एक ऐसी मां जिसे राज्य की रक्षा के लिए उसके मासूम बच्चे से दूर कर दिया गया. वो भी वो बच्चा जिसका उसकी प्यारी मां के अलावा इस दुनिया में कोई और सहारा भी न था. इसके बावजूद वो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मोर्चा लेती रहीं. ये दर्द सहने वाली कोई और नहीं बल्कि पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह की पत्नी रानी जिंद कौर थीं.
रानी जिंद कौर ने पति की मृत्यु के बाद पंजाब का शासन ही नहीं संभाला, बल्कि अंग्रेजों के खिलाफ कठोर नीतियां भी अपनाई. इनकी इन्हीं रणनीतियों की वजह से अंग्रेज़ खौफ खाते थे. ऐसे में हमारे लिए पंजाब की वीरांगना रानी जिंद कौर की जिंदगी से रूबरू होना दिलचस्प होगा. तो आइए शुरू करते हैं:
पिता सरदार मन्ना सिंह कुत्तों की रखवाली किया करते थे
रानी जिंद कौर का जन्म 1817 में हुआ. इनके पिता सरदार मन्ना सिंह कुत्तों की रखवाली किया करते थे. उन्होंने महाराजा रणजीत सिंह से अपनी बेटी को पत्नी के रूप में स्वीकार करने का अनुरोध किया था. रणजीत सिंह ने कई शादियां की थी, परन्तु इन्हें वारिस के रूप में सिर्फ पुत्र खड़क सिंह की ही प्राप्ति हुई थी. उनकी भी तबियत लगातार ख़राब रहती थी. ऐसे में महाराजा ने 1835 में जिंद कौर को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया.
रानी जिंद कौर महाराज की सभी पत्नियों में बेहद खूबसूरत थीं. शादी के बाद इन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया. जिनका नाम दिलीप सिंह रखा गया. महाराजा रणजीत सिंह उनमें अपना उत्तराधिकारी की झलक देखते थे.
आगे, 1839 में महाराजा रणजीत की मृत्यु हो गई. इसके बाद पंजाब राज्य में अराजकता का माहौल पैदा हो गया. शासन के लिए कई हत्याएं व साजिशें भी रची गईं. उस दौरान उनको महराजा रणजीत सिंह के भरोसेमंद लोगों से विश्वासघात भी मिला. कइयों ने अंदर ही अंदर अंग्रेजों से गुटबाजी कर रखी थी.
महाराजा रणजीत सिंह की मौत के बाद संभाला शासन
बहरहाल, रानी ज़िन्दा कौर ने हार नहीं मानी. वो लाहौर दरबार के एक शक्तिशाली गुट को अपने पक्ष में करने में कामयाब रहीं. उनके समर्थन से उन्होंने 1843 में दिलीप सिंह को 5 वर्ष की आयु में ही पंजाब की गद्दी पर बैठा दिया. बेटे दिलीप सिंह के नाबालिग होने की वजह से वो खुद उनकी संरक्षिका बनी.
इसके बाद पंजाब राज्य में वो कुशल शासिका के रूप में उभर कर सामने आईं. जनता उनसे खुश थी. उन्होंने अपने शासनकाल में कई निर्णायक फैसले भी लिए थे. रानी ज़िन्दाकौर अपने वजीर राजा लाल सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी सेना को शक्तिशाली बनाने का बीड़ा उठाया.
वो अंत में महराजा रणजीत सिंह की सेना को फिर से बल देने में कामयाब भी रहीं. इसी दौरान इनके काम को देखते हुए पंजाब राज्य में इन्हें सिख समुदाय की ‘मां’ के ओहदे से भी नवाज़ा गया.
अंग्रेजीं सरकार रानी ज़िन्दा कौर से खौफ खाने लगी थी
परन्तु, युद्ध के दौरान रानी ज़िन्दा कौर ने अंग्रेजों के विरुद्ध कई ठोस कदम उठाये. उन्होंने अपने सैन्य बल से अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे. अंग्रेजीं सरकार उनसे खौफ खाने लगी थी. शायद इसीलिए उन्होंने इन्हें ‘विद्रोही रानी’ भी कहकर संबोधित किया था. रानी अपनी कुशल नीतियों से ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध मोर्चा लेती रहीं. उनके कड़े फैसले से लगातार ब्रिटिश सरकार परेशान रहने लगी. वो उनकी नज़रों में चुभने लगी थीं.
इसके चलते प्रथम युद्ध की समाप्ति के समय रानी व ब्रिटिश शासन के बीच एक संधि हुई थी. इस संधि के तहत वो राजकुमार दिलीप सिंह की संरक्षिका बनी रहीं. इस बीच भी रानी जिंद अंग्रेजों के खिलाफ षड्यंत्र रचती रहीं.
उनकी गतिविधियों के चलते ब्रिटिश सरकार उन्हें संदेह की नज़रों से देखने लगे. अंग्रेजों ने उनके डर से 1848 में उन पर एक अभियोग चलाया. इसके बाद उन्हें लाहौर से हटा दिया गया. जब द्वितीय सिख युद्ध शुरू हुआ तो रानी कौर की अनुपस्थिति में पंजाब कमज़ोर पड़ गया था. जिसके चलते पंजाब पर ब्रिटिश सरकार का कब्ज़ा हो गया.
