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कहानी उस Dabur की जिसे एक वैद्य ने 137 साल पहले एक कमरे से शुरू किया, अब है 1 लाख करोड़ का साम्राज्य

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किसी भी बड़े बिजनेस साम्राज्य की शुरुआत हमेशा छोटे स्तर से ही होती है. बिजनेस की नींव रखने वाले अपना काम कर के चले गए, इसके बाद उनकी आने वाली पीढ़ियों ने ये तय किया वे इस नींव पर झोंपड़ी खड़ी करेंगे या फिर कामयाबी की बहुमंजिला इमारत. डाबर नामक बिजनेस साम्राज्य की नींव भी आज से लगभग 130 साल पहले ऐसे ही छोटे स्तर पर रखी गई थी लेकिन उनके बाद आने वाली पीढ़ी ने इस नींव पर सफलता की इमारत खड़ी कर दी. 

तो चलिए आज हम आपको बताते हैं डाबर जैसे ब्रांड की कामयाबी की कहानी : 

आज कहां है डाबर कंपनी?

पंजाब के पठानकोट जिला के नीम पहाड़ी क्षेत्र धार कलां के गांव हाड़ा की एक महिला का हमेशा लोग मज़ाक उड़ाते थे. ये 75 वर्षीय महिला जब भी अपने हाथों से बने उत्पाद लेकर बाजार की तरफ जाती तो लोग इनका मजाक उड़ाते हुए कहते कि ये तो कहीं भी झोला लेकर चल देती है. लेकिन इस महिला ने किसी की एक नहीं सुनी और अपने बनाए खाद्य उत्पादों को लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करती रहीं. आज सुदर्शना नामक ये महिला कई ग्रामीण महिलाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं. सुदर्शना को राष्ट्रीय स्तर पर महिला किसान अवार्ड के लिए चुना गया तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वह सम्मानित हुईं. 

आप सोच रहे होंगे कि डाबर की कामयाबी की कहानी में सुदर्शना की क्या भूमिका है. तो जान लीजिए कि सुदर्शना जैसी महिलाओं से ही डाबर है और डाबर ही वो कंपनी है जिसने इन जैसी कई महिलाओं को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई है. सुदर्शना सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाकर अपने बगीचों के आम, आंवले और बांस से बने उत्पाद ऑनलाइन बेचने व लाखों रुपये की कमाई करके महिला सशक्तिकरण की मिसाल बन गई हैं. और उनकी इस सफलता में विश्वविख्यात कंपनी डाबर ने उनकी मदद की. आज वो डाबर की थोक सप्लायर भी हैं. उन्हीं के ग्रुप से आंवला और अन्य सामान डाबर को सप्लाई किया जाता है. 

ऐसे बहुत से जरूरतमन्द लोग हैं जिनको आगे बढ़ाने में डाबर ने अपनी अहम भूमिका निभाई है. हालांकि ये भी सच है कि इन जैसे लोगों की वजह से ही आज डाबर देश का भरोसेमंद ब्रांड बना हुआ है. ऐसे में इस ब्रांड की सक्सेस स्टोरी जानना हम सबके लिए जरूरी है. 

कैसे हुई डाबर की शुरुआत 

साल था 1884, आज आधुनिकता की दौड़ का हिस्सा बना हमारा देश उन दिनों हैजा और मलेरिया जैसी बीमारियों से उतना ही परेशान था जितना आज कोरोना से. ये बीमारियां उन दिनों ऐसी थीं जिनका इलाज जल्दी संभव नहीं था. इसी दौर में एक आयुर्वेदिक डॉक्टर हुए, जिनका नाम था डॉ एस के बर्मन. कलकत्ता के डॉ एस के बर्मन ने एक वैद्य के रूप में अपने छोटे से क्लीनिक में लोगों का आयुर्वेदिक इलाज करने से अपने करियर की शुरुआत की. उन्होंने आयुर्वेद की मदद से हैजा और मलेरिया में कारगर साबित होने वाली दवाइयां भी बनाईं. 1884 ही वो साल था जब डॉ बर्मन ने आयुर्वेदिक हेल्थकेयर प्रोडक्ट बनाने की शुरुआत की. दरअसल उनकी ये शुरुआत ही डाबर जैसे हेल्थ केयर बिजनेस की नींव थी. 

