिया था कि भगवान आलीशान मंदिरों में ही विराजमान रहें तो शोभनीय लगते हैं. मैं गरीब तो बस आपको अपने दिल में ही स्थापित कर सकती हूं, अपनी मड़ई में नहीं.” बचपन से गरीबी को झेलते झेलते दुलरिया के मन में यह बैठ गया था कि अमीर और ग़रीब दो अलग अलग दुनिया के लोग हैं जो कभी एक नहीं हो सकते. अमीर कभी ग़रीब की भूख और ज़रूरत को नहीं समझ सकता. बस इसी सोच में दुलरिया ये सब बोल गयी.

“नहीं नहीं दुलारी ऐसा ना कहो. पैसा मेरे लिए कुछ भी नहीं है. मुझे बस तुम्हारा साथ चाहिए.”

“धर्मेसर बाबू, भरा हुआ पेट बहुत ज्ञानी होता.है और भूखे पेट को बस भोजन दिखता है. आपका पेट भरा है आप अमीर हैं इसीलिए आपके लिए कहना आसान है कि पैसा आपके लिए कुछ भी नहीं. मैं आपकी जिद बन चुकी हूं. कल को मुझे पा लेने के बाद जब ये जिद खत्म होगी तो फिर दौलत का नशा बोलेगा. अगर आपके लिए दौलत कुछ ना होती तो गांव में कोई ग़रीब ना होता.” धर्मेसर के कोमल मन पर दुलरिया का एक एक शब्द हथौड़े की चोट सा महसूस हो रहा था.

धर्मेसर मौन सा खड़ा रहा. दुलरिया आंखों में आंसू जो ना जाने किस भाव से निकले थे, लिए चली गई. धर्मेसर ने उस दिन मन ही मन यह संकल्प ले लिया कि उसकी ज़िंदगी का बस एक ही लक्ष्य है और वो है जब तक आखरी सांस बाकी रहे तब तक इस गांव के लोगों का हर दुःख दूर करते रहना. उस दिन धर्मेसर का मन इतना रोया कि जैसे उसने सारे गांव के आंसू सोख लिए हों. उस दिन के बाद गांव में कोई न रोया.

महीने बाद दुलरिया की शादी हो गयी जिसका सारा खर्च धर्मेसर ने उठाया. कुछ सालों में पिता जी के देहांत के बाद धर्मेसर पर घर बसाने का दबाव बनाने वाला कोई ना बचा. बस फिर क्या था धर्मेसर से धर्मेसर बाबू और धर्मेसर बाबू से धर्मेसर बाबा बनने के बीच ही समय ऐसा गुज़रा कि पता भी नहीं चला वो कभी अकेले भी थे. सारा दिन गांव वालों का जमघट और रात को बाबा के पैर दबाने के बदले किस्से कहानियां सुनने वाले लड़कों की कमीं उन्हें कभी नहीं रही.

दुलरिया का पति उसके बियाह के तीन साल बाद ही गुज़र गया. इधर उसका पिता भी गुज़र गया था. ससुराल वाले रखने को तैयार ना थे. धर्मेसर ने अपनी ज़मीन दे कर उसे बसाया और पेट पालने को चार गायें खरीद दीं जिनके दूध के सहारे दुलरिया की ज़िंदगी चलने लगी. ऐसी ना जाने कितनी दुलरिया और उनके बाप भाईयों को धर्मेसर बाबा के सहारे ने नई ज़िंदगी दी थी. लोगों की मदद में संपत्ति जाती रही मगर दुआएं और कंधे जुटते रहे, जो धर्मेसर बाबा को सहारा देने के लिए हमेशा खड़े रहते.

आज दुलरिया सहित पूरा गांव मानो एक साथ अनाथ गया था. हर किसी की आंख लगातार बरस रही थी. आज उनका रहनुमा चला गया था. जब उन्होंने प्राण त्यागे तब कलुआ हजाम उनके पैर दबा रहा था. कुछ बातें करते करते उन्होंने अचानक कलुआ से कहा था कि “कलुआ तेरी बेटी की शादी है ना दो महीने बाद. हमारे पास ये हवेली ही बची है जिसे हमने तेरे और बाकी कुछ उन लोगों के नाम कर दिया है, जिनकी हाल की ज़रूरतें बड़ी हैं. कलुआ हम तुम सबके लिए बस इतना ही कर पाए रे. सबसे कहना कुछ कमी रह गयी हो तो हमको माफ कर दें.” कलुआ ने जब थोड़ा हक़ से डांट कर कहा कि “बाबा ऐसा ना बोलिए आप बस साथ रहिए सब हो जाएगा.” इसके बाद वो चुपचाप लेट गये और फिर दोबारा नहीं बोले.

धर्मेसर बाबा के शरीर को अग्नि में समर्पित करने के बाद भी सभी इस आस में वहीं बैठे रहे कि कहीं बाबा जाते जाते दर्शन दे जाएं. इधर दुलरिया घर आगई थी उसे अपनी वो सभी बातें याद आने लगीं जो उस रात उसने धर्मेसर बाबा से कहीं थीं. फिर अचानक से दुलरिया को ऐसा महसूस हुआ कि उसकी बूढ़ी देह में बहुत फूर्ती आगई है और वो उठ खड़ी हुई. वो अचानक से मुस्कुरते हुए दरवाज़े की तरफ बढ़ने लगी जहां से वही पूनम का चांद झांक रहा था जो उस दिन धर्मेसर बाबा के त्याग का गवाह बना था.

इधर दुलरिया का पोता पासपत दुलरिया के कमरे की तरफ भागा आरहा है और मुस्कुरा कर आगे बढ़ दुलरिया के बीचों बीच से सामने पड़ी दुलरिया की बेजान देह को दो तीन बार “ऐ दाई, ऐ दाई कह कर उठाने की कोशिश करता है मगर दुलरिया की देह एक तरफ निष्प्राण हो कर गिर पड़ती है. पासपत चिल्लाता है. आस पास के सभी लोग जुट जाते हैं. दिन से रात के बीच लोगों की दोबारा रोने की आवाज़ें गूंजती हैं.

इधर दुलरिया मुस्कुराते हुए धर्मेसर की तरफ़ बढ़ती है और धर्मेसर बांहें  फैला कर कहता कहता है “देख दुलारी हमने गरीबी अमीरी की रेखा को लांघ लिया, अब तो तू हमारा प्रेम स्वीकारेगी ना ?”

दुलरिया बिना कुछ बोले मुस्कुराते हुए धर्मेसर की बांहों में खुद को समर्पित कर देती है. ऊपर पूनम का चांद  जो आज तक उदास सा था, आज खुल कर मुस्कुरा रहा होता है.

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एक दिन की ‘आज़ादी’: धीरज झा की कलम से निकली दिल को छू लेने वाली कहानी

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शहर भर के सभी बाजार दुल्हन की तरह सजे हुए थे. लोगों की भीड़ ने बाजार में खड़े होने जितनी जगह नहीं छोड़ी थी. रंगबिरंगे लिबास में मुस्कुराते चेहरों ने ये ऐलान कर दिया था की कल भाई बहन रक्षाबंधन मना कर श्रावण को विदाई देंगे.

मेन सड़क पर पुराने ट्रांसफार्मर से अन्दर की तरफ मुड़ने पर शुरू होने वाले गोले बाजार की भीड़ के तो क्या ही कहने, यहां लोग चलते नहीं रेंगते हैं. आज तो ऐसा लग रहा था की जैसे आसमान के सारे सितारे तोड़ कर दुकानदारों ने अपनी दुकानों पर सजा लिए हों. लेकिन ये त्योहारों में सजने वाले सभी बाजार खुद को कितना भी सजा लें शहर के उस बाजार से कम ही लगेंगे जहां सिसकियां बिका करती हैं.

ये गोला बाजार से कुछ ही दूर तो है. मगर जितना सजीला है ये बाजार उतना ही बदनाम भी. इसकी बदनामी का ये आलम है कि कोई सफेदपोश इंसान ‘दिन’ में इधर से गुजरना तक पसंद नहीं करता. पर इस बदनामी से फर्क किस कमबख्त को पड़ता है. बाजार हमेशा लहलहाता रहता है.

इसे शहर समाज के त्योहारों से कुछ लेना देना नहीं है, यहां हर रोज उत्सव होता है. जिन्दा लाशों को यहां मुस्कुराहटों के जामे पहनाए गए हैं. हर मन दुखी है लेकिन मुस्कुराहटें किसी के चेहरे की कम नहीं, जो जितना व्यथित है वो उतना मुस्कुरा रहा है. मुस्कुराने के सिवा और चारा भी क्या है इनके पास. ये वो बाजार है जहां आने के बाद बाहरी दुनिया को जाने वाला हर रास्ता अपने आप बंद हो जाता है.