1857 की क्रांति में भी रानी ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था
रानी कौर को चुनार किले में नज़रबंद कर दिया गया था. इस दौरान उनकी पेंशन में भी अत्यधिक मात्रा में कटौती कर दी गई. ब्रिटिश सरकार के द्वारा उन्हें पंजाब मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए कठोर चेतावनी भी दी गई थी. गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने जोर देकर कहा “वह राज्य के सभी सैनिकों के मुकाबले अधिक मूल्यवान हैं”.
बहरहाल, 1949 में रानी जिंद एक नौकरानी का भेष बदलकर चुनार किले भाग निकलने में कामयाब रहीं. कई सौ मिल का सफ़र करने के बाद वो नेपाल पहुंची थीं. वहां काठमांडू में उन्होंने शरण लिया. इतिहासकारों की मानें तो 1857 की क्रांति में भी उन्होंने कश्मीर के महाराजा के साथ बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था.
इस दौरान उनके 9 वर्षीय पुत्र दिलीप सिंह को अंग्रेजों ने लंदन भेज दिया था. रानी को अपने बेटे से दूर होने पर गहरा दुःख पहुंचा था. वो उससे मिलने के लिए तड़पती रहीं, मगर दुष्ट ब्रिटिश सरकार ने उन्हें उनसे दूर रखा. सरकार उस दौरान भी इन पर पैनी नज़र बनाये हुए थे.
अपने पुत्र को गले लगाने के लिए कई साल तरसती रही रानी
खैर, बालक दिलीप सिंह वहां रानी विक्टोरिया के दरबार में अपने दोस्तों के संग पले बढ़े. दिलीप सिंह ने वहां पर ईसाई धर्म को अपना लिया था. उन्हें इंग्लैंड में ‘ब्लैक प्रिंस’ के नाम से बुलाया जाने लगा था. मां जिंद और बेटे दिलीप ने एक दूसरे से मिलने के लिए कई प्रयास किए. वे असफल रहे. रानी ने कई ख़त भी अपने पुत्र के लिए लिखे, मगर उसे दिलीप सिंह तक नहीं पहुंचाया गया. उन दोनों के कई पत्र बाद में मिले भी थे. जिनको पढ़ने के बाद एक दुखयारी मां की ममता व एक बेटे का मां से अद्भुत प्यार की झलकियां देखने को मिलती हैं.
इन दोनों को इतना दूर रखने के पीछे भी एक वजह थी. ब्रिटिश सरकार को इस बात का डर था कि कहीं रानी व दिलीप सिंह के राजनीतिक सोच से नकारात्मक प्रभाव न पड़े. इसीलिए अंग्रेजी हुकूमत कभी नहीं चाहती थी कि ये मां बेटे कभी मिलें. महारानी अपने बेटे से दूर होने की वजह से कितना उदास थी वो अपने पत्रों में बयान करती हैं वो कहती हैं “जिस बच्चे को उन्होंने 9 महीने अपनी कोख में पाला, उन्हें ब्रिटिश सरकार उनसे अलग कर दिया है”.
एक मां और बेटे ने कई परेशानियों का सामना किया था. इसके बावजूद उनका संबंध अटूट रहा. एक लंबे समय के बाद 1861 में इन दोनों मां और बेटे की मुलाकात संभव हो सकी.
जब बेटा मिला अपने जीवन के अंतिम पढ़ाव पर थीं रानी
जिस वक़्त दिलीप सिंह अपनी मां से मिले वे अपने जीवन के अंतिम पढ़ाव पर थीं. वो एक आँख से नेत्रहीन भी हो चुकी थीं. दिलीप सिंह अनुमति प्राप्त करने के बाद अपनी मां को लेकर इंग्लैंड चले गए. रानी जिंद अपने बेटे के साथ बेहद खुश थीं. वो उनके साथ वहां लगभग दो साल बिताये थे.
1863 में रानी जिंद कौर ने इंग्लैंड में ही अंतिम सांसे लीं. महाराज दिलीप सिंह उनका अंतिम संस्कार पंजाब में करना चाहते थे, मगर पंजाब में उनके अंतिम संस्कार की अनुमति नहीं दी गई.
इसके बाद दिलीप सिंह अपनी मां रानी जिंद कौर के शव को लेकर मुंबई आये. वहां गोदावरी नदी के तट पर उनका अन्तिम संस्कार किया. बाद में दिलीप ने अपनी मां के नाम स्मारक भी बनवाया था.
तो ये थी पंजाब की बहादुर रानी ज़िन्दा कौर की जिंदगी से जुड़े कुछ दिलचस्प बातें, जो एक साधारण युवती से महारानी बनी थी.इसी के साथ ही जब उनके पति की मृत्यु हुई तो कुशल शासिका भी बनी.
Constitution Day of India: आज संविधान दिवस के मौके पर हम आपको एक ऐसी कहानी सुनाने जा रहे हैं जो भारत के कानूनी इतिहास में एक काला अध्याय के रूप में दर्ज है। यह कहानी है इंद्राणी मुखर्जी और उनकी बेटी शीना बोरा की, एक ऐसी कहानी जो रहस्य, धोखा और क्रूरता से भरी हुई है।
शीना बोरा कौन थीं?