कैसे पड़ा ‘डाबर’ नाम 

डॉ बर्मन को लोग डाक्टर कहा करते थे. ऐसे में उन्होंने अपने ही नाम से शब्द लेकर अपने हेल्थ केयर प्रोडक्ट्स कंपनी का नाम रखा. उन्होंने डाक्टर का ‘डा’ और बर्मन का ‘बर’ लेकर इस ब्रांड को नया नाम दिया डाबर. डॉ साहब कहां जानते थे कि उनके द्वारा रखा गया ये नाम एक दिन पूरे देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में अपना नाम करेगा. हाथ से ही जड़ी बूटियां कूट कर अपने उत्पाद बनाने वाले डॉ बर्मन के प्रोडक्ट 1896 तक इतने लोकप्रिय हो गए कि उन्हें एक फैक्ट्री लगानी पड़ी. 

डॉ बर्मन की मौत के बाद डाबर का सफर 

डाबर धीरे धीरे सफलता की ऊंचाइयां छूने की तरफ बढ़ रहा था लेकिन उन्हीं दिनों 1907 में डॉ एस के बर्मन डाबर को अपनी अगली पीढ़ी के हाथों में सौंप कर हमेशा के लिए इस दुनिया से चल बसे. उनके शुरू किये इस हेल्थ केयर बिजनेस की बागडोर अब उनके बेटे सी एल बर्मन के हाथ में थी. आगे सीएल बर्मन की सोच ही ये साबित करने वाली थी कि वह अपने पिता के इस बिजनेस को कामयाबी की ऊंचाइयों तक ले जाएंगे या फिर फिर से सब कुछ सिमट जाएगा. लेकिन सी अल बर्मन ने वही किया जो एक होनहार बेटा कर सकता है. उन्होंने डाबर के लिए रिसर्च लैब की शुरुआत की इसके साथ ही कंपनी के प्रोडक्ट्स का विस्तार भी किया.

डाबर ने की दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की 

कलकत्ता की तंग गलियों में शुरू हुआ डाबर का सफर 1972 में दिल्ली के साहिबाबाद की विशाल फैक्ट्री, रिसर्च और डेवलपमेंट सेंटर तक पहुंच चुका था. कंपनी का मुनाफा इतना बढ़ गया था कि 1994 में इसने अपने शेयर लॉन्च कर दिए. इधर लोगों का भरोसा भी इस स्वदेशी कंपनी पर बन चुका था. नतीजा ये निकला कि डाबर का IPO 21 गुना ज्यादा सब्सक्राइब किया गया.

डॉ बर्मन ने अपने हाथों से जिन हेल्थ केयर प्रोडक्ट्स को बनाने की शुरुआत की थी वो 1996 तक इतने ज्यादा बढ़ गए कि उन्हें तीन हिस्सों में बांटना पड़ा. अब डाबर हेल्थकेयर, फैमिली प्रोडक्ट और आयुर्वेदिक प्रोडक्ट जैसे तीन हिस्सों में बंट चुका था. 

पहली बार बना कोई बाहरी सीईओ 

1998 में बर्मन परिवार पहला ऐसा व्यवसायी परिवार बना जिसने खुद को कंपनी की सीईओ पोस्ट से अलग रखते हुए किसी बाहरी को कंपनी का सीईओ चुना. अब डाबर कंपनी की बागडोर बर्मन परिवार के हाथों से निकाल कर  प्रोफेशनल्स के हाथों में सौंप दी गई थी. इसका नतीजा ये निकला कि साल 2000 में पहली बार डाबर कंपनी का टर्नओवर 1 हजार करोड़ के आंकड़े के पार पहुंचा.

2005 में डाबर ने 143 करोड़ रुपए में ओडोनिल जैसे हाइजीन प्रोडक्ट बनाने वाली बल्सरा ग्रुप का अधिग्रहण किया. 2006 में डाबर का मार्केट कैप 2 बिलियन डॉलर पार कर चुका था और 2008 में इस कंपनी ने फेम केयर फार्मा का अधिग्रहण कर लिया. 2010 में डाबर ने होबी कॉस्मेटिक नाम की पहली विदेशी कंपनी का अधिग्रहण किया. 2011 में डाबर ने प्रोफेशनल स्किन केयर मार्केट में एंट्री की. डाबर ने इसी साल अजंता फार्मा की 30-प्लस का अधिग्रहण किया. 

बचपन की यादों में है डाबर 

डाबर हमारी बचपन की यादों से भी जुड़ा हुआ है. चटकारे लेकर खाने वाले हाजमोला से लेकर सर्दियों में खाए जाने वाले डाबर च्यवनप्राश तक हमने डाबर के कई उत्पादों को अपने करीब पाया है. आज डाबर, च्यवनप्राश, डाबर हनी, डाबर हनीटस, डाबर पुदीन हरा, डाबर लाल तेल, डाबर आंवला, डाबर रेड पेस्ट, रियल जूस और वाटिका जैसे कई प्रोडक्ट्स को चला रहा है. इसी के साथ इन्हीं 9 सेगमेंट में नए-नए प्रोडक्ट भी लॉन्च किए गए हैं.