जो यहां की जान हैं असल में वही सब बेजान हैं. वो तो लिपस्टिक सुर्खी और सस्ते क्रीम पाउडर की मेहरबानी है जो ये जिन्दा दिख रही हैं वरना इनकी जानें तो तभी सोख ली गयी थीं जब इन्हें यहां लाया गया था. कभी जो कलियां थीं आज कागज के बनावटी फूल बन गई हैं, जिन्हें बस शोभा के लिए इस्तेमाल किया जाता है. न कोमलता है, न वो खुशबू, है तो बस क्षणिक सुन्दरता, जिसे शोभा के लिए सजाया जाता है फिर नोच कर फेंक दिया जाता है.

यहां हर कागजी फूल ग्राहकों को अपनी बनावटी सुन्दरता की तरफ आकर्षित कर रहा था. सभी चेहरे मुस्कुरा रहे थे. कुछ अपनी भूख मिटने की खुशी में मुस्कुरा रहे थे, कुछ रोमांचित होने के कारण हंस रहे थे और बाकी बचे चेहरों का तो काम ही मुस्कुराना था. लेकिन इन्हीं चेहरों में एक चेहरा बड़ा चिंतित था. उसके माथे पर इधर से उधर नाच रही पसीने की बूंदें उसके विचलित मन का हाल बयां कर रही थीं. चकरघिन्नी की तरह घूमती उसकी आंखों की पुतलियां बता रही थीं कि उसे किसी की तलाश है. इस हुस्न के बाजार में एक से एक हसीन चेहरे उसे आवाज दे कर अपनी तरफ बुला रहे थे मगर उसे तो बस उसी चेहरे की तलाश थी जिसके पास वो कल ही कुछ घंटे बिता कर गया था.

उसके कपड़े मैले कुचैले से थे, लग रहा था जैसे किसी काम में लगा हो और अचानक से कुछ याद आते ही वो इस हालत में इधर दौड़ा चला आया हो. ये भी कैसी जिस्मानी भूख है जिसने उसे नहाने और कपड़े बदलने तक का समय नहीं दिया! खैर ये उसकी अपनी सोच और पसंद है, वैसे भी यहां हर किसी को सिर्फ अपने दाम से मतलब है. उसकी घूमती हुई पुतलियों ने आखिर उस चेहरे को ढूंढ ही लिया. वही है, हां वही तो है, उसके दाहिने आंख के पास एक निशान है, शायद कट गया था कभी जिसका घाव भर गया मगर निशान नहीं, हां यही है.

“सुनिए?” उसने उस चेहरे के करीब जा कर थोड़ी जोर से कहा, जोर से बोलने का कारण था वहां का शोर.

“सुनाइए साहब.” उसने बिना पीछे मुड़े ही अनोखी अदा में कहा.

“हम कल आए थे आपके पास.”

“कल तो बीत गया, आज हमारे पास आए हैं तो हम कुछ दाम की अरे माफ़ करिए काम की बात करें.”

“आपने हमको पहचाना नहीं?” उस घबराए इंसान ने सामने वाली बेपरवाह लड़की को कुछ याद कराने की कोशिश की.

“अरे साहब हमारे पास तो दिन भर में कई प्यासे आते हैं, ये बेचारा कुआं किस किस का चेहरा याद रखे.” उसकी इस बात पर एक साथ कितने ठहाके गूंजे.

“हम वही हैं जो कल यूं ही चले गए थे.”

“यूं ही चले गए थे? जनाब हमारे यहां से तो पत्थर भी पानी पानी हो कर जाते हैं और आप कह रहे हैं कि यूं ही चले गए थे.” इस बार लड़की ने शरारती आंखों के साथ मजाक किया. किसी का मजाक उड़ता देख आस पास भीड़ तमाशे का मुफ्त में आनंद लेने के लिए इकट्ठी हो गयी.

“यूं का मतलब…खैर ये सब जाने दीजिए आप बस हमारा ऊ लिफाफा दे दीजिए जो कल आपके यहां रह गया था.” लड़के की बेचैनी बढती जा रही थी.

“हद करते हैं साहब, लोग हमें दिलों की चोरनी कहते हैं और आप हैं की लिफाफा चुराने का इल्जाम लगा रहे हैं.”

“नहीं नहीं हम इल्जाम नहीं लगा रहे, हम तो बस इतना कह रहे…” लड़का अपनी बात पूरी करता इससे पहले ही किसी के मजबूत पंजें ने उसकी गर्दन पर मजबूत पकड़ बना ली. लड़का अपनी गर्दन छुड़ाने का प्रयास करता उससे पहले ही घर्राई हुई एक आवाज गूंजी जिसने माहौल में गूंज रहे सभी ठहाकों का मुंह बंद कर दिया.

“ऐ नगमा तुम्हें कोई काम नहीं क्या. आज क्यों बाजार मंदा करने पर लगी हो. कौन हैं ये बाबू साहेब.” ये घर्राई हुई आवाज एक साठ-पैंसठ वर्षीय महिला की थी, जिसके चेहरे की झुर्रियों ने अपने भीतर क्रूर अनुभवों को समेट रखा था. बीड़ी के धुएं के कारण उसके मुंह के अन्दर घुट रही पान की पीक ने होंठों के किनारों को खोद कर चुपके से बाहर निकलने की कोशिश तो की थी मगर गालों पर सूख कर रह गई. उसके दाएं गाल और बाजू पर छपा सिरहाने के प्रिंट का छाप ये बता रहा था वो गहरी नींद में सोई थी और इस शोर ने उसकी नींद में खलल डाला है.    

“हमको क्या पता जिज्जी, ये साहब पता नहीं हमसे क्या क्या पूछे जा रहे हैं. हम तो बस समझा रहे थे.” नगमा ने भोला सा मुंह बना कर कहा.

“सुनो तुमको बस इतना समझना है कि कैसे तुम्हारा ग्राहक बढ़ेगा बाकी कुछ समझने बुझने की जरूरत नहीं है. और इस लौंडे से पूछ लो कोई पसंद हो तो खोली में घुस जाए और नहीं हो तो तित्तर हो जाए यहां से. नहीं तो ऐसा चिकेन फ्राई बनेगा कि जब जब घुसलखाने में घुसेगा तब तब बांग देने लगेगा.” वो अधेड़ औरत जिसे नगमा ने जिज्जी कहा था अपना फरमान सुना कर जाने के लिए पल्टी.

“ऐ चाची, हमारा लिफाफा दिलवा दीजिए हम चले जाते हैं.” अभी भी लड़के की गर्दन मजबूत पंजों में जकड़ी हुई थी, लेकिन वो लिफाफे को नहीं भूला था.

“ऐ पहलवान इनको इनका लिफाफा दे दो तो जरा. अच्छे से देना कोई कोई कमी न रहे.” बिना लड़के की तरफ देखे जिज्जी ने उस शख्स को आदेश दिया जिसके मजबूत हाथों में उस लड़के का सर जकड़ रखा था.

उस अधेड़ औरत की बात से लड़के के चेहरे की चिंता ने थोड़ी चैन की सांस ली लेकिन नगमा की चिंता अचानक से बढ़ गई क्योंकि वो जिज्जी का इशारा समझ रही थी. उसे पता था कि अगर वो पहलवान के साथ गया तो फिर चल के घर जा नहीं पाएगा.

“अरे जिज्जी छोड़ो न, आप भी क्या छोटी छोटी बातों के लिए…” उस अधेड़ उम्र की औरत ने पलट कर घूरा और इसी के साथ नगमा की बात बीच में ही रह गई.

“ठीक है तो हम कुछ बोलेंगे ही नहीं अभी से, जा रहे हैं सोने हमको बुखार है.” इतना कह कर नगमा अपने कमरे की और जाने को हुई.

वो औरत जानती थी नगमा के रूठने का मतलब है बाजार की आधी रौनक का रूठ जाना. स्वाभाव से चंडालिन इस औरत की बात काटने या इसके सामने नखरे दिखाने की हिम्मत सिर्फ नगमा के पास थी. हो भी कैसे न, बनाने वाले ने उसे रूप ही इतना गजब का दिया था. जो उसके पास से हो कर जाता वो लौट कर जरूर आता. नगमा असल में एक बुरी लत का नाम थी. सात साल हो चले थे उसे इस बाजार का हुए लेकिन आज भी वो वैसी ही थी जैसे उसका कोई अपना उसे यहां छोड़ कर गया था. जिज्जी कई बार दूसरों के सामने उसकी तारीफ करते हुए कह चुकी थी “करम फूटे थे इसके और जागे थे हमारे जो यहां पहुंच गयी. बंबई भेज दो तो आज की सभी हीरोइनों को बेरोजगार कर दे ई लौंडिया.”

ऐसे में उस औरत को डर रहता था कि कहीं वो रूठ गयी तो उसका धंधा मंदा पड़ जाएगा. इसलिए वो उसकी हर जिद्द के आगे झुक जाया करती थी. आज भी झुक गयी वो और बिना पीछे मुड़े, आगे बढ़ते हुए कहा “छोड़ दे इसको.”