शीना बोरा इंद्राणी मुखर्जी की बेटी थीं। वह एक खूबसूरत, प्रतिभाशाली और महत्वाकांक्षी युवती थीं। वह मुंबई मेट्रो वन में असिस्टेंट मैनेजर के पद पर काम करती थीं। लेकिन उनकी जिंदगी एक रहस्यमयी तरीके से खत्म हो गई।
क्या हुआ था 24 अप्रैल 2012 को?
24 अप्रैल 2012 को शीना बोरा अचानक गायब हो गईं। उनके परिवार और दोस्तों ने उनकी खोज शुरू की लेकिन उनका कोई पता नहीं चला। पुलिस में भी शिकायत दर्ज की गई लेकिन कोई सफलता नहीं मिली।
क्या था सच?
कई सालों तक यह रहस्य बना रहा। लेकिन 2015 में एक चौंकाने वाला खुलासा हुआ। पुलिस ने इंद्राणी मुखर्जी को गिरफ्तार किया और आरोप लगाया कि उन्होंने अपनी ही बेटी शीना बोरा की हत्या कर दी थी।
क्या था हत्या का कारण?
पुलिस की जांच में सामने आया कि इंद्राणी मुखर्जी को शीना बोरा का रिश्ता पसंद नहीं था। शीना बोरा अपने प्रेमी राहुल मुखर्जी के साथ रह रही थीं, जो इंद्राणी मुखर्जी के पूर्व पति पीटर मुखर्जी के बेटे थे। इंद्राणी मुखर्जी इस रिश्ते से खुश नहीं थीं और उन्होंने शीना बोरा को खत्म करने का फैसला किया।
कैसे की गई थी हत्या?
पुलिस के मुताबिक, इंद्राणी मुखर्जी ने अपने ड्राइवर शाम्वर राय की मदद से शीना बोरा का अपहरण किया और फिर उनकी हत्या कर दी। उन्होंने शीना बोरा के शव को जला दिया और उसके अवशेषों को मुंबई के पास के जंगल में फेंक दिया।
क्या था सबूत?
पुलिस ने कई सबूत जुटाए, जिनमें शामिल थे:
शीना बोरा के मोबाइल फोन के रिकॉर्ड्स
इंद्राणी मुखर्जी के फोन कॉल रिकॉर्ड्स
शाम्वर राय की बयान
जंगल में मिले हड्डियों के अवशेष
इन सबूतों के आधार पर पुलिस ने इंद्राणी मुखर्जी और शाम्वर राय को गिरफ्तार किया। बाद में, इंद्राणी मुखर्जी के पूर्व पति पीटर मुखर्जी को भी गिरफ्तार किया गया।
क्या हुआ कोर्ट में?
इंद्राणी मुखर्जी, शाम्वर राय और पीटर मुखर्जी के खिलाफ हत्या, अपहरण और साक्ष्य छिपाने के आरोप में मुकदमा चलाया गया। कोर्ट में कई सालों तक सुनवाई चली।
क्या था फैसला?
2022 में कोर्ट ने इंद्राणी मुखर्जी, शाम्वर राय और पीटर मुखर्जी को दोषी करार दिया और उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई।
क्या है अब हालात?
इंद्राणी मुखर्जी, शाम्वर राय और पीटर मुखर्जी फिलहाल जेल में हैं। वे अपनी सजा काट रहे हैं। शीना बोरा के परिवार और दोस्तों को अभी भी इंसाफ की उम्मीद है।
क्या सीख मिलती है इस कहानी से?
यह कहानी हमें सिखाती है कि क्रूरता और धोखा कभी भी अच्छा परिणाम नहीं देता है। हमें हमेशा सच बोलना चाहिए और गलत काम करने से बचना चाहिए। हमें अपने परिवार और दोस्तों का सम्मान करना चाहिए और उनकी खुशी की कामना करनी चाहिए।
यह कहानी हमें यह भी सिखाती है कि कानून सबके लिए समान है। कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। अगर कोई व्यक्ति गलत काम करता है तो उसे सजा मिलनी ही चाहिए।
संविधान दिवस के मौके पर हमें याद रखना चाहिए कि हमारा संविधान हमें न्याय, समानता और स्वतंत्रता का अधिकार देता है। हमें इस अधिकार का सम्मान करना चाहिए और अपने देश के कानून का पालन करना चाहिए।
दुनिया का कोई भी देश दंगों से अछूता नहीं रह पाया है. एक सभ्य समाज कभी भी दंगों की कल्पना नहीं कर सकता, इसके बावजूद अलग अलग कारणों से दंगे होते रहे हैं. लोगों की अलग अलग मानसिकता इन दंगों का सबसे मुख्य कारण बनती हैं. लोगों की यही अलग अलग मानसिकता मतभेद पैदा करती हैं. धार्मिक भावनाओं का आहत होना, या फिर समाजिक व राजनैतिक विचारधारा ऐसे मतभेद पैदा करती हैं जो दंगों का रूप ले लेते हैं. Gistwist आपके लिए भारत के इतिहास में हुए सबसे बड़े दंगों की कहानियां लेकर आया है. जो हमें समझने में मदद करेंगे कि आखिरकार ये दंगे क्यों हुए और इन्हें अंजाम देने के पीछे किनका हाथ था.
