हम चाहते हैं आप यह लेख पढ़ने से पहले कुछ पल के लिए अपनी आंखें बंद करें, और महसूस करें कि आप एक लकड़ी के छोटे से बैरक में बंद हैं, जहां आपके साथ और भी सैकड़ों लोग भेड़ बकरियों की तरह बंद हैं. यहां सोने खाने की व्यवस्था तो दूर सही से सांस लेना भी दुर्लभ है. यहां आपसे आपकी क्षमता से पांच गुना ज़्यादा काम लिया जा रहा है, और काम ना कर पाने की स्थिति में आपको तरह तरह की भयानक यातनाएं दी जा रही हैं.
गहराई से इतना महसूस करते ही आपके पसीने छूट जायेंगे. मगर अभी तो महज़ एक शुरुआत है अभी आपको कुछ और भी महसूस करना है. आप महसूस करिए अपनी नाक से हो कर आपकी धमनियों से आपके फेफड़े और दिल में पहुंचती उस ज़हरीली गैस को जो आपकी नसों को मरोड़ रही है, आपकी सांसें बंद हो रही हैं, आप बेहद बुरी तरह से तड़प रहे हैं. ऐसा महसूस करते ही आप बेचैन हो उठेंगे, आंख खुलते ही देखेंगे कि आपका बदन पसीने से पूरी तरह तर है. जिनमें अभी भी इस भयंकर अहसास को महसूस कर सकने की शक्ति है वो देखें कि हर तरफ लाशें ही लाशें हैं. जो ज़िन्दा बचे हैं उनकी देह मानव कंकाल के सिवाय कुछ भी नहीं हैं. ना रहने की व्यवस्था, ना स्वच्छता का नाम-ओ- निशान, ना खाने को भोजन, ना ठण्ड से बचने का कोई उपाय.
यहूदियों के सर्वनाश के लिए चलायी गई मुहीम ‘होलोकास्ट’ की कहानी
अब आप आंखें खोल सकते हैं और अपने परमेश्वर से इस बात के लिए शुक्रिया कह सकते हैं कि आप सौभाग्यशाली हैं, जो आपको इस तरह की कल्पना मात्र से डर लगता है. क्योंकि ऐसे लाखों लोग भी रहे हैं जिन्होंने ये सारी यातनाएं खुद पर सही हैं, जिन्होंने इस भयंकर नरसंहार को अपनी सूखी और उदासीन आंखों से देखा है. यहूदियों के सर्वनाश के लिए चलायी गयी मुहीम, जिसे ‘होलोकास्ट’ का नाम दिया गया के तहत लाखों यहूदियों, दासों, जिप्सियों, कम्युनिस्टों तथा समलैंगिकों को गैरजरूरी घोषित करके मौत के घाट उतार दिया गया. आदमी को सताने के विभिन्न औजारों का इज़ाद, गैस चैम्बर, घातक सूइयां, जीवित आदमी, औरतों तथा बच्चों पर तरह-तरह के भयंकर प्रयोग, क्या नहीं किया गया होलोकास्ट के दौरान.
होलोकास्ट के भुक्तभोगी विक्टर फ्रैन्कल अपनी किताब “Man’s Search for Meaning” में लिखते हैं, ‘कोई भी सपना कितना भी भयंकर क्यों न हो यातना शिविर की हमारे आसपास की सच्चाई से भयंकर नहीं हो सकता है. होलोकास्ट के आदेश हिटलर का नाम कौन नहीं जनता, किसने हिटलर की तानाशाही के बारे में नहीं सुना. हिटलर के ही आदेश पर होलोकास्ट लागू किया गया जिसके कारण 60 लाख यहूदियों को अपनी जान गंवानी पड़ी और इससे दुगने लोगों को भयंकर पीड़ादायक यातनाओं का शिकार होना पड़ा. इंसान ने अपने जीवन में बहुत सी त्रासदियों को झेला है, मगर होलोकास्ट से भयानक स्थिति आज तक कभी नहीं हुई. यहूदियों के कत्लेआम का दर्द जब भी दुनिया के सामने आता है तब तब हिटलर की सूरत नज़र आती है.
जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर का करीबी ‘हेन्रिख हिम्म्लर’ कौन था?
मगर अकेले हिटलर के दम पर यह कदापि संभव नहीं था. यह सच है कि इस वीभत्स घटना की सारी योजना हिटलर ने ही तैयार करते हुए ‘फाइनल सलूशन ऑफ ज्यूइश क्वैश्चन’ के ऑर्डर दिए थे. मगर इस नरसंहार में हिटलर के बहुत से करीबी लोगों का हाथ रहा जिनमें सबसे ऊपर ‘हेन्रिख हिम्म्लर” का नाम रहा.
हेन्रिख हिम्म्लर, एक स्कूल अध्यापक का बेटा जिसके दिमाग में हमेशा से एक बड़े अधिकारिक पद पर बैठने की सनक थी. इसी मंशा से वो अपने पिता से आग्रह कर के उनके शाही संपर्कों से 11वीं बवेरियन बटालियन में प्रिशिक्षण हेतु भी गया परन्तु जर्मनी की हार के बाद युद्ध समाप्त होते ही उसे ये आकांक्षा त्याग देनी पड़ी. एक के बाद एक विफलताओं से तंग आकर हिम्म्लर ने अपनी आकांक्षाओं का अंत करते हुए मुर्गीपालन का काम शुरू किया. मगर शायद उसकी नियति उससे कुछ बेहद बुरा करवाने का मन बना चुकी थी तथा वो 1925 में एसएस में शामिल हुआ, बवेरिया में उसका पहला पदस्थापन एसएस-गौफ्युहरर (जिला नेता) के रूप में हुआ.