पहलवान ने अपने पंजों से उस लड़के की गर्दन को आजाद कर दिया और उसे घूरता हुआ अपनी मालकिन के पीछे चल दिया. गर्दन में असहनीय पीड़ा के बाद भी लड़का लिफाफे को नहीं भूला था. उसने मकसूद के पंजों से छूटते ही नगमा से फिर गुहार लगानी शुरू कर दी “मेरा लिफाफा दे दीजिए मैं चला जाऊंगा, फिर कभी लौट कर नहीं आऊंगा.”

“क्या बाबू अभी अभी मरने से बचे हो, तुम मकसूद को नहीं जानते. उसके हाथ की मार खाने वाला इंसान अपना नाम तक भूल जाता है. अपनी जान बचने का शुकर मानाने की बजाए तुम फिर से लिफाफे की रट लगाए हो.” नगमा ने अपने कमरे की तरफ कदम बढ़ाते हुए इठला कर कहा.

वैसे तो इस नरक की सुंदरी को देख कर एक बार इसका रचयिता भी इसे खुद से दूर कर के कई दिनों तक विरह की आग में जला होगा. मगर ये लड़का था, जिसके ऊपर उसके खोये लिफाफे का ऐसा नशा चढ़ा था कि इसके आगे इस रूपसी के रूप का कोई जादू काम नहीं कर रहा था.

“वो लिफाफा हमारे लिए बहुत जरुरी है. नहीं मिला तो हम ग्लानि से मर जाएंगे.” लड़के ने सारी शर्म छोड़ कर घुटनों पर आ कर गिड़गिड़ाते हुए कहा.

“ऐसा क्या है भला उसमें जो आपको जान तक की परवाह नहीं.”

“उसमें जो है वो भले ही किसी के लिए वो कुछ भी न हो मगर हमारे लिए कीमती है.”

“राखी कहने में इतना हिचकिचा क्यों रहे हैं आप ?” नगमा जहरीली हंसी के साथ उस लड़के की तरफ ये सवाल उछालते हुए अपने कमरे में प्रवेश कर गई.

“इसका मतलब वो लिफाफा आपही के पास है. मुझे वो लिफाफा दे दीजिए. हम भीख मांगते हैं आपसे.” लिफाफे का जिक्र सुन कर लड़का तेजी से नगमा के पीछे उसके कमरे में जा घुसा.

“लिफाफा तो हम आपको दे ही देंगे लेकिन ये बताइए कि अगर अपनी बहन के बारे में इतना सोचते हैं आप फिर इस गंदी जगह पर क्यों आते हैं और आते भी हैं तो बहन की सबसे पवित्र निशानी ले कर क्यों? अरे हम तो भूल ही गए आप भाई लोग भी तो मर्द होते हो और मर्दों का तो काम ही है…” लड़के बीच में से ही बात काट दी.

“आप गलत समझ रही हैं.”

“14 साल के थे, तब से समझते आ रहे हैं, अब अच्छे से जानते हैं सही और गलत का फर्क.”

“फिर भी आप गलत समझ रही हैं. हम जान बूझकर नहीं आए थे यहां. तीन साल से हैं इस सहर में लेकिन हमको इस जगह के बारे में पता भी न था. ये सब छोड़िए आप बस हमारा लिफाफा दे दीजिए.”

“छोड़िए” हां छोड़ना ही तो आता है तुम मर्दों को. बस छोड़ दो. जहां अपना मतलब निकले बस वहीं छोड़ दो. मेरा वो बाप जिसे हमसे ज्यादा दारू प्यारी थी वो भी हमारे हाल पर हमें छोड़ गया. वो हमारा चचेरा भाई जो कुछ रुपयों के लिए हमें इस नर्क में छोड़ गया. वो ग्राहक जो हर रोज हमें यहां से ले जाने के सपने दिखा कर हमारे जिस्म के साथ साथ हमारा प्यार भी लूटता रहा, मन भर जाने पर वो भी छोड़ गया. तुम सबको बस छोड़ देना आता है.” नगमा आज से पहले इतना टूट कर कभी नहीं रोई थी. ऐसा लग रहा था जैसे उसके अंदर दबा गुबार आज धीरे धीरे बाहर निकलने को मचल रहा हो. हालांकि वो लड़का समझ नहीं पा रहा था कि नगमा इतना क्यों भड़क रही है फिर भी पता नहीं क्यों ये बातें सुन कर उसके मन में नगमा प्रति सहानुभूति उठने लगी थी.

“हम आपके जज्बातों को अच्छे से समझ रहे हैं लेकिन क्या है न नगमा जी ऐसा नहीं कि जितने लोगों को हमने जाना समझा बस दुनिया उतनी सी ही है. माना कि बुरे लोगों की संख्या ज्यादा है मगर ऐसा नहीं कि सब बुरे ही हैं. हम खुद को अच्छा नहीं कहते लेकिन कम से कम इतने गिरे तो नहीं हैं. उस दिन हमारा एक दोस्त हमको यहां ले आया था. इस उम्र में भला कौन नहीं ये सब पसंद करता. हर इंसान यहां जानवर है, सबके अंदर वासना है लेकिन जो अपनी वासना को जितना दबा लेता है वो अच्छा कहलाता है. अगर ये इस तरह की इच्छा लोगों के अंदर से मर जाए तो ये दुनिया रहेगी ही कहां. हमने कभी किसी लड़की पर बुरा नजर नहीं रखा. लेकिन हम मानते हैं कि जब हमारा दोस्त हमको यहां लाया तो हम मना नहीं कर पाए. ऐसे तो हम सो गए थे, हमने कुछ नहीं किया लेकिन कर भी लेते तो क्या था! यहां तो जो होता है सबकी मर्जी से होता है.” लड़का जैसे अपने अंदर की सारी भड़ास निकाल देना चाहता था! वो बोलते जा रहा था और नगमा आँखों में अथाह दर्द लिए उसे देखे जा रही थी.

“सही कह रहे हैं आप, यहां सब कुछ तो हमारी मर्जी से होता है. आप जैसे लोग नहीं आएंगे तो भला हमारा पेट कैसे भरेगा. लेकिन एक बात कह कर छोटी सी गुस्ताखी करना चाहूंगी. वो लड़की जिसे आप अपनी बहन बता रहे हैं उससे अलग नहीं है हमारा जिस्म, हम सब उसके जैसी ही हैं. यहां जितनी भी लड़कियां आपको दिखती हैं वो सब किसी न किसी की बहनें ही हैं, मगर यहां लाई भी वो अपने ही सगे सम्बन्धियों द्वारा हैं. ऐसा नहीं कि हमारा जिस्म पत्थर का हो चुका है, हमें पीड़ा महसूस नहीं होती. हम तो बस हार चुकी हैं, इसलिए बस चुप चाप सब सहती हैं. यहां बहुत कीमती है हमारा वक़्त, ये भूखे भेड़िये हमारे इस वक़्त को मुंहमांगी रकम दे कर खरीदते हैं लेकिन फिर भी आपको समझा रहे हैं हम, जानते हैं क्यों ? क्योंकि हम जबसे यहां हैं तब से देखा है कि लोगों के हजारों से भरे बटुए छूट जाते हैं यहां मगर कोई वापस नहीं आता. उन्हें पता है कि यहां से पैसे मिलेंगे नहीं और बदनामी होगी वो अलग से. आप पहले हैं जो वापस आये और बस इसलिए कि आपकी बहन की राखी यहां छूट गई थी. आप इस भीड़ से अलग लगे. लगा कि आप अपनी बहन की फिक्र करते हैं तो बाकी औरतों की तकलीफ भी आपको महसूस होती होगी. उस रात आप नशे में थे, कुछ किए बिना चुप चाप एक मासूम बच्चे की तरह सो गए. आपको देख कर लगा था कि दूसरों से अलग हैं आप और अब जब अपनी बहन की राखी के लिए वापस आये तो यकीन हो चला था मगर आपकी ये बात सुन कर……खैर ये बेतुकी बातें हैं, न जाने आपसे क्यों कह रहे हैं. ये लीजिये आपका लिफाफा. और सुनिए दोबारा कभी यहां आएं तो हमें मत खोजिएगा. मर्दों से तो हमें पहले ही बहुत नफरत है लेकिन आप से घिन सी आने लगी है.” इतना कह कर नगमा ने उस लड़के के हाथों में उसका लिफाफा थमा दिया और उठा कर अपने कमरे से बाहर चली गई. नगमा तो चली गई मगर उसकी आंख से आजाद हुआ एक आंसू लड़के की हथेली पर सिमट गया. कुछ देर अपनी हथेली पर नज़र टिकाए वो लड़का देखता रहा और फिर भारी मन के साथ वहां से चला गया.

उस दिन से सात दिन बाद

राखी बीत गई, शहर के अन्य बाजारों की भीड़ कम हो गई थी लेकिन इस बाजार की रौनक कभी बूढी नहीं होती. “ऐ नगमा.” बाहर से जिज्जी की कड़कती आवाज ने नगमा का ‘अभी तो रात ही है’ का भ्रम तोड़ दिया.