डॉ एस के बर्मन द्वारा छोटे से क्लिनिक से शुरू हुआ डाबर का सफर कामयाबी की उन बुलंदियों तक पहुंच चुका है जहां बर्मन परिवार की टोटल नेट वर्थ 11.8 बिलियन डॉलर हो गई है. तथा इस कंपनी को डॉ सी के बर्मन की पांचवीं पीढ़ी चला रही है. 

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TrueDNA: भारत की सबसे उन्नत Genomics Services स्टार्टअप

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TrueDNA: India's Most Advanced Genomics Services Startup

आज के समय में Genomics और Precision Medicine के क्षेत्र में भारत में एक नई क्रांति आ रही है, और इस क्रांति का नेतृत्व कर रहा है TrueDNA, जो भारत का सबसे उन्नत Genomics Services स्टार्टअप है। TrueDNA ने नवीनतम तकनीक और AI का उपयोग करते हुए, डेटा विश्लेषण से लेकर व्यक्तिगत और सटीक चिकित्सा तक, हर कदम पर नवाचार किया है।

TrueDNA उन लोगों के लिए एक बेहतरीन विकल्प है जो अपने स्वास्थ्य के बारे में सटीक जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं। यह स्टार्टअप Genomics के सभी पहलुओं में विशेषज्ञता प्रदान करता है और लोगों को सटीक चिकित्सा और व्यक्तिगत उपचार में मदद करता है।

TrueDNA की प्रमुख Genomics Services

TrueDNA Genomics Services के क्षेत्र में निम्नलिखित सेवाएं प्रदान करता है:

  • Genetic Testing: TrueDNA के द्वारा किए जाने वाले जेनेटिक परीक्षण आपके DNA के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं, जिससे आपको अपनी स्वास्थ्य स्थिति को समझने में मदद मिलती है।
  • Personalized Medicine: TrueDNA का लक्ष्य है हर व्यक्ति के लिए व्यक्तिगत चिकित्सा समाधान प्रदान करना, जो उनकी जेनेटिक संरचना पर आधारित होते हैं। इससे रोगों का जल्दी पता चलता है और उपचार के परिणाम अधिक प्रभावी होते हैं।
  • Precision Medicine: यह एक तकनीक है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की Genomic जानकारी का इस्तेमाल करके उन्हें सटीक इलाज दिया जाता है। Precision Medicine उपचार को अधिक प्रभावी और व्यक्तिगत बनाता है।
  • Genomic Data Analysis: TrueDNA में डेटा विश्लेषण के लिए अत्याधुनिक AI तकनीक का उपयोग किया जाता है, जो जेनेटिक डेटा का गहन विश्लेषण करके सटीक निष्कर्ष प्रदान करता है।
  • Genetic Counseling: TrueDNA का एक और महत्वपूर्ण पहलू है जेनेटिक काउंसलिंग, जिसमें आपके जेनेटिक डेटा के आधार पर स्वास्थ्य समस्याओं के जोखिमों के बारे में आपको मार्गदर्शन दिया जाता है।
  • Rare Disease Diagnosis: TrueDNA के माध्यम से दुर्लभ बीमारियों का पता जल्दी लगाया जा सकता है, जिन्हें सामान्य परीक्षणों से नहीं पहचाना जा सकता।
  • Genetic Research: TrueDNA Genomics में नवीनतम शोध और प्रयोगों के द्वारा, नए उपचार विकल्पों और बीमारियों के इलाज पर काम करता है।
  • AI & Machine Learning in Genomics: TrueDNA AI और Machine Learning का उपयोग Genomic डेटा के विश्लेषण में करता है, जिससे बेहतर परिणाम और सटीक निष्कर्ष प्राप्त होते हैं।

TrueDNA की सेवाएं भारत के प्रमुख शहरों में उपलब्ध

TrueDNA की Genomics Services अब भारत के हर बड़े शहर में उपलब्ध हैं, जिससे लोग Genomics और Personalized Medicine का लाभ उठा पा रहे हैं। TrueDNA की सेवाएं निम्नलिखित प्रमुख शहरों में उपलब्ध हैं:

  • Delhi
  • Mumbai
  • Bengaluru
  • Kolkata
  • Hyderabad
  • Chennai
  • Pune
  • Gurugram
  • Chandigarh
  • Lucknow
  • Jaipur
  • Indore
  • Ahmedabad