बॉम्बे डॉग राइट्स
दंगों की इन कहानियों की शुरुआत हम उस दंगें से जहां “पारसी, अंग्रेज और आवारा कुत्ते सबसे ज्यादा चर्चा में रहे. टोरंटो विश्वविद्यालय के शोध विद्वान Ph.D Jesse S. Palsetia भारत के पारसी समाज के विशेषज्ञ हैं. जेसी ने अपनी किताब और रॉयल एशियाटिक सोसाइटी में लिखे अपने लेख ‘Mad Dogs and Parsis: The Bombay Dog Riots of 1832’ में बताया है कि ये दंगा मुख्य तौर पर उस समय बॉम्बे में रह रहे पारसी समाज और अंग्रेजी हुकूमत के बीच हुआ था. जिसका मुख्य कारण थे आवारा कुत्ते.
कहां से आए पारसी?
कहानी है 1832 की, जब मुंबई बॉम्बे था और पारसी समुदाय के लोग गुलाम भारत में बहुत रसूख रखते थे. उनके अंग्रेजो के साथ अच्छे संबंध थे. जिस वजह से उनको सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक लाभ मिला करता था. गोदरेज, टाटा, सायरस पूनावाला, दादाभाई नोरीजी , होमी जहांगीर भाभा जैसी नामचीन हस्तियां पारसी समुदाय से ही आती हैं.
मुलतः भारत से ना होने के बावजूद पारसियों ने भारत को बड़ा बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. पारसी लोग उस ईरान से संबंध रखते हैं जिसे कभी फारस कहा जाता था. इंडिया में पारसियों के माइग्रेशन का जिक्र करने वाले पहले स्रोत ‘क़िस्सा ए संजान’ के अनुसार, पारसी समुदाय घूमते घामते, समुद्री यात्रा करके गुजरात के समुद्री तट संजान में उतरे. संजान पारसियों की सबसे पहली बस्ती थी. बॉम्बे जब बसाया जा रहा था तब पारसी वहां बसने वालो में सबसे पहले थे.
कुत्तों को क्यों मारना चाहते थे अंग्रेज?
आवारा कुत्तों के लिए हुए दंगे के समय बॉम्बे की जनसंख्या दो लाख थी और इनमें 10738 लोग पारसी थे. अब सोचने वाली बात ये है कि जिन पारसियों के अंग्रेजों के साथ अच्छे संबंध थे उनका अंग्रेजों के साथ विवाद क्यों और कैसे हुआ? दरअसल उस समय अंग्रेजी हुकूमत ने आवारा कुत्तों को ले कर एक कानून पारित किया था. तत्कालीन पुलिस मजिस्ट्रेट ने बॉम्बे के सरकार से एक कानून बनाने को लेकर अनुमति मांगी ताकि बम्बई शहर और द्वीप के आवारा कुत्तों का समाधान किया जा सके.
इस कानून के अनुसार कुत्तों को मरने की मुहीम दो बार चलायी जानी थी, जहां पहले 15 अप्रैल से 15 मई और फिर 15 सितम्बर से 15 अक्टूबर के बीच उन सभी कुत्तों को मारने का लक्ष्य निर्धारित किया गया जिनका कोई मालिक नहीं था. बाद में ज्यादा से ज्यादा कुत्तों को मारने के लिए समय अवधि को बढ़ा कर 15 जून कर दिया गया. आवारा कुत्तों की संख्या कम करने के पीछे गवर्नर जॉन अर्ल क्लेयर ने ये वजह बतायी कि इनकी वजह से आम जनता खतरे में है. इन हानिकारक और जानलेवा जानवरों का हमला रोकने के लिए हमें अगर पुराने कानून बदल कर नए कानून लाने की जरुरत पड़ती है तो वो भी किया जाना चाहिए.
पब्लिक सेफ्टी को आधार बनाकर इस कानून को सही ठहराने की कोशिश की गयी लेकिन जिस तरह से ये इम्प्लीमेंट किया गया वो काफी विवादित रहा. स्पेशल पुलिस को एक कुत्ता मारने के बदले 8 आने का इनाम देने की घोषणा की गयी. कुत्तो को मार कर सड़कों पर सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता था. ये कानून गर्मी के मौसम में उत्पन्न होने वाले रेबिड कुत्तों को खत्म करने के मकसद से लाया गया था लेकिन अब इनाम की वजह से पालतू कुत्ते जो लोगों ने अपने घरों में पाले थे, उनको भी जबरजस्ती निकाल कर मारा जाने लगा.
क्यों हुए थे दंगे?
कुत्तों की हो रही लगातार ह्त्या के कारण लोगों में मानवीय और धार्मिक कारणों की वजह से आक्रोश भर आया. दरअसल, पारसी धर्म में कुत्तों का विशेष स्थान है. कुत्तों के लिए पारसियों के मन में श्रद्धा रहती है. दरअसल, पारसी धर्म Zoroastrian में ऐसी मान्यता है कि कुत्ते Bridge Of Judgement ( चिनवट) के Gardien होते हैं. ऐसा माना जाता था कि मृत्यु के बाद प्रत्येक आत्मा को चिनवट पुल पार करना पड़ता है. और कुत्ते उनके रक्षक हैं.