“ऊं” अपने एक आंख को जबरदस्ती खोलते हुए नगमा ने मुंह से अजीब सी आवाज निकली जिसका मतलब शायद यही था कि ‘हां, भौंको.”

“जल्दी से तैयार हो जा. एक सेठ फोन किया था, लेने आ रहा तेरे को.”

“जिज्जी आप जानती हैं मैं बाहर नहीं जाती, वैसे भी दिन मेरा अपना होता है.” नगमा ने लेटे लेटे कहा.

“इस बाजार में किसी का कुछ भी अपना नहीं. और पहले नहीं जाती होगी मगर आज जाना पड़ेगा. कोई बड़ी पार्टी लगती है. दिन भर के पूरे 10 हजार दिए हैं.” जिज्जी ने अपना फरमान सुनाया.

“किसी और को भेज दो.”

“तेरे को पता है कि मैं तेरे पास तभी आती हूं जब कुछ खास हो. मैंने किसी और के लिए कहा था मगर कोई तगड़ा आशिक लगता है तेरा, बोला नगमा ही चाहिए. बोला है एक घंटे में लेने आएगा. चल अब तैयार हो जा.” इतना कह कर जिज्जी चली गई. इधर नगमा ने जिज्जी को मन में तरह तरह की गालियां सुनाते हुए बिस्तर छोड़ा. उसे गुस्सा भी आ रहा था इसी के साथ दिमाग में ये सोच भी चल रही थी कि आखिर वो कौन होगा जिसे बस मेरी ही चाहत है.

इस बाजार से बाहर जाने का सोच कर ही नगमा का मन घबराने लगता था. कभी जिस बाहरी दुनिया के लिए वो तरसती थी आज वही दुनिया उसको डरा रही थी. उसे लगता था जैसे उसके अंदर इस बाजार की बू बस गई है जिसकी भनक लगते ही लोग उसको अपनी नजरों से ऐसे घायल करेंगे जैसे पत्थर चला कर मार रहे हों. इसी भ्रम में उसने आज साबुन की पूरी टिकिया अपने बदन पर घिस दी थी. ये वो नगमा नहीं थी जो यहां रहती है ये वो थी जिसे 7 साल पहले यहां ला कर पटक दिया गया था.

नगमा तैयार हो कर अपनी खोली में बैठी अपने आज के खरीददार का इंतजार कर रही थी. इतने में जिज्जी ने बताया कि वो नीचे उसका इंतजार कर रहा है. नगमा डगमगाते हुए क़दमों के साथ बाहर की तरफ बढ़ी. सड़क पर आ कर देखा तो कोई गाड़ी नजर नहीं आ रही थी. वही आने जाने वाले ऑटो रिक्शा और पैदल लोग थे वहां.

“अरे इधर उधर कहां देख रही हैं, हम यहां हैं.” ये आवाज कुछ सुनी सी लगी नगमा को उसने पीछे मुड़ कर देखा तो वही लिफाफे वाला लड़का एक ऑटो में पीछे बैठा हुआ था.

“आप क्या कर रहे हैं यहां. आपको कहा था न मेरे आसपास भी नहीं दिखिएगा.” नगमा की त्योरियां चढ़ गईं.

“अरे अरे, गुस्सा क्यों हो रही हैं. मैंने ही आपको बुलाया है.”

“मुझे लगा था उस दिन के बाद आपको कुछ शर्म आएगी मगर आप तो एकदम बेशर्म हो गए. खैर मुझे आपकी शर्म और हया से क्या वास्ता, हम लोग तो खुद बेहयाई के बाजार की रौनक हैं. चलिए कहां चलना है.” लड़का नगमा के इस कटाक्ष पर कुछ नहीं बोला. उसके बैठते ही ऑटो चल पड़ा, शायद ऑटो वाले को पहले ही निर्देश मिल चुका था कि उसे जाना कहां है.

ऑटो में दोनों खामोश बैठे रहे, शहर के बड़े बाजारों और छोटी तंग गलियों से गुजरता हुआ ऑटो कुछ ही देर बाद एक गली में रुका जहां ज्यादा भीड़ नहीं थी बस इक्का दुक्का लोग आ जा रहे थे. लड़के ने अपना थैला उठाया जिसके अंदर कुछ था जो उसने नगमा को लेने जाने से पहले खरीदा था और नगमा को ऑटो से उतरने का इशारा किया. नगमा के उतरते ही वो ऑटो वहां से चला गया. लड़के ने इशारे में नगमा को समझाया कि वो उसके पीछे आए. इसके साथ ही वो गली के दाईं तरफ वाली उस दुकान की तरफ बढ़ा जिसका शटर बंद था और उसके साथ ही ऊपर की तरफ जाने के लिए सीढियां बनी हुई थीं.

हालांकि नगमा के लिए ये कोई नयी बात नहीं थी मगर न जाने क्यों उसे उस लड़के पर गुस्सा आ रहा था. उसे लग रहा था कि समाज का वो दोगला चेहरा जो आम चेहरों के बीच छुपा औरतों पर एक के बाद एक हमले करता है वो इसी लड़के जैसा है. नगमा भारी क़दमों के साथ उसके पीछे चल दी. उन तंग सीढ़ियों पर चढ़ते हुए नगमा बड़बड़ाई “कहने को हम बाजारू हैं, लेकिन दोगलापन इन जैसों में भरा पड़ा है.” लड़का चुपचाप चलता रहा. अब वो दोनों एक कमरे में पहुंच गए थे. कमरा अच्छे से सजाने की कोशिश की गई थी.

लड़का अपना थैला बिस्तर के पास पड़े टेबल पर रखते हुए कहा “हमारी मां कहा करती थीं कि लोगों का गंदा उठाने वाला इंसान गंदा नहीं होता, काहे कि वो तो अपना मजदूरी करता है. सबसे ज्यादा गंदा वो हो है जिसकी अपने लिए ही खुद की नजरों में कोई इज्जत नहीं रह जाती. लोग आपको बुरा क्यों न कहें, आप तो खुद को ही बुरा बनाए बैठी हैं. आपको हम बुरे लग रहे हैं न तो हमको बुरा कहिये खुद को क्यों बार बार बाजारू कह रही हैं? अब चुपचाप वहां बैठ जाइए. ज्यादा बोलीं तो बगल में का कमरा में बहुत चूहा है आप पर छोड़ देंगे.” लड़के के चेहरे पर गुस्सा था लेकिन उसमें एक अपनापन सा था. नगमा को याद ही नहीं कि आखिरी बार उसे इतने हक से किसी ने डांटा हो या इस तरह डराया हो. और दूसरी बात उसे चूहों से बहुत डर लगता था, यही कारण था कि वो अपनी पाजेब छमकती हुई चुप चाप पलंग पर बैठ गई.

लड़का बगल के कमरे में चला गया. नगमा खुद को समझाने में लग गई कि ये उसका पेशा है. उसका काम अपने ग्राहक के बारे में सोचने का नहीं बल्कि उसको संतुष्ट करने का है. यही सोच कर नगमा खुद को तैयार करने लगी. इतनी देर में लड़का उस कमरे में आ गया. उसके हाथों में खाने की दो थालियां थीं. बिस्तर पर पेपर बिछा कर खाने की थालियां रखने के बाद लड़का भी वहीं बैठते हुए बोला “जानते हैं आपके मन में अभी बहुत से सवाल चल रहे होंगे और उनका जवाब भी आपको मिलेगा लेकिन पहले खाना खा लेते हैं और हां हम आपको बता दें कि हम खाना बहुत अच्छा बनाते हैं.” नगमा को कुछ समझ नहीं आ रहा था.

यहां रहते हुए नगमा बहुत अक्खड़ स्वाभाव की हो गई थी. जिज्जी के सिवा कोई दूसरा नहीं था जो उससे अपने मन का करा लेता मगर न जाने क्यों आज वो लड़का जैसे बोल रहा था नगमा चुपचाप वही सब कर रही थी.

नगमा ने पहला निवाला मुंह में डाला तभी वो समझ गई कि लड़का अपनी झूठी तारीफ नहीं कर रहा था. आज बरसों बाद घर के खाने जैसा स्वाद मिला था उसे. नगमा खाने के स्वाद में इतना खो गई थी कि लड़के की लगातार उसके चेहरे पर जमी निगाहों का भी पता न चला उसे. खाना खत्म हो चुका था. नगमा को देख कर ही बताया जा सकता था कि उसका पेट तो भर गया मगर मन नहीं भरा था.

“अब जो काम है वो निपटा लीजिए. फिर मुझे वापस भी जाना है.” नगमा ने डरते हुए ये बात कही. असल में उसे ये सब सपने जैसा लग रहा था और वो चाहती नहीं थी कि उसका सपना टूटे मगर लड़का आज के लिए उसका मालिक था इसीलिए उसका मन जानना भी जरुरी था.