TrueDNA की सेवाएं इन शहरों के नागरिकों के लिए पूरी तरह से सुलभ और सुविधाजनक हैं।

TrueDNA की विशेषज्ञता और तकनीकी पहलू

TrueDNA ने Genomics Services के क्षेत्र में अपने उच्चतम स्तर की सेवाओं के लिए AI और नवीनतम तकनीकी का उपयोग किया है। इसके अलावा, TrueDNA के प्रयोगशाला में उच्च गुणवत्ता वाले उपकरण और तकनीकी प्रक्रियाएं हैं, जो सभी परीक्षणों को सटीक और विश्वसनीय बनाती हैं।

TrueDNA से संपर्क करें

अगर आप TrueDNA की सेवाओं का लाभ उठाना चाहते हैं या Genomics Services, Personalized Medicine या Precision Medicine के बारे में अधिक जानकारी चाहते हैं, तो आप हमसे निम्नलिखित संपर्क विवरणों के माध्यम से संपर्क कर सकते हैं:

  • ईमेल: contact@truedna.in
  • पता: ANDC Instarts, Govindpuri, Kalkaji, New Delhi-110019

TrueDNA की टीम हमेशा आपके स्वास्थ्य और कल्याण में सहायता के लिए तत्पर है।

निष्कर्ष

TrueDNA ने Genomics Services और Personalized Medicine के क्षेत्र में अपनी विशेषज्ञता से एक नई दिशा दी है। AI और अन्य नवीनतम तकनीकों के साथ, TrueDNA अब भारत के विभिन्न शहरों में अपनी सेवाएं उपलब्ध करवा रहा है। यदि आप अपने स्वास्थ्य के बारे में सटीक जानकारी चाहते हैं और Genomics Services के माध्यम से बेहतर चिकित्सा उपचार की तलाश में हैं, तो TrueDNA आपके लिए सबसे उपयुक्त विकल्प है।

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मां-बेटे की जोड़ी ने कर दिया कमाल: 4000 रुपये से शुरू किया बिजनेस, अब कमा रहे ₹2.5 लाख महीना

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Success Story Of Saroj Prajapati And Amit Prajapati

मध्य प्रदेश के अशोक नगर की 43 वर्षीय सरोज प्रजापति ने अपने बेटे अमित प्रजापति के साथ मिलकर एक अद्भुत सफलता की कहानी लिखी है। अपने छोटे से निवेश ₹4,000 से शुरू किया गया ‘मॉम्स मैजिक पिकल इंडिया’ अब हर महीने ₹2.5 लाख की कमाई कर रहा है। 

कैसे हुई ‘मॉम्स मैजिक पिकल इंडिया’ की शुरुआत?

सरोज ने अपने बिजनेस की शुरुआत किचन से की थी। अपने जीवन के सबसे मुश्किल समय में भी, सरोज ने हार मानने की बजाय अपने सपनों को साकार करने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने अचार को विशेष बनाने के लिए सभी प्राकृतिक सामग्री का उपयोग किया और बिना किसी केमिकल या प्रिजर्वेटिव के अचार बनाए।

सरोज के 19 वर्षीय बेटे अमित प्रजापति ने इस यात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अमित ने अपनी मां के ब्रांड ‘मॉम्स मैजिक पिकल इंडिया’ को सोशल मीडिया पर प्रमोट किया। उन्होंने ब्रांड के लिए एक प्रभावी डिजिटल मार्केटिंग रणनीति बनाई, जिससे उन्हें पहले ही महीने में पहला ऑर्डर मिल गया।

काम कर गया आइडिया और बदल गई मां-बेटे की जिंदगी

आज अमित ब्रांड के डिजिटल मार्केटिंग और ब्रांड बिल्डिंग के क्षेत्र में एक प्रमुख नाम बन चुके हैं। कहानी यहीं खत्म नहीं होती। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार जैसे-जैसे सरोज के अचार की मांग बढ़ी, उन्होंने अपने व्यवसाय का विस्तार किया। उन्होंने एक बड़ा उत्पादन स्थल स्थापित किया।

जानकारी के मुताबिक सरोज ने 30 स्थानीय महिलाओं को रोजगार दिया। बता दें, एक बेहद आम परिवार से आती हैं। उनका जन्म मध्य प्रदेश के बरखेड़ी गांव में हुआ था, जहां उनके माता-पिता किसान थे। शिक्षा के सीमित अवसरों के बावजूद, सरोज ने अपने परिवार के साथ खेतों में अचार बनाना सीखा।