1933 तक, एसएस के 52,000 सदस्य हो गए. संगठन ने सख्त सदस्यता लागू करते हुए यह सुनिश्चित किया कि सभी सदस्य हिटलर के आर्यन हेर्रेन्वोल्क (आर्य प्रधान नस्ल) के हों. 1933 में हिमलर को पदोन्नति देकर एसएस-ओबेरग्रुप्पेंफ्युहरर बना दिया गया. इससे वह वरिष्ठ एसए कमांडर के समकक्ष हो गया. हिमलर इस बात पर सहमत था कि एसए और उसके नेता अर्नस्ट रोहम जर्मन सेना और नाज़ी के समक्ष एक खतरा बन रहे हैं.
यहूदियों के क्रूर नर संहार में हेन्रिख हिम्म्लर की भूमिका क्या थी?
हिमलर के उकसाने पर, रोहम के खात्मे के लिए हिटलर सहमत हो गया. रोहम सहित अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के खात्मे के आदेश दिए गए, साथ ही हिटलर के कुछ निजी शत्रुओं को भी ख़त्म करने का आदेश दिया गया (जैसे कि ग्रेगोर स्ट्रासर और कुर्त वोन श्लेइकर). ये काम 30 जून 1934 को किये गये, जो नाईट ऑफ़ द लौंग नाइफ़ के नाम से जाना जाता है. अगले दिन, एसएस एक स्वतंत्र संगठन बन गया, जो सिर्फ हिटलर के प्रति जवाबदेह था, और हिमलर का राइखफ्युहरर-एसएस का खिताब एसएस का औपचारिक सर्वोच्च पद बन गया.
यहूदियों के नर संहार में हिम्म्लर की भूमिका ‘नाईट ऑफ दी नाईव्स’ के पूरा होते ही एस एस द्वारा यातना शिविर और संहार शिविर बनाये जाने लगे. जिसके अंतर्गत यहूदियों, जिप्सियों, कम्युनिस्टों और दूसरे सांस्कृतिक, नस्लीय, राजनीतिक या धार्मिक व्यक्तियों को जिन्हें नाज़ी, या तो अंटरमेंस्च या शासन विरोधी मानते, यातना शिविरों में डालना शुरू किया. 22 मार्च 1933 को हिमलर ने दचाऊ में ऐसे पहले शिविर का आरंभ किया जाने लगा. हिमलर की मुलाकात पुस्तिका से पता चलता है कि 18 दिसम्बर 1941 को हिमलर की भेंट हिटलर के साथ हुई थी. उस दिन की मीटिंग में यह सवाल खड़ा किया गया था कि, “रूस के यहूदियों के साथ क्या किया जाय?” और उसके बाद प्रश्न का उत्तर था, “अल्स पार्टीसानेन ऑस्जुरोटन” (उन्हें पक्षपाती मानकर उनका सफाया किया जाय”).
हिटलर के बजाय हिमलर ही यातना शिविरों का निरीक्षण किया करता था
अब हिटलर के बजाय हिमलर ही यातना शिविरों का निरीक्षण किया करता था. इन निरीक्षणों के परिणामस्वरुप, हिम्म्लर ने हत्या का एक नया और भी अधिक पीड़ादायक उपाय खोज निकाला, जिससे गैस चैम्बरों का इस्तेमाल शुरू हुआ. यातना तथा संहार शिविरों में विरोधियों को बंद किया जाता तथा जो काम करने में असक्षम होते, जैसी कि विकलांग अथवा बच्चे उन्हें यातनाएं दे कर मौत के घाट उतर दिया जाता.
ये सभी शिविर हिम्म्लर की देख रेख में थे. पोज़न में दिया हुआ हिम्मिलर का भाषण 4 अक्टूबर 1943 को, हिमलर ने पोज़न शहर में एसएस की एक गुप्त बैठक में स्पष्ट रूप से यहूदी जनता के खात्मे का उल्लेख किया. इस भाषण में वह हंसते हुए यहूदियों के पूर्णरूप से संहार करने की बात ऐसे कहता है जैसे ये बहुत ही मामूली सा काम हो.
पूरे भाषण में यहूदियों के संहार के बारे में बात करते हुए हिम्म्लर अंत में यह कह कर भाषण ख़तम करता है कि अगर यहूदी हमारे देश जर्मन का हिस्सा बने रहे तो हम उस हाल में पहुंच जायेंगे जो कभी 1916-17 के दशक में हमारा हुआ करता था. भाषण में हिम्मिलर की हिंसात्मक मानसिकता साफ़ तौर पर देखी गयी, और उसकी इसी मानसिकता के चलते हिम्म्लर के संरक्षण में लगभग आठ लाख यहूदियों और अन्य विरोधियों की हत्या का संयोजन किया गया. द्वितीय विश्व युद्ध और हिम्म्लर जून 1942 में जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला कर दिया.
हेन्रिख हिम्म्लर का लक्ष्य सिर्फ़ और सिर्फ़ दुश्मन का सर्वनाश करना था
हिम्म्लर की उपलब्धियों को ध्यान में रख कर जीते हुए क्षेत्रों का संरक्षण उसे इस लक्ष्य के साथ सौंप दिया गया कि वो सोवियत व्यवस्था को पूरी तरह नष्ट कर देगा. अब हिम्म्लर का लक्ष्य सिर्फ़ और सिर्फ़ दुश्मन का सर्वनाश करना था भले ही उसे इसके लिए कुछ भी करना पड़ता. हिम्म्लर ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अपने वैज्ञानिकों को यहां तक आदेश दिए कि वो ऐसे मच्छरों को बॉयोलॉजिकल हथियार के रूप में प्रयोग करे जिसे वो दुश्मन खेमों में भेज कर दुश्मन सिपाहियों को मलेरिया का शिकार बना सकें.