भावनाएं आहत होने का एक कारण ये भी था कि ये कानून पारसियों के पवित्र दिन और मुसलमानों के रमजान के महीने में ही लागू किया गया था. कुत्तों के लिए पारसियों जितनी श्रद्धा न रखने के बावजूद मुसलमान समुदाय भी इस अमानवीय कृत्य से नाराज था. रमजान के महीने में मरे हुए कुत्तो को सड़कों पर छोड़ने के कारण भी मुस्लिम नाराज थे. वहीं हिन्दू संस्कृति में भी जीव जंतुओं और बेजुबान के लिए प्रेम भाव था.
जेसी के अनुसार, पहली हिंसा बुधवार 6 जून को हुई. शहर में कुत्तो के लिए घेराबंदी करने के दौरान पारसियों द्वारा पुलिस को आगाह किया गया कि कुत्तों का ये कत्लेआम उनकी धार्मिक भावनाओं को आहात कर रहा है, ऐसे में इसे बंद किया जाना चाहिए. घेराबंदी किले में चल रही थी जिसके अंदर बॉम्बे शहर बसा करता था. किला 2 मील लम्बा और तीन चौथाई चौड़ा एरिया कवर करता था. पारसियों की ज्यादातर आबादी इसी किले के अंदर केंद्रित थी. किले के अंदर ही इनके कारोबार, बस्तियां और पूजा स्थल सब थे.
कैसे शुरू हुए दंगे?
उस दिन दो यूरोपियन कांस्टेबल पेट्रोलिंग पर थे. कुत्तो को मारने की कार्यवाही में इनका कोई योगदान नहीं था, वे केवल गश्त पर थे. इनको पारसियों और बाकि भारतियों की भीड़ ने घेर लिया और उन्हें पीटना शुरू कर दिया. एक कांस्टेबल को दर्जन भर घाव लगे जबकि दूसरा छुपता छुपाता वहां से भाग निकला हु. ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ ये पहली ऐसी हिंसक घटना थी जिसे पारसियों ने अंजाम दिया था.
200 से ज्यादा लोगों की भीड़ हाथ में पत्थर ,डंडा, सरिया लिए हुए पुलिसवालों को ढूंढने लगी. इस घटना के बाद पूरा पुलिस महकमा भयभीत हो गया. दुकानें बंद करा दी गयीं. करीब 3 बजे कॉन्स्टेबल्स की पिटाई के बाद पारसियों ने सुप्रीम कोर्ट और पुलिस थानों को घेर लिया और कुत्तों को मारने वाले कानून को वापस लेने की मांग करने लगे. गौर करने वाली बात ये थी कि अपनी कुत्तों के प्रति संवेदना दिखा रही इस भीड़ में अधिकतर पारसी समुदाय के निचले तबके के लोग ही शामिल थे.
निचले तबके से हमारा मतलब है रसोइये, साफ़ सफाई करने वाले, सामान ढोने वाले. इनमें कोई भी नामचीन हस्ती या व्यापारी शामिल नहीं थे. अपना रोष प्रकट करने के बाद भीड़ वापस चली गयी. हालांकि इस घटना के बाद हर तरफ डर का माहौल था, इसी वजह से दुकानों को बंद ही रखा गया. ये आशंका जताई गयी कि दुकानें अगर खुली रहीं तो उन्हें लूटपाट और छति पहुंचाने की कोशिश की जा सकती है. इस पूरी घटना का एकलौता मक़सद अंग्रेजी हुकूमत के समक्ष शक्ति प्रदर्शन करना था. उन्हें ये बताना जरूरी था कि अगर हमारी मांग ना मानी जाने की स्थिति में परिणाम गंभीर हो सकते हैं.
पूरी योजना के साथ किया विरोध
बात यहीं खत्म नहीं हुई, अगले दिन लोग इस तैयारी में जुट गए कि 7 जून को हड़ताल व रोजमर्रा की चीज़ो को रोका जाएगा. भिंडी बाजार और किले के सामने मैदान में लगने वाली दुकाने जबरजस्ती बंद करा दी गयीं. पालकी और घोड़ागाड़ी में बैठकर किले में जाने वाले अंग्रेज अफसरों के काफिले को किले में जाने से रोका जाने लगा. मजिस्ट्रेट Claude Stewart और पैट्रिक स्टीवर्ट की बग्गी को भारी विरोध के बाद वापस जाना पड़ा. कुछ पालकी और घोड़ेगाड़ी पर मरे हुए चूहे, सड़े हुए टमाटर और पत्थर फेंके गए.
इंडिया में रह रहे उस समय के अंग्रेज अफसर अपने हर रोजाना के काम के लिए भारतीयों पर निर्भर थे. जैसे लॉन्ड्री, रोटी, ब्रेड, दूध ,मांस, पहुंचाने वाले सब भारतीय ही थे. इन सबको रोक दिया गया. इन छोटी छोटी जरूरतों को रोक कर अपने आक्रोश को व्यक्त किया गया. जो कल तक भारतियों से गुलामों की तरह काम करवाते थे, अब खुद अपने जरुरत का सामान लेने के लिए अपने लाव-लश्कर के साथ बाजार निकलने को मजबूर थे.