खुद कभी स्कूल नहीं गईं, आज दूसरों को रोजगार दे रही हैं

अपनी किशोरावस्था में, उन्होंने कच्चे आम का पहला अचार बनाया था। इसे बनाने में उन्हें जो आनंद मिला, वही आनंद आज उनके सफल अचार व्यवसाय की नींव बन गया। सरोज की शादी 20 साल की उम्र में हुई थी और उसके बाद वह शाडोरा चली गईं। परिवार की जिम्मेदारियों और बच्चों की देखभाल के साथ-साथ सरोज ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे आठ साल तक गांव की सरपंच भी रहीं, लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों के बाद उन्होंने अपने सपनों की ओर कदम बढ़ाया।

अब, आम के अचार से शुरुआत करके, उन्होंने हरी मिर्च, नींबू, मिक्स सब्जी और मीठे आम जैसे विभिन्न अचार भी बनाना शुरू कर दिया है। सरोज प्रजापति की सफलता की कहानी एक प्रेरणा है कि किस प्रकार एक साधारण शुरुआत से एक बड़ी सफलता की ओर बढ़ा जा सकता है।

मां और बेटे की इस जोड़ी के जुनून और समर्पण को सलाम

इस मां-बेटे की जोड़ी ने अपने जुनून और समर्पण से साबित कर दिया कि अगर मन में ठान लिया जाए तो कोई भी सपना पूरा किया जा सकता है। उनके प्रयासों और मेहनत की कहानी निश्चित रूप से हमें प्रेरित करती है और दिखाती है कि सच्ची मेहनत और लगन से क्या कुछ नहीं किया जा सकता।

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गुब्बारे बेचने वाले शख्स ने 46,000 करोड़ की MRF कंपनी खड़ी कर दुनिया को सिखाया बिजनेस करना

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देश के बच्चे बच्चे ने MRF का नाम सुना होगा. किसी ने सचिन तेंदुलकर के बैट पर लगे स्टिकर से ये नाम जाना तो किसी ने सड़कों पर दौड़ती गाड़ियों के पहिये देख. आज भी देश में बड़ी संख्या में लोग टायर के मामले में एमआरएफ पर ही भरोसा करते हैं. आज इस कंपनी का जो नाम है उसे बनाने और चमकाने के पीछे एक संघर्षपूर्ण कहानी है. आपको जानकार हैरानी होगी कि इस बड़ी कंपनी को एक गुब्बारे बेचने वाले ने खड़ा किया था. चलिए जानते हैं MRF और इसे बनाने वाले शख्स की पूरी कहानी.  

गुब्बारे बेचने वाले K. M. Mammen Mappillai कैसे बने MRF फाउंडर? 

साल 1922 में केरल के एक ईसाई परिवार में एक बच्चे का जन्म हुआ. ये बच्चा अपने 10 भाई-बहनों में से एक था. इतने बड़े परिवार का पेट पालने के लिए सबको मेहनत करनी पड़ती थी. इस बच्चे ने भी चेन्नई की सड़कों पर गुब्बारे बेचे. गली-गली घूम कर गुबारे बेचने वाले इस बच्चे ने कभी नहीं सोचा होगा कि एक दिन आएगा जब वो 46,341 करोड़ के मार्केट कैप वाली कंपनी का मालिक होगा. 

इस बच्चे को दुनिया ने आगे चल कर केएम मैम्मेन मप्पिलाई (K. M. Mammen Mappillai) के नाम से जाना. मैम्मेन के लिए साल 1952 में एक बड़ा बदलाव आया. उन्होंने इस बात पर गौर किया कि एक विदेशी कंपनी टायर रिट्रेडिंग प्लांट को ट्रेड रबर की सप्लाई कर रही थी. तब उनके दिमाग में एक बात खटकी. उन्होंने सोचा कि हमारे देश में ही ट्रेड रबर बनाने के लिए फ्रैक्ट्री क्यों नहीं लगाई जा सकती.

विदेशी कंपनियों से थी टक्कर 

मैम्मेन को इसमें एक अच्छा अवसर दिखाई दिया. जिसके बाद उन्होंने ट्रेड रबर बनाने के बिजनस में उतरने का फैसला किया. जिसके बाद मैम्मेन ने अपनी सारी बचत लगा कर मद्रास रबर फैक्ट्री यानी एमआरएफ को खड़ा किया. मैम्मेन के इस फैसले के बाद ही भारत को ट्रेड रबर बनाने वाली पहली कंपनी मिली. उनका मुकाबला केवल विदेशी कंपनियों से था. होदे ही समय में मैम्मेन का बिजनस चल पड़ा. अपनी अच्छी क्वालिटी की वजह से MRF ने 4 साल में ही मार्केट में अपनी 50% हिस्सेदारी हासिल कर ली. MRF सफलता देख कई विदेशी मैन्यूफैक्चरर देश छोड़कर चले गए.