“काम इतनी जल्दी कैसे निपटेगा, ये तो बस अभी का खाना हुआ है. थोड़ी दे आराम कर लीजिए, फिर आपको झील पर ले चलेंगे. वहां आप कुदरत का नजारा देखिएगा. झील के पानी के संग कुछ देर खेलिएगा. फिर आपका जहां मन हो चलने का मुझे बताइए मैं आपको वहां ले चलूंगा. इसी के लिए तो आपको बुलाया है” नगमा हैरान हो गई लेकिन उसने अपनी हैरानी दिखाई नहीं.

“लेकिन इतनी मेहरबानी क्यों, हमारे लिए ये सब खुशियां नहीं बनी हैं.” नगमा ने कहा.

“खुशियां किसी की बपौती नहीं होतीं, इस पर तो सबका अधिकार है. आपको मैं लेकर आया हूं, और मैं चाहता हूं कि आप आज का दिन ख़ुशी से बिताएं. और हां, ये कोई मेहरबानी नहीं. कहते हैं बिना दक्षिणा के शिक्षा नहीं लेनी चाहिए. आपने उस दिन मुझे बहुत बड़ी सीख दी जिसकी दक्षिणा के रूप में मैं आपको आज भर की खुशियां देना चाहता हूं.”

“और कल ? फिर तो कल से वही सब होगा. आप बेकार में वक्त बर्बाद कर रहे हैं.”

“कल आपने देखा है ?”

“नहीं मगर…”

“जब नहीं देखा तो फिर कैसे कह सकती हैं आप कि कल वही सब होगा?” नगमा इस पर कुछ न बोली…

“नगमा जी, हम छोटे थे तभी हमारे माता पिता हमें छोड़ कर चले गए. मेरे लिए छोड़ गए एक छोटी सी दुकान और एक प्यारी सी बहन. पेट को भरने के लिए रोटी नहीं मिलती थी तो भला किताबें कहां से मिल पातीं. जैसे तैसे उस छोटी सी दुकान के सहारे हमने खुद को और अपनी बहन को पाला. ईश्वर ने कुछ दिया तो हमारे हाथ में बरकत दी. हम जिस भी काम को हाथ लगते हैं वो सफल हो जाता है. उम्र के साथ साथ ये बात समझ आई हमें. हमने दूकान से थोडा बहुत कमाया मगर फिर सोचा कि इसके सहारे हम बस जिन्दगी काट सकते हैं अपनी बहन का बियाह नहीं कर सकते इसीलिए तीन साल पहले अपना जमा पूंजी ले के हम इस शहर में आ गए. नया काम शुरू किया. काम भी अच्छा चल गया. लगा कि अब हम अपना मुनिया का शादी अच्छे से कर सकेंगे. लेकिन हमारे हाथ में बरकत तो है लेकिन किस्मत में खुशियां नहीं हैं. एक दिन जब हम दोपहर में खाना खाने घर गए तो देखे कि हमारी बहिन घर नहीं लौटी थी अभी कॉलेज से. हमने हर तरफ खोजा, पुलिस में रिपोट भी लिखाये लेकिन उसका कुछ पता न चला….” लड़के ने जिन आंसुओं को अब तक रोके रखा था वो अपनी हदें तोड़ बैठे. वो फूट कर रो पड़ा. नगमा अचेत सी हो गई. उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या कहे.

“न जाने हमारी फूल सी बहन कहां खो गई इस भीड़ में. उसकी बची आखरी निशानी हमारे पास वही राखी थी जो उस लिफाफे में रह गई थी. अपनी बहिन के खो जाने के बाद हम पागल से हो गये थे. सारा दिन भूत की तरह कमान और शाम होते खुद को शराब के नशे में डुबो देना बस यही था हमारे पास करने को. इसी बीच एक दोस्त हमको आपके यहां ये कह कर ले आया कि यहां इंसान अपने सारे दुःख भूल जाता है. नशे की हालत हमको उसकी बातों में सच्चाई दिखी. हमारे अंदर का जानवर आजाद होना चाहता था. हम उसकी बात को सही मान रहे थे लेकिन जब हमने आपकी बातों में दर्द महसूस किया तो यही सोचते रहे कि हममें और उन दरिंदों में क्या फर्क जो औरत का जिस्म पाने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं. हत्या तो हत्या है भले ही जबरदस्ती करो या किसी की सहमती से. हम उस दिन जैसे नींद से जागे.” लड़के के हाथ अपने आप जुड़ गए थे. जहां नगमा को लोगों ने वैश्या, रंडी, बाजारू और न जाने कौन कौन सी उपमाएं दी थीं वहीं आज वो लड़का उसके सामने हाथ जोड़े था ये देख कर नगमा की आंखें भी भीग गई. इसके साथ ही वो अफसोस से भर गई अपने उस दिन के रवैये के लिए. आज वो उस लड़के का दर्द महसूस कर रही थी.

“मैंने उस दिन आपसे बहुत बुरे तरीके से बात की थी. मैं नहीं जानती थी आपकी बहन के बारे में. हो सके तो मुझे माफ़ कर दीजिए.” नगमा ने लड़के के बंधे हाथों पर अपने हाथ रखते हुए कहा.

“आपने तो बहुत बड़ा अहसान किया है हम पर. अच्छा लीजिए इसमें आपके लिए कुछ है.” लड़के ने जो थैला टेबल पर रखा था उसी में से एक गिफ्ट पैक निकल कर नगमा को देते हुए कहा.

“क्या है इसमें?”

“खोल कर देखिए.” नगमा ने उसे खोला तो उसमें एक गणेश जी की प्यारी सी मूर्ति थी. नगमा एक बार मूर्ति को देख रही थी एक बार लड़के को.

“कहते हैं किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत से पहले गणेश जी की पूजा होती है. आज हमने आपके लिए एक दिन की आजादी खरीदी है. इस आजादी की शुरुआत पर आपको गणेश जी भेंट कर रहे हैं इस वादे के साथ कि जल्द ही आपके जीवन की आजादी आपकी झोली में डाल देंगे. हमने कहा न हमारे हाथ में बरकत है. जो सोचा है जल्दी पूरा होगा.”

नगमा को हमेशा से लगता था कि उसका इस दलदल से निकल पाना अब नामुमकिन है लेकिन फिर भी आज न जाने क्यों उसे इस अनजान की बातों पर यकीन सा हो रहा था. यही वजह थी कि उसके आंसुओं से भीगे होंटों पर एक मुस्कान सी तैर गई.

इसके बाद लड़के ने नगमा को पूरा शहर घुमाया. आज पहली बार ऐसा हुआ था कि नगमा को पता ही न चला कब शाम घिर आई वरना वो हर वक़्त घडी के काँटों को ऐसे देखती जैसे अपनी उम्र का बीतता एक एक पल उसे मौत की ओर जाने की ख़ुशी दे रहा हो. मगर आज जब इसे थाम लेना चाहती थी तो कमबख्त रुका ही नहीं.

“गलत कहा था आपने कि कल नहीं देखा किसी ने, आपने मेरा आज इतना खूबसूरत बना दिया है कि मैं अपना कल क्या परसों और उसके बाद के भी कई दिन इसी के सहारे ख़ुशी में काट दूंगी.” अपने बाजार में ऑटो से उतारते हुए नगमा ने कहा.

“ज्यादा दिन नहीं काटने पड़ेंगे आपको यहां. और हां आके चेहरा पर ये निश्चल मुस्कान बहुत सोभता है, इसे सजाये रखा करिए. जल्दी मिलते हैं आपकी पूरी आजादी के साथ.” नगमा की मुस्कराहट पहले से ज्यादा गहरा गई जो आम दिनों से एकदम अलग और बहुत ज्यादा सुंदर थी.

लड़के ने ऑटो वाले से चलने का इशारा किया तब तक नगमा को कुछ याद आया, वो हडबडा कर बोली “अरे रुकिए, अपका नाम क्या है.”

लड़का ठहाका लगा कर हंस पड़ा “अभी तक जो नाम आपने मन में सोचा होगा उसी से काम चलिए. जब आपकी आजादी लेकर आऊंगा तब बता दूंगा नाम भी.” ऑटो ने स्पीड पकड़ ली. नगमा ऑटो को जाते देखती रही. ये तो पता नहीं कि ये खुशियां कितनी देर की महमान थीं नगमा की जिंदगी में लेकिन जितनी देर भी थीं उसे सब खूबसूरत लग रहा था. उसे समझ आ चुका था कि कल न जाने अपनी मुट्ठी में कौन सी बात छुपाये है सो आज को जी लो. यही सोचते हुए वो चहकती हुई सीढियां चढ़ने लगी.

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नंबर वाली पर्ची: धीरज झा की कलम से निकली एक रिक्शेवाले की प्रेम कहानी

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आप किसी बड़े शहर के स्टेशन पर चले जाइए तो आप सही सही ये पहचान नहीं सकते कि कौन यहां का है और कौन बाहर से आया है लेकिन वहीं आप किसी छोटे शहर, खासकर वो जो देहातों से अपनी सांठ गांठ बनाए हैं, के स्टेशन पर चले जाइए तो आप जाने वाली ट्रेन और वहां आने वाली ट्रेन की सवारियों के मन का हाल जान जाएंगे. 