1942 में हिम्म्लर के करीबी साथी रेइनहार्ड हेड्रिक की प्राग के करीब एक हमले के बाद चेक विशेष सेना के हाथों मारे जाने के प्रतिशोध में लिडिसे गांव की महिलाओं और बच्चों सहित पूरी आबादी की ह्त्या कर दी. हेन्रिख का अंत 1944 में हिम्म्लर ने किन्हीं कारणों से हिटलर (जो हिम्म्लर को अपना सबसे बड़ा वफादार मानता था तथा उसे वफादार हिम्म्लर कह कर संबोधित करता था ) के साथ विश्वासघात किया जिसके फलस्वरूप हिटलर ने हिम्म्लर को गद्दार घोषित करते हुए उसे उसके सभी पदों से निष्काषित कर दिया. हिम्म्लर ने अपना नाम और वेशभूषा बदल कर बचने की कोशिश की और साथ ही सभी फर्जी पहचानपत्र भी बनवाए. मगर उसके सभी पहचानपत्रों का क्रम से होना ही उसे शक़ के घेरे में खड़ा कर गया. हिम्म्लर को शक़ के आधार पर 22 मई को मेजर सिडनी एक्सेल द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया. अन्य जर्मन अपराधियों के साथ उस पर भी मुकद्दमा चलाया गया.
मगर पूछताछ पूरी होने से पहले ही उसने अपने दांतों में छुपाया पोटाशियम साईनाईट कैप्सूल चबा कर आत्महत्या कर ली. मरते-मरते उसने अपने आखरी शब्दों, ‘इच बिन हेन्रिख हिम्म्लर (मैं हैन्रिख हिम्म्लर हूं)’ के साथ समर्पण कर दिया. इंसानियत का सबसे बड़ा दुश्मन खुद इंसान ही रहा है, इंसान पर जब भी कहर बरसा है तो उसका कारण खुद इंसान ही रहा है. इस धरती पर अगर कोई खूंखार जानवर है तो वो खुद इन्सान ही है.
हिटलर की मंशा को पूरा करने के लिए हिम्म्लर जैसे कई लोगों ने अपनी दरिंदगी को दर्शाते हुए 60 लाख लोगों को मौत के घाट उतर दिया जिनमें 15 लाख बच्चे थे. और इन सब के बावजूद उन्हें हासिल हुई तो सिर्फ़ मौत. ऐना फ्रेंक जो 13 साल की उम्र में नाजियों द्वारा किये हमले में मारी गयी. उन्होंने अपनी डायरी (‘द डायरी ऑफ ऐना फ्रेंक) में अपना वो सारा डर, वो यातनाएं और समकालीन व्याप्त भय का पूरा विवरण लिखा है. हम विश्व में शांति बनाये रखने हेतु इश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वो ऐसा दौर फिर कभी भूल कर न हमें दिखाए.
Constitution Day of India: आज संविधान दिवस के मौके पर हम आपको एक ऐसी कहानी सुनाने जा रहे हैं जो भारत के कानूनी इतिहास में एक काला अध्याय के रूप में दर्ज है। यह कहानी है इंद्राणी मुखर्जी और उनकी बेटी शीना बोरा की, एक ऐसी कहानी जो रहस्य, धोखा और क्रूरता से भरी हुई है।
शीना बोरा कौन थीं?
शीना बोरा इंद्राणी मुखर्जी की बेटी थीं। वह एक खूबसूरत, प्रतिभाशाली और महत्वाकांक्षी युवती थीं। वह मुंबई मेट्रो वन में असिस्टेंट मैनेजर के पद पर काम करती थीं। लेकिन उनकी जिंदगी एक रहस्यमयी तरीके से खत्म हो गई।
क्या हुआ था 24 अप्रैल 2012 को?
24 अप्रैल 2012 को शीना बोरा अचानक गायब हो गईं। उनके परिवार और दोस्तों ने उनकी खोज शुरू की लेकिन उनका कोई पता नहीं चला। पुलिस में भी शिकायत दर्ज की गई लेकिन कोई सफलता नहीं मिली।
क्या था सच?
कई सालों तक यह रहस्य बना रहा। लेकिन 2015 में एक चौंकाने वाला खुलासा हुआ। पुलिस ने इंद्राणी मुखर्जी को गिरफ्तार किया और आरोप लगाया कि उन्होंने अपनी ही बेटी शीना बोरा की हत्या कर दी थी।
क्या था हत्या का कारण?
पुलिस की जांच में सामने आया कि इंद्राणी मुखर्जी को शीना बोरा का रिश्ता पसंद नहीं था। शीना बोरा अपने प्रेमी राहुल मुखर्जी के साथ रह रही थीं, जो इंद्राणी मुखर्जी के पूर्व पति पीटर मुखर्जी के बेटे थे। इंद्राणी मुखर्जी इस रिश्ते से खुश नहीं थीं और उन्होंने शीना बोरा को खत्म करने का फैसला किया।
कैसे की गई थी हत्या?
पुलिस के मुताबिक, इंद्राणी मुखर्जी ने अपने ड्राइवर शाम्वर राय की मदद से शीना बोरा का अपहरण किया और फिर उनकी हत्या कर दी। उन्होंने शीना बोरा के शव को जला दिया और उसके अवशेषों को मुंबई के पास के जंगल में फेंक दिया।
क्या था सबूत?
पुलिस ने कई सबूत जुटाए, जिनमें शामिल थे:
शीना बोरा के मोबाइल फोन के रिकॉर्ड्स
इंद्राणी मुखर्जी के फोन कॉल रिकॉर्ड्स
शाम्वर राय की बयान
जंगल में मिले हड्डियों के अवशेष
इन सबूतों के आधार पर पुलिस ने इंद्राणी मुखर्जी और शाम्वर राय को गिरफ्तार किया। बाद में, इंद्राणी मुखर्जी के पूर्व पति पीटर मुखर्जी को भी गिरफ्तार किया गया।
क्या हुआ कोर्ट में?