टायर बिजनेस में रखा कदम 

साल 1960 में मैम्मेन के बिजनस में एक बार फिर से टर्निंग पॉइंट आया. ट्रेड रबर बिजनेस में सफलता हासिल करने के बाद अब मैम्मेन टायरों के बिजनेस में हाथ आजमाना चाहते थे. उस समय मैम्मेन को अमेरिका की मैन्सफील्ड टायर एंड रबर कंपनी जैसी विदेशी कंपनियों की मदद लेनी. इस कंपनी से उन्होंने तकनीकी सहयोग लिया और टायर मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट स्थापित कर दी. साल 1961 में एमआरएफ की फैक्ट्री से पहला टायर बनकर निकला था. उसी साल कंपनी मद्रास स्टॉक एक्सचेंज में अपना आईपीओ लेकर आई थी.

उस समय इंडियन टायर मैन्यूफैक्चरिंग इंडस्ट्री में डनलप, फायरस्टोन और गुडइयर जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बादशाहत थी. लेकिन एमआरएफ ने विदेशी कंपनियों की सोच से हट कर काम किया. उन्होंने तिरुवोट्टियूर में बनाए गए रबड़ रिसर्च सेंटर की मदद से भारत की सड़कों के अनुरूप टायर बनाना शुरू किया. अब बारी थी कंपनी की मार्केटिंग कि जिसे मजबूती दी 1964 में सामने आए MRF मसलमैन ने. इसने कंपनी के टायर की मजबूती को दर्शाने का काम किया. मसलमैन का इस्तेमाल टीवी विज्ञापनों और होर्डिंग में किया गया. 

नंबर 1 रहा है MRF

इसके बाद कंपनी साल 1967 में यूएसए को टायर एक्सपोर्ट करने वाली भारत की पहली कंपनी बनी. 1973 में MRF व्यावसायिक रूप से नायलॉन ट्रेवल कार टायरों की मैन्यूफैक्चरिंग और मार्केटिंग करने वाली भारत की पहली कंपनी बनी. 1973 में MRF ने पहला रेडियल टायर बनाया था. 2007 में पहली बार साल MRF ने एक अरब अमेरिकी डॉलर का कारोबार करके रिकॉर्ड बनाया था. एक गुब्बारे बेचने वाले ने जिस एमआरएफ की शुरुआत की थी वो कंपनी आज हवाईजहजों के साथ ही लड़ाकू विमान सुखोई के लिए भी टायर बना रही है.

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₹15 कमाने वाला मजदूर कैसे बना 1600 करोड़ का मालिक? हिम्मत बढ़ा देगी ये कहानी

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अपनी ज़िंदगी को बनाना या बिगाड़ना इंसान के अपने हाथ में होता है. एक अमीर इंसान भी अपनी लापरवाहियों की वजह से सड़क पर आ सकता है. वहीं, अगर एक मजदूर ठान ले तो वो भी करोड़ों का मालिक बन सकता है. आज हम आपके लिए एक ऐसे ही मजदूर की कहानी लेकर आए हैं जिसने समय रहते ये जां लिया कि एक इंसान की सीमाएं असीमित हैं. वो जो चाहे वो कर सकता है. तभी तो ये मजदूर अरबों के साम्राज्य का मलिक बन गया. 

हंसते खेलते परिवार को लग गई नजर 

ये कहानी है सुदीप दत्ता की, वो सुदीप जो कभी 15 रुपये पर देहाड़ी मजदूरी किया करते थे लेकिन उन्होंने अपने अंदर के बिजनेसमैन को पहचाना और 1600 करोड़ की कंपनी के मालिक बन गए. एक मजदूर के रूप में अपने जीवन की शुरुआत करने वाले सुदीप दत्ता ने तमाम संघर्षों से जूझते हुए Ess Dee Aluminium Pvt Ltd जैसी बड़ी कंपनी की स्थापना की. 

पश्चिमी बंगाल, दुर्गापुर के एक सामान्य परिवार में जन्में सुदीप दत्ता एक भारतीय सैनिक के पुत्र थे. उनके घर की स्थिति तब तक ठीक थी जबतक उनके पिता ने बिस्तर नहीं पकड़ा था. दरअसल, इनके पिता 1971 में भारत-पाक जंग का हिस्सा रहे थे. इसी जंग में उन्हें गोली लगी और वह हमेशा के लिए पैरालाइज्ड हो गए. 