यहां से जाते हुए लोग घर से जाते हैं, मन भारी होता है, मन में एक दबी सी दुआ कुहुक रही होती है कि काश कोई ये कह के अभी भी रोक ले कि “रुक जाओ न, कौन सा सहर भागा जा रहा है, दू दिन बाद चेल जाना.” वहीं जब सवारियां बाहर से आकर यहां उतरती हैं तो शरीर भले महीनों की कड़ी मेहनत के बाद थक टूट गया हो लेकिन मन पर भार रत्ती भर का नहीं होता. चेहरे खिले होते हैं सबके. ट्रेन की भीषण भीड़ भी उनके चेहरे की चमक को कम नहीं कर पाती. घर लौटने का सुख ही कुछ ऐसा होता है. और इस बात को स्टेशन के बाहर खड़े रिक्शे वाले भईया लोग अच्छे से जानते हैं.

स्टेशन के बाहर पान की गुमटियों ने आस पास की हवा को कत्थे चूने और पान की पत्तियों की महक से इस तरह नहला दिया था कि अगर कोई नवयुवक इधर से केवल गुजर जाए तो घर पहुंचने पर इस संदेह में घिर जाएगा कि लड़के ने पान खाया है. इन्हीं गुमटियों पर रखे रेडियो अपनी अपनी तान छेड़े बैठे हैं. ट्रेंड में चल रहे भोजपुरिया गीतों को देसी एफएम पर बज रहा भरत शर्मा का निर्गुण ‘भंवरवा के तोहरा संघे जाई’ कड़ी टक्कर दे रहा था.

दुपहरिया समय कोई सवारी न देख सभी रिक्शे वाले अपने अपने रिक्शे को आसन मान उस पर डटे हुए देश के विभिन्न मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं. “कटरा से चल कर कामख्या जंक्शन जाने वाली कामख्या एक्सप्रेस कुछ ही समय में प्लेटफॉर्म नंबर 1 पर आने वाली है.” इसी सूचना के साथ स्टेशन से बाहर खड़े तमाम ऑटो और रिक्शा वाले भईया लोग सतर्क हो गए.

रोज की तरह आज भी ये ट्रेन बाहर से चमकते दमकते चेहरे लेकर स्टेशन पहुंची है. बस एस्टेंड, बस एस्टेंड, आइए बस एस्टेंड. कहवां जाएंगे ? चलिए छोड़ देते हैं…” एक तेज तर्रार नौजवान सवारियों की तरफ दौड़ा.

“ऐ मंगनी, का हो! सब सवारी ले जाओगे का ? कुछ एक हम गरीब बुढवा के लिए भी छोड़ दो.”

“का चचा, आपहूं मजाक का हद कर देते हैं. ससुर दोपहरिया बीत रहा है अभी तक बोहनिओं नहीं हुआ है. बाकि आप लोग का उम्र हो गया है जाइए राम धुन गा के अपना पाप काटिए, का सार दिन पईसा पईसा करते रहते हैं.”

“सही है बेटा, उम्र है तुम्हारा उड़ लो…” बुढऊ चचा आगे कुछ बोलते इससे पहले किसी सवारी ने आकर टोका उन्हें

“जानकी अस्थान चलिएगा ?”

“हं, हं काहे नहीं चलेंगे, आइए बैठिए…?

“कय रुपया लेंगे ?”

“जो सब देता है आपहूं दे दीजिएगा. 40 रुपया लेते हैं”

“अरे नहीं नहीं अभी दू बरिस पहिले तक तो 20 रुपया लेता था सब.” कभी कभी धन्यवाद करने का मन करता है इन रिक्शे वालों, सब्जी वालों और मेहनत मजदूरी करने वालों का, क्योंकि अगर ये न होते तो शायद हम जान ही न पाते कि महंगाई बढ़ गई है.

“मालिक जोन हिसाब से जमाना महंग हो रहा है हो सकता है अगला बरस तक रिक्सा का भाड़ा 50 रुपया हो जाए.”

“ऊ सब जानते हैं लेकिन 40 बहुत बेसी (ज्यादा) ले रहे हैं, हम लोग जादा सवारी हैं अपना हिसाब से देख लीजिए.”

“मालिक हमारा रिक्सा है कोनो टेम्पू थोड़े न, जादा सवारी से हमको का मतबल. बाकी 35 से कम नहीं होगा.” चचा ने अपना आखरी प्रस्ताव रखा.

“ऐ सुमन देखो जी झुनकिया रोड पर भागी जा रही है, चंपा जाएगी त चिल्लाते रह जाओगी.” रिक्शे वाले से बहस कर रहा वो व्यक्ति अचानक से चिलाया. उसकी चिल्लाने की आवाज सुन कर दो लोग चौंके थे. एक वो लड़की जो खुद बचपने के आंचल का कोर छोड़ने से पहले एक बच्ची की मां बन गई थी, दूसरा वो रिक्शे वाला मंगनी जो थोड़ी देर पहिले तक अपने साथी से हंसी मखौल कर रहा था.

मंगनी के चौंकने का कारण वो नाम था जो उस व्यक्ति ने पुकारा था. छः साल बीत गए थे लेकिन आज भी जब वो सुमन नाम सुनता तो ऐसे चिहुंक जाता जैसे मिर्च लगे हाथों से अनजाने में आंखें मल ली हों. उस बेहद कम उम्र की औरत का चेहरा ट्रेन तक खुला हुआ था लेकिन स्टेशन पर उतारते ही साथ चल रही एक बूढ़ी माता के इशारे के साथ ही घूंघट में ढक गया था. मंगनी के लिए तो सुमन नाम ही काफी था.

“आप लोग बैठिए न, बीसे रूपया दीजिएगा.” उस व्यक्ति की 25 और रिक्शेवाले चचा की 35 रुपयों की बोली के बीच मंगनी ने बूढ़ी अम्मा के पास जा कर 20 रुपये का दाव फेंक दिया.

“ऐ बिनोद, इहां आओ रे, ई लईका बीसे रूपया में चहुंपाने (पहुंचाने) का बोल रहा है. चलो चलो.” वो बूढ़ी अम्मा जिसकी आवाज उनके शरीर जितनी ही भारी थी, चिल्लाई.

“ऐ मंगनिया, पगला गया है का रे! दाम कईसे बिगाड़ दिया तुम.” चचा खिसियाते हुए बोले.

“अरे चचा, जाने दीजिए न लेडिज हैं साथ में, परसानी होगा. बाकी हम करते हैं न. आप निश्चिन्त रहिए न.” निश्चिन्त रहने की बात के साथ ही मंगनी ने चचा को कुछ इशारा किया. चचा को गुस्सा तो बहुत आया लेकिन वो चुप हो गए.

“चलिए चलिए.” चचा से बहस कर रहे उस व्यक्ति ने सबको तीनों रिक्शों पर बैठने को कहा.

“अरे ठहरिए ठहरिए, हमारा रिक्सा में हवा कम है इस पर कोनो हलुक सवारी बैठा दीजिए.” रिक्शे पर बूढी अम्मा को चढ़ते देख मंगनी झट से बोला.

अम्मा उसे खड़े खड़े बिना नमक मिर्च लगाये चबा जाने के अंदाज में घूरते हुए आगे वाले रिक्शे की तरफ बढ़ गई. सब लोग रिक्शे पर बैठ गए. मंगनी के रिक्शे पर घूंघट वाली लड़की अपनी छोटी सी बेटी के साथ बैठ गई. सभी रिक्शे एक साथ बढ़े. मंगनी ने भी पैडल पर जोर मारा.

“अभियो तुम्हारा लबरई नहीं गया न! लबरा कहीं के.” इस आवाज के साथ ही मंगनी जहां था वहीं रुक गया, पैरों ने पैडल मारना रोक दिया. पान की गुमटी पर बज रहे गीतों में अब भरत शर्मा के निर्गुण पर पियावा से पहिले हमार रहलू भारी पड़ने लगा. लोगों के लिए वहां मोटर गाड़ियों से ले कर स्टेशन से आरही ट्रेन सूचनाओं तक की आवाज थी मगर मंगनी के लिए वहां एक ही शब्द घूम रहा था “लबरा”. सुमनिया उसे लबरा ही तो कहती थी हर बात पर. मंगनी ने चाहा कि पीछे मुड़ कर उस चेहरे को एक बार देख ले जिसके दीदार को वो 6 साल से तड़प रहा है.

“पीछे नहीं देखना, बुढ़िया बहुते बुझक्कड़ है.” मंगनी जहां था वहीं रुक गया.

“अरे का हुआ रे, रुक काहे गया.” बूढ़ी अम्मा आगे से चिल्ला दी.

“रिक्सा के चेन उतर गया है. बढ़िए आप लोग हम आते हैं.” मंगनी ने चाल चलने की कोशिश की.