ये पहली ऐसी घटना थी जब लोगों ने धर्म, गरीबी, अमीरी से ऊपर उठकर अंग्रेजो के खिलाफ बगावत की थी. अंग्रेजों ने जब इस घटना की जांच की तब उन्हें पता चला कि ये एक महज छोटी घटना नहीं थी, इसे योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दिया गया था. पारसियों की पंचायत ‘सेठिया महाजन’ और अन्य समुदायों की पंचायतों ने एक साथ मिलकर इस योजना की तैयारी की थी.
घटना के बाद अंग्रेजी हुकूमत को लोगों ने अपनी व्यथा पेटिशन लिख के बताई गयी. जिसमें उनहोंने बताया कि उनके लिए कुत्तों की क्या अहमियत है. इस दंगे मामले में कुछ लोगों को पुलिस ने पकड़ा भी लेकिन सबूतों के आभाव और क्राइम के स्केल को देखते हुए लगभग सभी को छोड़ दिया गया.
मारे गए 63000 से ज़्यादा कुत्ते?
उस दौरान कुत्तों का सफाया किस स्तर पर किया था इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि सरकार का कुत्तों की समस्या से निपटने के लिए वार्षिक खर्च लगभग 3200 रुपये आया करता था. 1823 से 1832 तक कुत्तों को मरने के लिए 31390 रुपये खर्च किए गए थे, जिस दौर में 1000 रुपये रखने वालों को हजारी बाबू कह कर अमीरों की श्रेणी में रखा जाता था उस दौर में ये काफी बड़ी रकम थी. इस खर्च से 63000 कुत्ते मारे गए थे. 7924 कुत्ते ज़िंदा पकड़े गए, इनमें से भी 3500 कुत्तों को मार दिया गया.
हैरानी की बात यह कि जिस दौर में इंसानों के जान की कीमत ही बहुत काम थी, उस दौर में हमारे देशवासी कुत्तों को बचाने के लिए अंग्रेजी हुकूमत से लड़ गए. उस समय ना Peta था ना ही एनिमल वेलफेयर वाली संस्था फिर भी संस्कृति और अपने धर्म में अटूट विश्वास के कारण लोग इन बेजुबान जानवरों के लिए मसीहा बनकर उभरे.
वीर इस धरा की शोभा माने जाते हैं. उनकी वीर गाथाओं को हमेशा याद रखा जाता है. कुछ को किताबों में सहेजा जाता है तो कुछ को लोकगीतों में, और तो और कई वीरों की याद में तो आज तक महोत्सव मानाये जाते हैं. उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में मनाया जाने वाला कजली महोत्सव भी ऐसा ही एक उत्सव है जिसे दो वीरों की याद में मनाया जाता है.
आइए जानते हैं नौ सौ साल पुराने इस महोत्सव और वीरों के बारे में:
कब मनाया जाता है कजली महोत्सव?
बुन्देलखण्ड की भूमि में तीन दिवसीय कजली मेला पुरानी सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है जिसका आगाज रक्षाबंधन के पर्व पर होगा. पहले दिन बांदा, हमीरपुर, चित्रकूट, छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दतिया व ग्वालियर सहित कई इलाकों से भारी भीड़ जुटेगी. इस एतिहासिक मेले की तैयारी पूरी कर ली गयी है. जिले में तीन दिवसीय कजली मेले का आगाज रक्षाबंधन पर्व के अगले दिन भादों मास की प्रतिपदा को कीरत सागर के तट पर होगा. यह कजलियों व भुजरियों का मेला नाम से भी विख्यात है.
क्यों मनाया जाता है कजली महोत्सव?
इस मेले का नौ सौ साल पुराना इतिहास है. बात है सन् 1182 की, जब राजा परमाल की पुत्री चंद्रावलि 1400 सखियों के साथ भुजरियों के विसर्जन के लिए कीरत सागर जा रही थीं. उस समय रजा परमाल और पृथ्वीराज चौहान के बीच मतभेद चल रहे थे. इस मतभेद और और उरई के नरेश माहिल के उकसाने के कारण पृथ्वीराज चौहान ने उस समय महोबा को चारों ओर से घेराबंदी कर हमला कर दिया था.
जब रक्षाबंधन पर्व की लोग तैयारी कर रहे थे. पृथ्वीराज चौहान के युद्ध के खतरे की चिंता न करती हुयी रानी मल्हना व राजकुमारी चन्द्रावल ने कीरत सागर पर रक्षाबंधन पर्व मनाने का फैसला किया. 1800 डोलों में कजलियों के समूहों के साथ रानी मल्हना अपने महल से 1400 वीरांगना सखियों के साथ कजली खोटनें कीरत सागर तट जा रही थीं तभी रास्ते में पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामुंडा राय ने आक्रमण कर दिया था.
क्या हुआ था युद्ध में?