पिता के बिस्तर पकड़ते ही सुदीप के परिवार की जिम्मेदारी उनके बड़े भाई के कंधों पर आ गई. भाग्य ने कुछ ही समय के भीतर सुदीप के घर की स्थिति को जड़ से हिला कर रख दिया. बड़े भाई ने जैसे तैसे घर की जिम्मेदारी संभाल ली. वह खुद कमाते और घर चलाने के साथ साथ सुदीप को भी पढ़ाते. 

वक्त तो बुरा था लेकिन जैसे तैसे कट रहा था लेकिन स्थिति अभी और खराब होनी थी. सुदीप के बड़े भाई अचानक से बीमार पड़ गए. बीमारी भी ऐसी कि घटने की बजाए रोज रोज बढ़ती रही. घर की स्थिति ऐसी थी कि इनके भाई को उचित इलाज तक ना मिल सका. 

आखिरकार इस बीमारी ने इनके बड़े भाई को लील ही लिया. नियति ने यहीं दम नहीं लिया, अभी सुदीप के परिवार को किस्मत की एक और मार झेलनी थी. सुदीप के पिता अपने बड़े बेटे की मौत का सदमा झेल नहीं पाए और उनके जाने के कुछ दिन बाद ही उन्होंने अपने प्राण भी त्याग दिए.

अमिताभ बच्चन ने किया सुदीप दत्ता को प्रेरित  

बड़े भाई और पिता की जब मौत हुई उस समय सुदीप 16-17 साल के थे. पढ़ाई के नाम पर इनके पास बारहवीं पास का सर्टिफिकेट मात्र था. समस्या ये थी कि परिवार में अभी 4 भाई बहन तथा मां थी जिसकी जिम्मेदारी अब सुदीप को उठानी थी. वक्त की मार ने सुदीप को उम्र से पहले ही बड़ा बना दिया था. जिम्मेदारी तो कंधों पर आ गई थी लेकिन उन्हें ये बिलकुल नहीं पता था कि वह इसे निभाएंगे कैसे. 

इस बीच उनके मन में वेटर का काम करने या रिक्शा चलाने जैसे खयाल भी आए लेकिन उन्हें क्या पता था कि घर पर आई इस आपदा के बाद किस्मत उनके लिए करोड़पति बनने का रास्ता तैयार कर रही है. यह रास्ता उन्हें तब दिखा जब उनके दोस्तों ने उन्हें अमिताभ बच्चन का उदाहरण देते हुए मुंबई जाने की सलाह दी. 

चूंकि सुदीप पहले से ही अमिताभ बच्चन की सफलता की कहानी से प्रेरित थे ऊपर से दोस्तों की दी हिम्मत ने उन्हें बल दिया. इसके बाद सुदीप लाखों युवाओं की तरह अपनी किस्मत आजमाने मायानगरी मुंबई के लिए रवाना हुए.

करनी पड़ी मजदूरी  

सबकी तरह सुदीप भी आंखों में सुनहरे सपने लिए मुंबई पहुंचे थे लेकिन इस मायानगरी के छलावे ने उनके सपने सच करने के बदले उन्हें मजदूर बना दिया. हालांकि मुंबई के बारे में यह बात बहुत प्रसिद्ध है कि ये शहर हर इंसान को पहले परखता है और जो इसके इम्तेहान में पास हो जाता उसे ये शहर इतना देता है कि उससे संभाला नहीं जाता. शायद ये मुंबई सुदीप को भी परख रही थी. 

1988 में सुदीप ने अपने कमाने की शुरुआत एक कारखाना मजदूर के रूप में की. 12 लोगों की टीम के साथ वह एक करखाने में सामानों की पैकिंग, लोडिंग और डिलीवरी का काम करते थे. इसके बदले इन्हें दिन के मात्र 15 रुपये के हिसाब से मजदूरी मिलती थी. 

करोड़ों की संपत्ति बनाने वाले सुदीप को अपने शुरुआती दिनों में एक ऐसे छोटे से कमरे में रहना पड़ता था जहां पहले से ही 20 लोगों का बोरिया बिस्तरा लगा हुआ था. सुदीप का रूम मीरा रोड पर था और इन्हें काम के लिए जोगेश्वरी जाना पड़ता था. इस बीच का फासला 20 किमी था. ट्रांसपोर्ट का खर्चा बच सके इसलिए सुदीप हर रोज रूम से पैदल ही काम पर जाते और आते. इस तरह वह रोज 40 किमी का सफर पैदल तय करते थे.  