इंद्राणी मुखर्जी, शाम्वर राय और पीटर मुखर्जी के खिलाफ हत्या, अपहरण और साक्ष्य छिपाने के आरोप में मुकदमा चलाया गया। कोर्ट में कई सालों तक सुनवाई चली।
क्या था फैसला?
2022 में कोर्ट ने इंद्राणी मुखर्जी, शाम्वर राय और पीटर मुखर्जी को दोषी करार दिया और उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई।
क्या है अब हालात?
इंद्राणी मुखर्जी, शाम्वर राय और पीटर मुखर्जी फिलहाल जेल में हैं। वे अपनी सजा काट रहे हैं। शीना बोरा के परिवार और दोस्तों को अभी भी इंसाफ की उम्मीद है।
क्या सीख मिलती है इस कहानी से?
यह कहानी हमें सिखाती है कि क्रूरता और धोखा कभी भी अच्छा परिणाम नहीं देता है। हमें हमेशा सच बोलना चाहिए और गलत काम करने से बचना चाहिए। हमें अपने परिवार और दोस्तों का सम्मान करना चाहिए और उनकी खुशी की कामना करनी चाहिए।
यह कहानी हमें यह भी सिखाती है कि कानून सबके लिए समान है। कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। अगर कोई व्यक्ति गलत काम करता है तो उसे सजा मिलनी ही चाहिए।
संविधान दिवस के मौके पर हमें याद रखना चाहिए कि हमारा संविधान हमें न्याय, समानता और स्वतंत्रता का अधिकार देता है। हमें इस अधिकार का सम्मान करना चाहिए और अपने देश के कानून का पालन करना चाहिए।
दुनिया का कोई भी देश दंगों से अछूता नहीं रह पाया है. एक सभ्य समाज कभी भी दंगों की कल्पना नहीं कर सकता, इसके बावजूद अलग अलग कारणों से दंगे होते रहे हैं. लोगों की अलग अलग मानसिकता इन दंगों का सबसे मुख्य कारण बनती हैं. लोगों की यही अलग अलग मानसिकता मतभेद पैदा करती हैं. धार्मिक भावनाओं का आहत होना, या फिर समाजिक व राजनैतिक विचारधारा ऐसे मतभेद पैदा करती हैं जो दंगों का रूप ले लेते हैं. Gistwist आपके लिए भारत के इतिहास में हुए सबसे बड़े दंगों की कहानियां लेकर आया है. जो हमें समझने में मदद करेंगे कि आखिरकार ये दंगे क्यों हुए और इन्हें अंजाम देने के पीछे किनका हाथ था.
बॉम्बे डॉग राइट्स
दंगों की इन कहानियों की शुरुआत हम उस दंगें से जहां “पारसी, अंग्रेज और आवारा कुत्ते सबसे ज्यादा चर्चा में रहे. टोरंटो विश्वविद्यालय के शोध विद्वान Ph.D Jesse S. Palsetia भारत के पारसी समाज के विशेषज्ञ हैं. जेसी ने अपनी किताब और रॉयल एशियाटिक सोसाइटी में लिखे अपने लेख ‘Mad Dogs and Parsis: The Bombay Dog Riots of 1832’ में बताया है कि ये दंगा मुख्य तौर पर उस समय बॉम्बे में रह रहे पारसी समाज और अंग्रेजी हुकूमत के बीच हुआ था. जिसका मुख्य कारण थे आवारा कुत्ते.
कहां से आए पारसी?
कहानी है 1832 की, जब मुंबई बॉम्बे था और पारसी समुदाय के लोग गुलाम भारत में बहुत रसूख रखते थे. उनके अंग्रेजो के साथ अच्छे संबंध थे. जिस वजह से उनको सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक लाभ मिला करता था. गोदरेज, टाटा, सायरस पूनावाला, दादाभाई नोरीजी , होमी जहांगीर भाभा जैसी नामचीन हस्तियां पारसी समुदाय से ही आती हैं.
मुलतः भारत से ना होने के बावजूद पारसियों ने भारत को बड़ा बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. पारसी लोग उस ईरान से संबंध रखते हैं जिसे कभी फारस कहा जाता था. इंडिया में पारसियों के माइग्रेशन का जिक्र करने वाले पहले स्रोत ‘क़िस्सा ए संजान’ के अनुसार, पारसी समुदाय घूमते घामते, समुद्री यात्रा करके गुजरात के समुद्री तट संजान में उतरे. संजान पारसियों की सबसे पहली बस्ती थी. बॉम्बे जब बसाया जा रहा था तब पारसी वहां बसने वालो में सबसे पहले थे.
कुत्तों को क्यों मारना चाहते थे अंग्रेज?
आवारा कुत्तों के लिए हुए दंगे के समय बॉम्बे की जनसंख्या दो लाख थी और इनमें 10738 लोग पारसी थे. अब सोचने वाली बात ये है कि जिन पारसियों के अंग्रेजों के साथ अच्छे संबंध थे उनका अंग्रेजों के साथ विवाद क्यों और कैसे हुआ? दरअसल उस समय अंग्रेजी हुकूमत ने आवारा कुत्तों को ले कर एक कानून पारित किया था. तत्कालीन पुलिस मजिस्ट्रेट ने बॉम्बे के सरकार से एक कानून बनाने को लेकर अनुमति मांगी ताकि बम्बई शहर और द्वीप के आवारा कुत्तों का समाधान किया जा सके.