यह वही समय था जब किसी मतभेद के कारण आल्हा-उदल महोबा छोड़ चुके थे और अपने मित्र मलखान के पास कन्नौज में रह रहे थे. आल्हा ऊदल के न रहने से महारानी मल्हना तलवार ले स्वयं युद्ध में कूद पड़ी थी. दोनों सेनाओं के बीच हुए भीषण युद्ध में राजकुमार अभई मारा गया. चामुंडा राय ने सभी दोलों को लूट लिया. वो राजकुमारी चंद्रावल और डोलों को पश्चिम छोर पचपहरा गांव में अपने शिविर ले गया.
जब आल्हा उदल ने उठाई तलवार
अपने राज्य के अस्तित्व व अस्मिता के संकट की खबर सुन वीर आल्हा ऊदल की तलवारें सभी मतभेदों को भूल गयीं. ये खबर पाते ही कन्नौज से वीर योद्धा आल्हा ऊदल महोबा आये और अभई, रंजित, सैय्यद व लाखन ढेबा के साथ मिलकर पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामुण्डाराय को चारों ओर से घेरकर आक्रमण कर दिया.
इन वीर योद्धाओं ने कसम भी खायी थी कि जब तक रानी के लूटे गये डोले वापस नहीं लायेंगे तब तक रक्षाबंधन पर्व नहीं मनाया जायेगा. पूरे दिन पचपहरा गांव में भीषण संग्राम हुआ जिसमें वीर योद्धा आल्हा ऊदल के हाथों सेनापति चामुण्डाराय पराजित हुआ. वीर योद्धा लूटे गये कजली के डोले वापस लाये.
जब महिलाओं ने थामी तलवारें
चंदेल और चौहान सेनाओं की बीच हुए युद्ध में कीरत सागर की धरती खून से लाल हो गई. युद्ध में दोनों सेनाओं के हजारों योद्धा मारे गये. राजकुमारी चंद्रावल व उनकी सहेलियां अपने भाईयों को राखी बांधने की जगह राज्य की सुरक्षा के लिये युद्ध भूमि में अपना जौहर दिखा रही थी. इसी वजह से भुजरिया विसर्जन भी नहीं हो सका. तभी से यहां एक दिन बाद भुजरिया विसर्जित करने व रक्षाबंधन मनाने की परंपरा है.
महोबा की अस्मिता से जुड़े इस युद्ध में विजय पाने के कारण ही कजली महोत्सव विजयोत्सव के रूप में मनाया जाता है. सावन माह में कजली मेला के समय गांव देहातों में लगने वाली चौपालों में आल्हा गायन सुन यहां के वीर बुंदेलों में आज भी 1100 साल पहले हुई लड़ाई का जोश व जुनून ताजा हो जाता है.
आल्हा-ऊदल की वीरगाथा में कहा गया है ‘बड़े लड़इया महुबे वाले, इनकी मार सही न जाए..!’ युद्ध के कारण बुंदेलखंड की बेटियां रक्षाबंधन के दूसरे दिन ‘कजली’ दफन कर सकी थीं. आल्हा-ऊदल की वीरगाथा के प्रतीक ऐतिहासिक कजली मेले को यहां ‘विजय उत्सव’ के रूप में मनाने की परम्परा आज भी जीवित है.
देशभक्ति का जज्बा हर उम्र के देशवासी की रगों में उबाल ला देता है. बात जब देश की आन पर आ जाए तो क्या बच्चा क्या बूढ़ा, सब के सब, ना दुश्मन को मारने से पहले सोचते हैं और ना खुद के प्राणों की आहुति देने से पहले. देश की आज़ादी के लिए जहां 19 वर्ष के खुदीराम बोस जैसे जोशीले नवयुवक फांसी के फंदे को कहूं गए, वहीं 80 वर्ष के एक योद्धा ने भी अंग्रेजों को नाकों तले चने चवबा दिए.
आज हम आपको उसी 80 वर्ष के योद्धा की अद्भुत कहानी बताने जा रहे हैं:
बूढ़े शेर की दहाड़ से दहले अंग्रेज
कवि मनोरंजन प्रसाद सिंह की एक कविता है जिसके बोल कुछ इस तरह हैं कि:
अस्सी वर्ष की बूढ़ी हड्डी में जागा जोश पुराना था
सब कहते हैं कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था
जी हां हम यहां बात कर रहे हैं 1857 स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे गुमनाम नायक की जिसकी लोकप्रियता मात्र क्षेत्रीय हो कर रह गई. बाबू वीर कुंवर सिंह के नाम से जाना जाने वाला ये बूढ़ा शेर अंग्रेजों के साथ लड़ते हुए अपने क्षेत्र को आजाद करने वाला एकमात्र राजा था. बाबू वीर कुंवर सिंह ने 23 अप्रैल, 1858 को शाहाबाद क्षेत्र को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराया था. उन्होंने जगदीशपुर के अपने किले से ब्रिटिश झंडे को उतारकर अपना झंडा फहराते हुए इस किले को फतह कर लिया था.
बिहार की धरती को किया था गौरवान्वित
साल 1777 में बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर में जन्मे बाबू वीर कुंवर सिंह के पिता साहबजादा सिंह राजा भोज के वंशजों में से थे. 1826 में पिता की मृत्यु के बाद कुंवर सिंह जगदीशपुर के तालुकदार बने. कुंवर सिंह बचपन से ही बहुत वीर योद्धा थे. वह गुर्रिल्ला युद्ध शैली में बहुत कुशल थे. अपनी इसी कुशलता का प्रयोग उन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई में अंग्रेजों के खिलाफ किया था.