“नहीं नहीं तुम चेनमा के चढ़ा लो हम रुके हैं.” लेकिन अम्मा ने मंगनी का दाव चलने नहीं दिया.

“हो गया चलिए.” दाल न गलती हुई देख मंगनी ने कहा, इसी के साथ तीनों रिक्शे चल दिए.

“इहे काम तब कर लिए होते तो आज हमको तुमसे ऐसे छुप के नहीं न बतियाना पड़ता.”

“थोडा दिन तुम्हीं इंतजार कर ली होती त का होता.”

“तुमको आज तक नहीं समझ आया कि बेटी का मर्जी इहां नहीं चलता. तुमको का लगता है हम खुसी खुसी सब मान लिए थे!”

मंगनी चुप हो गया. उसकी आंखों के सामने छः साल पहले के तमाम किस्से तैरने लगे. सुमन वही थी जिसके प्रेम के नशे में मंगनी कभी 24 घंटे भकुआया रहता था. दोनों का प्रेम उस जमाने का था जब गांव के नए लड़के इतने सीधे हुआ करते थे कि नाच के लौंडे को लड़की समझ उस पर दिल हार जाया करते थे. प्रेम ने पूरी तरह से बदल दिया था मंगनी को. पहले मंगनी भैंस चराने से बचने के लिए घर से भाग जाया करता था, उसके बाबू उसे ढूंढ कर खूब गरियाया और लतियाया करते थे. इतना दुलार होने के बाद भी मंगनी भैंस न चराने जाने के बहाने खोजता लेकिन जब एक बार उसने सुमन को देखा तो उस पर दिल हार बैठा.

मंगनी एक टक देखता रह गया था सुमन को. सुमन के फ्राक का सफेद रंग मैला होने के बाद जमीन के रंग सा दिख रहा था उसे और उस पर बने छोटे छोटे फूल ऐसे लग रहे थे मानों ताजा कलियां जमीन पर बिखरी हों. वो बकरियां चराने आई थी, मंगनी भैंस चराने गया था. मवेशी घास चरते रहे, इधर ये दोनों एक दूसरे की आंखों के भाव पढ़ते रहे. ये मीठा मीठा अहसास दोनों के लिए नया था.

अब तो मंगनी भैंस चराने जाने के लिए ऐसे तैयार हुआ करता था जैसे दफ्तर जाना हो. शायद सुमन मंगनी को इतना भाव न देती लेकिन मंगनी के मोहब्बत का अंदाज ही अलग था. असल में मंगनी के बाबू एक पशु व्यापारी के यहां काम करते थे. वो अपने पशुओं को बेचने दूर दराज इलाकों में जाया करते और वहां से मंगनी की अम्मा के लिए तरह तरह का सामान लाते. मंगनी उन्हीं में से थोडा बहुत चुरा कर सुमन के लिए ले जाया करता. वह सुमन के लिए कभी महक वाला तेल तो कभी पाउडर की पुड़िया बना कर ले जाया करता.

घर में हंगामा तो तब मचा जब मंगनी अम्मा की नई सूती साड़ी उठा कर सुमन को दे आया. मंगनी की चाचा की बेटी ने देख लिया था उसे साड़ी लेजाते हुए. उसने सबको बता दिया. अब साड़ी का कम और बेटे के बिगड़ जाने का शोक ज्यादा गहरा गया था. सबको लगा कि लड़का लौंडई करने लगा. बड़ी मुश्किल से मामला शांत हुआ. मंगनी के लिए दुःख की बात उसका पिटाना या गालियां खाना नहीं था क्योंकि पिटाई का तो ऐसा था कि जम कर मार खाने के बाद वो बड़े सलीके से उठता, कपड़े झाड़ता और बेशर्मों की तरह हंसते हुए कहता ‘एतना सिंगार मोरा नित दिन हो ला.’ दुःख तो उसे इस बात का लगा कि सुमन साड़ी ही नहीं पहनती थी. लेकिन उसने रख ली थी शर्मा कर ये कहते हुए कि शादी के बाद वो पहनेगी.

प्रेम बढ़ा तो सही लेकिन परवान नहीं चढ़ सका. सुमन अपनी 4 बहनों में सबसे बड़ी थी. बच्चों की पैदाइश के समय सुमन के पिता को जल्दबाजी जरा भी महसूस नहीं हुई थी लेकिन अब बेटियों की शादी के लिए वो इतने उतावले थे कि उनका बस चलता तो कुएं के इर्द गिर्द सात फेरे करा कर उस में धकेल दें सबको. ऐसे उतावले इंसान को बेटी के लिए घर बैठे रिश्ता मिल जाए तो वो देर क्यों करे भला. सुमन ने नानुकर करने की कोशिश की लेकिन बाबू ने जहां एक कोहनी खींच कर दी उसी में शांत हो गई. वैसे भी मंगनी कमाता धमाता नहीं था वो ज़िद भी करती तो क्या कह कर.

“अभिए जानकी अस्थान आजाएगा, हमको उतरना पड़ेगा. तुम्हारे पास 15 20 मिनट हैं, अपना मन का सारा जहर माहुर उगील दो. जानते हैं बहुत गरियाए हो हमको.” सुमन घूंघट की ओट का पूरा फायदा उठा रही थी.

गरियाने की बात पर मंगनी ऐसी हंसी हंसा जैसे किसी ने सीने में खंजर उतार कर नाइट्रस ऑक्साइड (हंसने वाली गैस) सुंघा दी हो. उसी पीड़ादायक हंसी के साथ मंगनी बोला “हां गरियाने के लिए ही छः साल से खोज रहे हैं न तुमको. यही तो बचा है हमारे पास, किसी को प्यार करो फिर उसके बिना रहो आ जब ऊ मिले तो उसको गरिया दो.” इतना कहते हुए मंगनी की आवाज रुआंसी हो गई. भले ही बरस बीत गए थे मगर सुमन अब भी मंगनी के बातों में आंसुओं की नमी महसूस कर सकती थी.

“अच्छा सुनो न.’ इस ‘सुनो न’ ने पहले भी मंगनी को न जाने कितनी बार ठगा था. “मेहरारू को संघे रखते हो कि गांव छोड़े हो.”

“ठांठे हैं अभियो, बियाह नहीं किए हम.” मंगनी का मन कर रहा था कि रिक्शा रोक के जी भर देख ले सुमन को. वो भी समय था जब सुमन अपनी बकरियों और मंगनी अपनी भैंसों को चरने के लिए छोड़ देते और खुद बैठ कर बतियाते रहते. इस दौरान सुमन दुनिया जहान की बातें करती और मंगनी बस उसको गुटुर गुटुर देखते रहता. जब सुमन उसको शर्मा कर टोकती तो मंगनी कहता “हम जब कोनो बदमासी करते हैं न तो बाबू हमको खूब मारते हैं. ऐसे तो हमको मार खाने का आदत पड़ गया है लेकिन कहियो कहियो (कभी कभी) जोर से लग जाता है. तब हमारी अम्मा हमको तेल से मालिस करती है. जोन सुख हमको उसका हाथ का मालिश में मिलता है न उहे सुख तुमको देख कर मिलता है.” ये सुन कर सुमन शरमाते हुए अपने हाथों में अपना चेहरा छुपा लिया करती.

“अरे अभी तक नहीं किए! कब करोगे, बुढ़ारी में कौनों नहीं पूछेगा.” सुमन ने चिंता जताई.

“खाली (सिर्फ) तन हमको मिलाना नहीं था, आ तुम्हारे बाद मन हमारा कहीं मिला नहीं. तुम्हारे जाने के बाद जब बउराने लगे तो बाबू घर से बेगा दिए. भाग के सहर आए. पाई पाई जोड़ के एक ठो रिक्सा लिए. एही सब में देखते देखते छओ बरिस बीत गया. समय नहीं मिला. हमारा छोड़ो, तुम बताओ, कैसा चल रहा है सब ?”

“चलिए रहा है बस, झुनकिया के पपा लोधियाना कमाते हैं. बियाह के दोसरका साल हमको भी ले गए साथ. एम्हर अम्मा बाबूजी गांव पर रहते थे, परुका साले बाबू जी गुजर गए तो अम्मा को भी साथ ले आए ये. ई उहां लोहा फैट्री में कमाते हैं हम धागा फैट्री में. झुनकिया के पपा सीधा इंसान हैं, जादा मतलब नहीं रहता है कोनो बात से. हां अम्मा सासन चलाती हैं लेकिन हमको बुरा नहीं लगता काहे कि हमको आदत है और उनका अधिकार. बाकी इहे एक ठो नाक कान में बचिया है. मिलाजुला के सब ठीके है.” सुमन अपना हाल बताती रही मंगनी सब सुनता रहा.

“एक बात पूछें ?”

“मना करेंगे तो कौन तुम मानोगे. पूछो.”