इस कानून के अनुसार कुत्तों को मरने की मुहीम दो बार चलायी जानी थी, जहां पहले 15 अप्रैल से 15 मई और फिर 15 सितम्बर से 15 अक्टूबर के बीच उन सभी कुत्तों को मारने का लक्ष्य निर्धारित किया गया जिनका कोई मालिक नहीं था. बाद में ज्यादा से ज्यादा कुत्तों को मारने के लिए समय अवधि को बढ़ा कर 15 जून कर दिया गया. आवारा कुत्तों की संख्या कम करने के पीछे गवर्नर जॉन अर्ल क्लेयर ने ये वजह बतायी कि इनकी वजह से आम जनता खतरे में है. इन हानिकारक और जानलेवा जानवरों का हमला रोकने के लिए हमें अगर पुराने कानून बदल कर नए कानून लाने की जरुरत पड़ती है तो वो भी किया जाना चाहिए.
पब्लिक सेफ्टी को आधार बनाकर इस कानून को सही ठहराने की कोशिश की गयी लेकिन जिस तरह से ये इम्प्लीमेंट किया गया वो काफी विवादित रहा. स्पेशल पुलिस को एक कुत्ता मारने के बदले 8 आने का इनाम देने की घोषणा की गयी. कुत्तो को मार कर सड़कों पर सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता था. ये कानून गर्मी के मौसम में उत्पन्न होने वाले रेबिड कुत्तों को खत्म करने के मकसद से लाया गया था लेकिन अब इनाम की वजह से पालतू कुत्ते जो लोगों ने अपने घरों में पाले थे, उनको भी जबरजस्ती निकाल कर मारा जाने लगा.
क्यों हुए थे दंगे?
कुत्तों की हो रही लगातार ह्त्या के कारण लोगों में मानवीय और धार्मिक कारणों की वजह से आक्रोश भर आया. दरअसल, पारसी धर्म में कुत्तों का विशेष स्थान है. कुत्तों के लिए पारसियों के मन में श्रद्धा रहती है. दरअसल, पारसी धर्म Zoroastrian में ऐसी मान्यता है कि कुत्ते Bridge Of Judgement ( चिनवट) के Gardien होते हैं. ऐसा माना जाता था कि मृत्यु के बाद प्रत्येक आत्मा को चिनवट पुल पार करना पड़ता है. और कुत्ते उनके रक्षक हैं.
भावनाएं आहत होने का एक कारण ये भी था कि ये कानून पारसियों के पवित्र दिन और मुसलमानों के रमजान के महीने में ही लागू किया गया था. कुत्तों के लिए पारसियों जितनी श्रद्धा न रखने के बावजूद मुसलमान समुदाय भी इस अमानवीय कृत्य से नाराज था. रमजान के महीने में मरे हुए कुत्तो को सड़कों पर छोड़ने के कारण भी मुस्लिम नाराज थे. वहीं हिन्दू संस्कृति में भी जीव जंतुओं और बेजुबान के लिए प्रेम भाव था.
जेसी के अनुसार, पहली हिंसा बुधवार 6 जून को हुई. शहर में कुत्तो के लिए घेराबंदी करने के दौरान पारसियों द्वारा पुलिस को आगाह किया गया कि कुत्तों का ये कत्लेआम उनकी धार्मिक भावनाओं को आहात कर रहा है, ऐसे में इसे बंद किया जाना चाहिए. घेराबंदी किले में चल रही थी जिसके अंदर बॉम्बे शहर बसा करता था. किला 2 मील लम्बा और तीन चौथाई चौड़ा एरिया कवर करता था. पारसियों की ज्यादातर आबादी इसी किले के अंदर केंद्रित थी. किले के अंदर ही इनके कारोबार, बस्तियां और पूजा स्थल सब थे.
कैसे शुरू हुए दंगे?
उस दिन दो यूरोपियन कांस्टेबल पेट्रोलिंग पर थे. कुत्तो को मारने की कार्यवाही में इनका कोई योगदान नहीं था, वे केवल गश्त पर थे. इनको पारसियों और बाकि भारतियों की भीड़ ने घेर लिया और उन्हें पीटना शुरू कर दिया. एक कांस्टेबल को दर्जन भर घाव लगे जबकि दूसरा छुपता छुपाता वहां से भाग निकला हु. ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ ये पहली ऐसी हिंसक घटना थी जिसे पारसियों ने अंजाम दिया था.
200 से ज्यादा लोगों की भीड़ हाथ में पत्थर ,डंडा, सरिया लिए हुए पुलिसवालों को ढूंढने लगी. इस घटना के बाद पूरा पुलिस महकमा भयभीत हो गया. दुकानें बंद करा दी गयीं. करीब 3 बजे कॉन्स्टेबल्स की पिटाई के बाद पारसियों ने सुप्रीम कोर्ट और पुलिस थानों को घेर लिया और कुत्तों को मारने वाले कानून को वापस लेने की मांग करने लगे. गौर करने वाली बात ये थी कि अपनी कुत्तों के प्रति संवेदना दिखा रही इस भीड़ में अधिकतर पारसी समुदाय के निचले तबके के लोग ही शामिल थे.
निचले तबके से हमारा मतलब है रसोइये, साफ़ सफाई करने वाले, सामान ढोने वाले. इनमें कोई भी नामचीन हस्ती या व्यापारी शामिल नहीं थे. अपना रोष प्रकट करने के बाद भीड़ वापस चली गयी. हालांकि इस घटना के बाद हर तरफ डर का माहौल था, इसी वजह से दुकानों को बंद ही रखा गया. ये आशंका जताई गयी कि दुकानें अगर खुली रहीं तो उन्हें लूटपाट और छति पहुंचाने की कोशिश की जा सकती है. इस पूरी घटना का एकलौता मक़सद अंग्रेजी हुकूमत के समक्ष शक्ति प्रदर्शन करना था. उन्हें ये बताना जरूरी था कि अगर हमारी मांग ना मानी जाने की स्थिति में परिणाम गंभीर हो सकते हैं.