उम्र 80 थी जोश था 20 का
कुंवर सिंह के बारे में सबसे खास बात यही है कि उन्होंने अपनी वीरता को 80 साल की उम्र तक भी बनाए रखा और इस उम्र में भी अंग्रेजों से ऐसे लड़े जैसे कि वह 20 वर्ष के युवा हों. उन्होंने कभी भी अपनी उम्र को खुद पर हावी नहीं होने दिया.
साल 1857 में जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का डंका बजाय तो एक तरफ नाना साहब, तात्या टोपे डटे खड़े अंग्रेजों का लोहा ले रहे थे तो वहीं महारानी रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हजरत महल जैसी वीरांगनाएं अपने तलवार का जौहर दिखा रही थीं. ठीक इसी समय बिहार में एक बूढ़े शेर की दहाड़ ने अंग्रेजों के पसीने छुड़ा दिए यहे. बाबू वीर कुंवर सिंह ने भी ब्रिटिश शासकों के खिलाफ लड़ रहे बिहार के दानापुर के क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया.
80 साल की उम्र में जहां शरीर आराम चाहता है वहीं कुंवर सिंह अपनी हड्डियों में बारूद और न्यास न्यास में देशभक्ति की लहर लिए अपने सेनानी भाइयों के साथ अंग्रेजों का डटकर मुकाबला कर रहे थे. कुंवर सिंह के दो भाई थे हरे कृष्णा और अमर सिंह, जो उनके सेनापति भी थे.
खड़ी कर दी थी अपनी सेना
साल 1848-49 में जब अंग्रेजी शासकों ने विलय नीति अपनाई जिसके बाद भारत के बड़े-बड़े शासकों के अंदर रोष और डर जाग गया. वीर कुंवर सिंह को अंग्रेजों की ये बात रास ना आई और वह उनके खिलाफ उठ खड़े हुए. अपने इस क्रोध को एक आग में बदलते हुए कुंवर सिंह ने दानापुर रेजिमेंट, रामगढ़ के सिपाहियों और बंगाल के बैरकपुर के साथ मिल कर अंग्रेजो के खिलाफ धावा बोल दिया.
दूसरी तरफ मेरठ, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, झांसी और दिल्ली में भी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह जोर पकड़ने लगा. इस दौरान वीर कुंवर सिंह ने अपने साहस, पराक्रम और कुशल सैन्य शक्ति का उद्धहरण पेश करते हुए सेनाओं का नेतृत्व किया और ब्रिटिश सरकार को घुटनों पर ला दिया.
उन्होंने अपने पराक्रम से आरा शहर, जगदीशपुर तथा आजमगढ़ आजाद कराया. ये कुंवर सिंह ही थे जिनके कारण अंग्रेजी हुकूमत के बीच आजमगढ़ 81 दिनों तक आजाद रहा था.
जब गंगा को समर्पित कर दी थी अपनी बांह
1958 में जगदीशपुर के किले पर अंग्रेजों का झंडा उखाड़कर अपना झंडा फहराने के बाद बाबू वीर कुंवर सिंह अपनी पलटन के साथ बलिया के पास शिवपुरी घाट से गंगा कशतियों में नदी पार कर रहे थे. इस बात की भनक अंग्रेजों को लग चुकी थी और उन्होंने मौका देखते हुए बिना किसी सूचना के वीर कुंवर सिंह को घेर लिया और उनपर गोलीबारी करने लगे.
इसी गोलीबारी में कुंवर सिंह के बाएं हाथ में गोली लग गई. बांह में लगी गोली का जहर पूरे शरीर में फैलता जा रहा था. दूसरी तरफ कुंवर सिंह ये नहीं चाहते थे कि उनका शरीर जिंदा या मुर्दा अंग्रेजों के हाथ लगे. इसी सोच के साथ उन्होंने अपनी तलवार से अपनी वह बांह ही काट दी जिस पर गोली लगी थी और उसे गंगा नदी को समर्पित कर दिया. इसके बाद वह एक ही हाथ से अंग्रेजों का सामना करते रहे.
घायल अवस्था में होने के बावजूद उनकी हिम्मत नहीं टूटी और ना ही वह अंग्रेजों के हाथ आए. उनकी वीरता को देखते हुए एक ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा कि ‘यह गनीमत थी कि युद्ध के समय उस कुंवर सिंह की उम्र 80 थी. अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता.’
23 अप्रैल 1858 को वह अंग्रेजों को धूल चटा कर अपने महल में वापिस लौटे लेकिन उनका घाव इतना गहरा हो चुका था कि वह बच ना सके. 26 अप्रैल 1858 को इस बूढ़े शेर ने दुनिया को अलविदा कह दिया.
आज हम अगर आजाद भारत में चैन की सांस ले रहे हैं तो उसकी वजह कुंवर सिंह जैसे वीर ही हैं. ऐसे नायकों को पूरे देश से सम्मान मिलना जरूरी है और ऐसा तभी होगा जब इनके बारे में केवल बिहार और पूर्वाञ्चल के लोग नहीं बल्कि पूरा देश जानेगा.