“हमको प्रेम करती हो आज भी ?” इस सवाल के साथ ही मंगनी का दिल कुछ वैसे ही धड़का जैसे उस दिन धड़का था जब सुमन के गाल पर भात का एक दाना लगा था और मंगनी ने उसे हटाने के लिए उसके गालों को छूने की इजाजत मांगी थी.

“तुम हमको ठीक से देखे नहीं सायद. प्रेम न होता तो हम तुम्हारा दिया हुआ ई साड़ी नहीं पहने होते. हम अपना सास का सब बात मानते हैं एक इहे साड़ी का बात है जो वो हमको दस बार टोकी लेकिन हम नहीं माने. जब जब घरे आते हैं त इहे पहिन के, लगता है तुम साथे हो. बाकी हम बस इतना जानते हैं कि प्रेम अमर होता है. बरस क्या जन्मों बीत जाए न तभियो प्रेम का छाप नहीं उतरता मन से. तुम्हारे लिए केतना कल्पे, केतना रोए हैं ई दिखा नहीं सकते तुमको. तुम आजो मन में उठने वाला हुकहुकी के साथ याद आते हो.”

मंगनी की गीली आंखों के नीचे चमकती मुस्कराहट ऐसे लग रही थी मानों कई दिनों से बारिश में भीगने के बाद समंदर के किनारे को धूप नसीब हुई हो. मंगनी बोलना चाहता था कि इस प्रेम के लिए तुम्हारा दिल से शुक्रिया मगर वो बोल न पाया. ये सब सोचते हुए मंगनी ने उसी छुअन का अहसास किया जो उसे सब कुछ भुला दिया करती थी. ये सुमन के हाथ थे जो उसकी जेब में हौले से घुसे थे.

“तुम्हारा पौकेट में हम अपना लंबर रख दिए हैं. हमको मिसकौल कर देना. फिर हम समय देख के तुमको फोन किया करेंगे. बहुत कुछ कहना और जानना है हमको. जानकी माई के दरसन के बाद हमलोग गांओं चले जाएंगे आ फेर एक महीना बाद वापस लोधियाना. हम अपना घरे आएंगे, तुम्हों आना उहां अच्छा से भेंट हो जाएगा.” सुमन ने मंगनी को सब समझा दिया मगर मंगनी को अभी इतनी होश कहां थी कि कुछ समझ सके वो.

“ऐ भईया, अब रिक्से से गऊआं तक छोड़ आओगे का.” मंदिर की घंटियां और उस संकरे बाजार की भीड़ साफ़ बता रही थी कि जानकी स्थान आगया है लेकिन मंगनी इतना मगन था कि उसने रिक्शा कब आगे बढ़ा लिया उसे पता ही नहीं चला. बूढ़ी अम्मा ने उसे पीछे से आवाज लगाई. मंगनी वहीं रुक गया.

छः साल का इंतजार बस चंद मिनटों की मुलाकात में खत्म हो गया. सुमन मंगनी के रिक्शे से उतर रही थी. मंगनी इस उम्मीद में खड़ा रहा कि एक बार उसके चेहरे की झलक मिल जाए. सुमन उसका मन जानती थी उतारते हुए उसने अपने सर से घूंघट सरका दिया. मंगनी के लिए ये अहसास वैसा ही था जैसे अंधेरे कमरे में एक दम से किसी ने बत्ती जला दी हो. मंगनी ने गौर किया कि सुमन के चेहरे में कई बदलाव आये हैं, जिनमें सबसे बड़ा बदलाव है, उदासी का उसके चेहरे पर जड़ हो जाना. ये ऐसा था जैसे सोने के रत्न जड़ित हार में से रत्नों को निकाल लिया जाना.

“ई कोनो परदेस नहीं है कि सूट पहन के छम छम करती घूमों. हम लोग अपना एरिया में आ गये हैं, घोघ तान (घूंघट निकालना) के रहो.” सर से हटा घूंघट देख सुमन की सास झट से उसके पास पहुंच गई.

“लाईए न हम पहुंचा देते हैं सामान, आप बुचिया को कोरा (गोद) उठा लीजिए.” मंगनी ने झट से दोनों बैग उठा लिए. बूढी अम्मा ने एक पल के लिए उसे घूरा फिर आगे बढ़ गई. अपनी जवानी के पहले के दिनों में ही मंगनी सपना देखा करता था कि वो कहीं जाएगा सुमन को लेकर तो उसके हाथ में सामान होगा और सुमन की गोद में उनका बच्चा. वो जब आगे बढ़ जाया करेगी तो मंगनी उसे आवाज देकर साथ साथ चलने को कहेगा. कुछ ही देर के लिए मगर ये सपना पूरा हो रहा था. इधर रिक्शा वाले चचा को समझ नहीं आ रहा था कि मंगनी जैसा टेढ़ा इंसान जो एक रूपया नहीं छोड़ता और कोई सामान उठाने को कह दे तो खाने को दौड़ता है वो आज ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है.

सुमन सबसे नजरें चुरा कर मंगनी को निहार रही थी. बूढ़ी अम्मा और उनका बेटा रिक्शे वाले से पैसे के लिए लड़ रहे थे. इधर मौका देख कर मंगनी ने जेब से आज दिन भर में कमाया सौ का नोट निकला और सुमन की बच्ची के सर पर आशीर्वाद भरा हाथ फेर कर उसे सौ का नोट थमा दिया. सुमन ने आंखों से इसका विरोध किया तो मंगनी ने इशारों में ये कहने की कोशिश की कि स्नेह है बिटिया को उसके न हो सके पपा की तरफ से.

किराए का विवाद सुलझाते हुए मंगनी ने 20 रुपये के हिसाब से तीन रिक्शों के साठ रुपये लिए जिसके लिए चचा ने उसे ऐसे घूर जैसे उसने उनके पेट पर कस के लात मार दी हो. सबके जाने के बाद चचा और दूसरा रिक्शेवाला मंगनी को गरियाते उससे पहले ही मंगनी ने 30-30 रुपए दोनों को थमा दिए.

“काहे एतना मेहरबान हो रहे हो इन सब पर जी, घोड़ा घास वाला कहावत भूल गए.” चचा ने आश्चर्य से पूछा.

“होता है चचा, कुछ काम ऐसा होता है जिसमें घोड़ा को घास से दोस्ती करना पड़ता है. वैसे भी आदमी केतना भी भूखा काहे न हो अपना मांस नहीं खाता.” चचा ने मंगनी की बात समझने की कोशिश करते रहे इधर उसने अपना रिक्शा उठाया और अपने क्वाटर की तरफ मोड़ लिया.

जीरो वाट के बल्ब में मंगनी का छोटा सा कमरा ऐसे लग रहा था जैसे किसी ने पीले रंग की रौशनी भरी छींटें बिखेर दी हों वहां. इसी रौशनी में मंगनी उस पर्ची को घूरे जा रहा था जिस पर सुमन ने अपना नंबर लिख कर दिया था. सुमन का ये नंबर मंगनी के लिए उन पुराने दिनों में लौट जानें की चाबी थी जहां मासूम सी बातों का खजाना दबा था. मंगनी अभी खयालों की खुबसूरत दुनिया में था, जहां वो बारी बारी से देख रहा था कि सुमन उससे पहले की तरह ही बातें कर रही है, कभी वो देख रहा था कि वो उससे मिलने गया है, मंगनी ने सुमन को गले से लगा लिया है. मंगनी के सपने बड़े होते जा रहे हैं. वो कुछ समझ नहीं पा रहा. जो कुछ उस अल्हड़पने में छूट गया था मंगनी के ख्वाबों में वो सब घूम रहा है.

उसके शरीर में अजीब सी सिहरन दौड़ रही है. अपने सामने वो सुमन के चेहरे को देखता हुआ महसूस कर रहा था कि अब मौका आ गया है अपने अंदर से उन सारे अहसासों को बाहर ले आने का जो उसने सुमन के जाने के बाद कहीं दबा दिए थे.

उसका पूरा मन झूम रहा था लेकिन इसी के साथ वो प्रेम जो उसने अपने सीने में आज तक दबाये रखा था, वो एक कोने में बैठा घुट रहा था. वो महसूस कर सकता था कि उसके अंदर दबा वहशीपन कहीं न कहीं उसके पवित्र प्रेम को अपवित्र करने की साजिश गढ़ रहा था.

मंगनी आगे और भी ख्वाब गढ़ता इससे पहले ही उसने पर्ची को माचिस की जलती हुई तीली से मिला दिया. पर्ची जलती रही और मंगनी आंसुओं में भीगी मुस्कराहट के साथ उसे देखता रहा. उसने अपने प्रेम को दूषित होने से बचा लिया था. संभव था कि वो आगे बढ़ता तो अपने उस प्यार के जीवन में जहर घोल देता जिसके लिए उसने हमेशा से खुशी ही मांगी है. अब उसके साथ केवल था तो वो सुखद अहसास जिसे उसने छः साल के इंतजार के बाद उस छोटी सी मुलाकात के रूप में समेटा था.

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