पूरी योजना के साथ किया विरोध
बात यहीं खत्म नहीं हुई, अगले दिन लोग इस तैयारी में जुट गए कि 7 जून को हड़ताल व रोजमर्रा की चीज़ो को रोका जाएगा. भिंडी बाजार और किले के सामने मैदान में लगने वाली दुकाने जबरजस्ती बंद करा दी गयीं. पालकी और घोड़ागाड़ी में बैठकर किले में जाने वाले अंग्रेज अफसरों के काफिले को किले में जाने से रोका जाने लगा. मजिस्ट्रेट Claude Stewart और पैट्रिक स्टीवर्ट की बग्गी को भारी विरोध के बाद वापस जाना पड़ा. कुछ पालकी और घोड़ेगाड़ी पर मरे हुए चूहे, सड़े हुए टमाटर और पत्थर फेंके गए.
इंडिया में रह रहे उस समय के अंग्रेज अफसर अपने हर रोजाना के काम के लिए भारतीयों पर निर्भर थे. जैसे लॉन्ड्री, रोटी, ब्रेड, दूध ,मांस, पहुंचाने वाले सब भारतीय ही थे. इन सबको रोक दिया गया. इन छोटी छोटी जरूरतों को रोक कर अपने आक्रोश को व्यक्त किया गया. जो कल तक भारतियों से गुलामों की तरह काम करवाते थे, अब खुद अपने जरुरत का सामान लेने के लिए अपने लाव-लश्कर के साथ बाजार निकलने को मजबूर थे.
ये पहली ऐसी घटना थी जब लोगों ने धर्म, गरीबी, अमीरी से ऊपर उठकर अंग्रेजो के खिलाफ बगावत की थी. अंग्रेजों ने जब इस घटना की जांच की तब उन्हें पता चला कि ये एक महज छोटी घटना नहीं थी, इसे योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दिया गया था. पारसियों की पंचायत ‘सेठिया महाजन’ और अन्य समुदायों की पंचायतों ने एक साथ मिलकर इस योजना की तैयारी की थी.
घटना के बाद अंग्रेजी हुकूमत को लोगों ने अपनी व्यथा पेटिशन लिख के बताई गयी. जिसमें उनहोंने बताया कि उनके लिए कुत्तों की क्या अहमियत है. इस दंगे मामले में कुछ लोगों को पुलिस ने पकड़ा भी लेकिन सबूतों के आभाव और क्राइम के स्केल को देखते हुए लगभग सभी को छोड़ दिया गया.
मारे गए 63000 से ज़्यादा कुत्ते?
उस दौरान कुत्तों का सफाया किस स्तर पर किया था इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि सरकार का कुत्तों की समस्या से निपटने के लिए वार्षिक खर्च लगभग 3200 रुपये आया करता था. 1823 से 1832 तक कुत्तों को मरने के लिए 31390 रुपये खर्च किए गए थे, जिस दौर में 1000 रुपये रखने वालों को हजारी बाबू कह कर अमीरों की श्रेणी में रखा जाता था उस दौर में ये काफी बड़ी रकम थी. इस खर्च से 63000 कुत्ते मारे गए थे. 7924 कुत्ते ज़िंदा पकड़े गए, इनमें से भी 3500 कुत्तों को मार दिया गया.
हैरानी की बात यह कि जिस दौर में इंसानों के जान की कीमत ही बहुत काम थी, उस दौर में हमारे देशवासी कुत्तों को बचाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत से लड़ गए. उस समय ना Peta था ना ही एनिमल वेलफेयर वाली संस्था फिर भी संस्कृति और अपने धर्म में अटूट विश्वास के कारण लोग इन बेजुबान जानवरों के लिए मसीहा बनकर उभरे.
वीर इस धरा की शोभा माने जाते हैं. उनकी वीर गाथाओं को हमेशा याद रखा जाता है. कुछ को किताबों में सहेजा जाता है तो कुछ को लोकगीतों में, और तो और कई वीरों की याद में तो आज तक महोत्सव मानाये जाते हैं. उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में मनाया जाने वाला कजली महोत्सव भी ऐसा ही एक उत्सव है जिसे दो वीरों की याद में मनाया जाता है.
आइए जानते हैं नौ सौ साल पुराने इस महोत्सव और वीरों के बारे में:
कब मनाया जाता है कजली महोत्सव?
बुन्देलखण्ड की भूमि में तीन दिवसीय कजली मेला पुरानी सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है जिसका आगाज रक्षाबंधन के पर्व पर होगा. पहले दिन बांदा, हमीरपुर, चित्रकूट, छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दतिया व ग्वालियर सहित कई इलाकों से भारी भीड़ जुटेगी. इस एतिहासिक मेले की तैयारी पूरी कर ली गयी है. जिले में तीन दिवसीय कजली मेले का आगाज रक्षाबंधन पर्व के अगले दिन भादों मास की प्रतिपदा को कीरत सागर के तट पर होगा. यह कजलियों व भुजरियों का मेला नाम से भी विख्यात है.
क्यों मनाया जाता है कजली महोत्सव?
इस मेले का नौ सौ साल पुराना इतिहास है. बात है सन् 1182 की, जब राजा परमाल की पुत्री चंद्रावलि 1400 सखियों के साथ भुजरियों के विसर्जन के लिए कीरत सागर जा रही थीं. उस समय रजा परमाल और पृथ्वीराज चौहान के बीच मतभेद चल रहे थे. इस मतभेद और और उरई के नरेश माहिल के उकसाने के कारण पृथ्वीराज चौहान ने उस समय महोबा को चारों ओर से घेराबंदी कर हमला कर दिया था.
जब रक्षाबंधन पर्व की लोग तैयारी कर रहे थे. पृथ्वीराज चौहान के युद्ध के खतरे की चिंता न करती हुयी रानी मल्हना व राजकुमारी चन्द्रावल ने कीरत सागर पर रक्षाबंधन पर्व मनाने का फैसला किया. 1800 डोलों में कजलियों के समूहों के साथ रानी मल्हना अपने महल से 1400 वीरांगना सखियों के साथ कजली खोटनें कीरत सागर तट जा रही थीं तभी रास्ते में पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामुंडा राय ने आक्रमण कर दिया था.
क्या हुआ था युद्ध में?
यह वही समय था जब किसी मतभेद के कारण आल्हा-उदल महोबा छोड़ चुके थे और अपने मित्र मलखान के पास कन्नौज में रह रहे थे. आल्हा ऊदल के न रहने से महारानी मल्हना तलवार ले स्वयं युद्ध में कूद पड़ी थी. दोनों सेनाओं के बीच हुए भीषण युद्ध में राजकुमार अभई मारा गया. चामुंडा राय ने सभी दोलों को लूट लिया. वो राजकुमारी चंद्रावल और डोलों को पश्चिम छोर पचपहरा गांव में अपने शिविर ले गया.
जब आल्हा उदल ने उठाई तलवार
अपने राज्य के अस्तित्व व अस्मिता के संकट की खबर सुन वीर आल्हा ऊदल की तलवारें सभी मतभेदों को भूल गयीं. ये खबर पाते ही कन्नौज से वीर योद्धा आल्हा ऊदल महोबा आये और अभई, रंजित, सैय्यद व लाखन ढेबा के साथ मिलकर पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामुण्डाराय को चारों ओर से घेरकर आक्रमण कर दिया.
इन वीर योद्धाओं ने कसम भी खायी थी कि जब तक रानी के लूटे गये डोले वापस नहीं लायेंगे तब तक रक्षाबंधन पर्व नहीं मनाया जायेगा. पूरे दिन पचपहरा गांव में भीषण संग्राम हुआ जिसमें वीर योद्धा आल्हा ऊदल के हाथों सेनापति चामुण्डाराय पराजित हुआ. वीर योद्धा लूटे गये कजली के डोले वापस लाये.
जब महिलाओं ने थामी तलवारें
चंदेल और चौहान सेनाओं की बीच हुए युद्ध में कीरत सागर की धरती खून से लाल हो गई. युद्ध में दोनों सेनाओं के हजारों योद्धा मारे गये. राजकुमारी चंद्रावल व उनकी सहेलियां अपने भाईयों को राखी बांधने की जगह राज्य की सुरक्षा के लिये युद्ध भूमि में अपना जौहर दिखा रही थी. इसी वजह से भुजरिया विसर्जन भी नहीं हो सका. तभी से यहां एक दिन बाद भुजरिया विसर्जित करने व रक्षाबंधन मनाने की परंपरा है.
महोबा की अस्मिता से जुड़े इस युद्ध में विजय पाने के कारण ही कजली महोत्सव विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है. सावन माह में कजली मेला के समय गांव देहातों में लगने वाली चौपालों में आल्हा गायन सुन यहां के वीर बुंदेलों में आज भी 1100 साल पहले हुई लड़ाई का जोश व जुनून ताजा हो जाता है.
आल्हा-ऊदल की वीरगाथा में कहा गया है ‘बड़े लड़इया महुबे वाले, इनकी मार सही न जाए..!’ युद्ध के कारण बुंदेलखंड की बेटियां रक्षाबंधन के दूसरे दिन ‘कजली’ दफन कर सकी थीं. आल्हा-ऊदल की वीरगाथा के प्रतीक ऐतिहासिक कजली मेले को यहां ‘विजय उत्सव’ के रूप में मनाने की परम्परा आज भी जीवित है.
देशभक्ति का जज्बा हर उम्र के देशवासी की रगों में उबाल ला देता है. बात जब देश की आन पर आ जाए तो क्या बच्चा क्या बूढ़ा, सब के सब, ना दुश्मन को मारने से पहले सोचते हैं और ना खुद के प्राणों की आहुति देने से पहले. देश की आज़ादी के लिए जहां 19 वर्ष के खुदीराम बोस जैसे जोशीले नवयुवक फांसी के फंदे को कहूं गए, वहीं 80 वर्ष के एक योद्धा ने भी अंग्रेजों को नाकों तले चने चवबा दिए.
आज हम आपको उसी 80 वर्ष के योद्धा की अद्भुत कहानी बताने जा रहे हैं:
बूढ़े शेर की दहाड़ से दहले अंग्रेज
कवि मनोरंजन प्रसाद सिंह की एक कविता है जिसके बोल कुछ इस तरह हैं कि:
अस्सी वर्ष की बूढ़ी हड्डी में जागा जोश पुराना था
सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था
जी हां हम यहां बात कर रहे हैं 1857 स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे गुमनाम नायक की जिसकी लोकप्रियता मात्र क्षेत्रीय हो कर रह गई. बाबू वीर कुंवर सिंह के नाम से जाना जाने वाला ये बूढ़ा शेर अंग्रेजों के साथ लड़ते हुए अपने क्षेत्र को आजाद करने वाला एकमात्र राजा था. बाबू वीर कुंवर सिंह ने 23 अप्रैल, 1858 को शाहाबाद क्षेत्र को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराया था. उन्होंने जगदीशपुर के अपने किले से ब्रिटिश झंडे को उतारकर अपना झंडा फहराते हुए इस किले को फतह कर लिया था.
बिहार की धरती को किया था गौरवान्वित
साल 1777 में बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर में जन्मे बाबू वीर कुंवर सिंह के पिता साहबजादा सिंह राजा भोज के वंशजों में से थे. 1826 में पिता की मृत्यु के बाद कुंवर सिंह जगदीशपुर के तालुकदार बने. कुंवर सिंह बचपन से ही बहुत वीर योद्धा थे. वह गुर्रिल्ला युद्ध शैली में बहुत कुशल थे. अपनी इसी कुशलता का प्रयोग उन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई में अंग्रेजों के खिलाफ किया था.
उम्र 80 थी जोश था 20 का
कुंवर सिंह के बारे में सबसे खास बात यही है कि उन्होंने अपनी वीरता को 80 साल की उम्र तक भी बनाए रखा और इस उम्र में भी अंग्रेजों से ऐसे लड़े जैसे कि वह 20 वर्ष के युवा हों. उन्होंने कभी भी अपनी उम्र को खुद पर हावी नहीं होने दिया.
साल 1857 में जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का डंका बजाय तो एक तरफ नाना साहब, तात्या टोपे डटे खड़े अंग्रेजों का लोहा ले रहे थे तो वहीं महारानी रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हजरत महल जैसी वीरांगनाएं अपने तलवार का जौहर दिखा रही थीं. ठीक इसी समय बिहार में एक बूढ़े शेर की दहाड़ ने अंग्रेजों के पसीने छुड़ा दिए यहे. बाबू वीर कुंवर सिंह ने भी ब्रिटिश शासकों के खिलाफ लड़ रहे बिहार के दानापुर के क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया.
80 साल की उम्र में जहां शरीर आराम चाहता है वहीं कुंवर सिंह अपनी हड्डियों में बारूद और न्यास न्यास में देशभक्ति की लहर लिए अपने सेनानी भाइयों के साथ अंग्रेजों का डटकर मुकाबला कर रहे थे. कुंवर सिंह के दो भाई थे हरे कृष्णा और अमर सिंह, जो उनके सेनापति भी थे.
खड़ी कर दी थी अपनी सेना
साल 1848-49 में जब अंग्रेजी शासकों ने विलय नीति अपनाई जिसके बाद भारत के बड़े-बड़े शासकों के अंदर रोष और डर जाग गया. वीर कुंवर सिंह को अंग्रेजों की ये बात रास ना आई और वह उनके खिलाफ उठ खड़े हुए. अपने इस क्रोध को एक आग में बदलते हुए कुंवर सिंह ने दानापुर रेजिमेंट, रामगढ़ के सिपाहियों और बंगाल के बैरकपुर के साथ मिल कर अंग्रेजो के खिलाफ धावा बोल दिया.
दूसरी तरफ मेरठ, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, झांसी और दिल्ली में भी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह जोर पकड़ने लगा. इस दौरान वीर कुंवर सिंह ने अपने साहस, पराक्रम और कुशल सैन्य शक्ति का उद्धहरण पेश करते हुए सेनाओं का नेतृत्व किया और ब्रिटिश सरकार को घुटनों पर ला दिया.
उन्होंने अपने पराक्रम से आरा शहर, जगदीशपुर तथा आजमगढ़ आजाद कराया. ये कुंवर सिंह ही थे जिनके कारण अंग्रेजी हुकूमत के बीच आजमगढ़ 81 दिनों तक आजाद रहा था.
जब गंगा को समर्पित कर दी थी अपनी बांह
1958 में जगदीशपुर के किले पर अंग्रेजों का झंडा उखाड़कर अपना झंडा फहराने के बाद बाबू वीर कुंवर सिंह अपनी पलटन के साथ बलिया के पास शिवपुरी घाट से गंगा कशतियों में नदी पार कर रहे थे. इस बात की भनक अंग्रेजों को लग चुकी थी और उन्होंने मौका देखते हुए बिना किसी सूचना के वीर कुंवर सिंह को घेर लिया और उनपर गोलीबारी करने लगे.
इसी गोलीबारी में कुंवर सिंह के बाएं हाथ में गोली लग गई. बांह में लगी गोली का जहर पूरे शरीर में फैलता जा रहा था. दूसरी तरफ कुंवर सिंह ये नहीं चाहते थे कि उनका शरीर जिंदा या मुर्दा अंग्रेजों के हाथ लगे. इसी सोच के साथ उन्होंने अपनी तलवार से अपनी वह बांह ही काट दी जिस पर गोली लगी थी और उसे गंगा नदी को समर्पित कर दिया. इसके बाद वह एक ही हाथ से अंग्रेजों का सामना करते रहे.
घायल अवस्था में होने के बावजूद उनकी हिम्मत नहीं टूटी और ना ही वह अंग्रेजों के हाथ आए. उनकी वीरता को देखते हुए एक ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा कि ‘यह गनीमत थी कि युद्ध के समय उस कुंवर सिंह की उम्र 80 थी. अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता.’
23 अप्रैल 1858 को वह अंग्रेजों को धूल चटा कर अपने महल में वापिस लौटे लेकिन उनका घाव इतना गहरा हो चुका था कि वह बच ना सके. 26 अप्रैल 1858 को इस बूढ़े शेर ने दुनिया को अलविदा कह दिया.
आज हम अगर आजाद भारत में चैन की सांस ले रहे हैं तो उसकी वजह कुंवर सिंह जैसे वीर ही हैं. ऐसे नायकों को पूरे देश से सम्मान मिलना जरूरी है और ऐसा तभी होगा जब इनके बारे में केवल बिहार और पूर्वाञ्चल के लोग नहीं बल्कि पूरा देश जानेगा.