जिस कंपनी में की मजदूरी उसी को खरीद लिया

इस करखाने में पैकिंग का काम करते हुए सुदीप की ज़िंदगी के 2-3 साल गुजर चके थे. इतने वक्त में मुंबई शहर ने सुदीप को हर तरह से परख लिया था और अब समय था सपनों की उड़ान भरने का. सच ही कहते हैं एक का नुकसान दूसरे का फायदा बन जाता है और सुदीप को ये फायदा तब दिखा जब 1991 में कारखाने के मालिक को भारी नुकसान उठाना पड़ा. 

नौबत ये आ गई कि मालिक ने कारखाने को बंद करने का फैसला कर लिया. पिछले दो तीन साल से सुदीप केवल पसीना बहा कर प्रतिदिन 15 रुपये की देहाड़ी ही नहीं कमा रहे थे बल्कि इसके साथ ही वह इस धंधे की बारीकियों और इसे चलाने की प्रक्रिया को भी समझना रहे थे. 

यही कारण रहा कि जब उनकी कंपनी के मालिक ने इसे बेचने का मन बनाया तो सुदीप ने इस डूबती हुई कंपनी में अपना फायदा खोज लिया. हालांकि सुदीप आर्थिक रूप से इतने मजबूत नहीं थे कि इस कंपनी को खरीद सकते लेकिन इसके बावजूद वह इस मौके को हाथ से जाने नहीं देना चाहते थे.

यही वजह रही कि उन्होंने अपनी सारी बचत और अपने दोस्तों से उधार लेकर कुल 16000 रुपये इकट्ठा किए. 16000 रुपयों से किसी कंपनी को खरीदना, ये किसी मजाक जैसा था लेकिन जब इंसान जुनून से भरा हो तब उसे हर तरफ संभवना ही दिखती है. 

सुदीप जानते थे कि कंपनी के मालिक को कंपनी बंद करने पर कुछ नहीं मिलेगा, ऐसे में अगर उन्हें इसके बदले कुछ रुपये मिल रहे हों तो शायद वह इस डील के बारे में सोच लें. यही सोचकर वह कंपनी खरीदने के मकसद से मालिक के पास पहुंचे. 

वही हुआ जो सुदीप ने सोचा था, मालिक कंपनी बेचने को तैयार हो गया लेकिन इसके साथ ही उसने एक शर्त रखी और वो शर्त ये थी कि सुदीप अगले दो साल तक उस फैक्ट्री से होने वाला सारा मुनाफा मालिक को देंगे. सुदीप को किसी भी हाल में ये कंपनी चाहिए थी, उन्हें खुद पर इस बात का यकीन कि वह कंपनी से अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं. यही सोच कर सुदीप ने शर्त मान ली और उस कंपनी के मालिक बन गए, जिसमें वह मजदूरी किया करते थे.

मुश्किलों से लड़कर बढ़ते रहे आगे 

यह कहने और सुनने में आसान लगता है कि एक मजदूर ने कंपनी खरीदी और उसका मालिक बन गया जबकि असलियत इससे बहुत अलग होती है. सुदीप भी अभी तक केवल कागजों पर ही कंपनी के मालिक बने थे. इसके अलावा उनकी पारिवारिक समस्याओं तथा कंपनी के नाम पर लिए कर्जे ने उन्हें उलझा दिया था. दूसरी तरफ उन दिनों एल्यूमीनियम पैकेजिंग व्यापार का कठिन दौर चल रहा था. मार्केट में केवल जिंदल लिमिटेड और इंडिया फोइल जैसी बड़ी कंपनियों का ही बोलबाला था. 

समस्याएं बहुत थीं लेकिन सुदीप हार मानने वालों में से नहीं थे. यहां से वापस लौटने का उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा था. यही वो दौर था जब मार्केट में लचीली पैकेजिंग की मांग बढ़ने लगी. सुदीप ने इस मौके का फायदा उठाया और सबसे अच्छी पैकेजिंग देते हुए धीरे धीरे अपनी मार्केट बनाने लगे. सुदीप ने खूब मेहनत और रिसर्च की, वह अलग अलग कंपनियों में जा कर उनके प्रोडक्ट देखते और उससे अपने प्रोडक्ट की तुलना करते. ये उनकी मेहनत ही थी जिससे उन्हें सन फार्मा, सिपला, और नेस्ले जैसी बड़ी कंपनियों से भी ऑर्डर मिलने लगे.

बड़े ब्रांड्स को दी कड़ी टक्कर 

सुदीप सफलता के शिखर तक पहुंचे ही थे कि उन्हें एक जबरदस्त प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा. यही वो समय था जब अनिल अग्रवाल अपनी कंपनी वेदांता के साथ पैकेजिंग व्यापार में उतर गए. वेदांता का कद उन दिनों बहुत बड़ा था. लेकिन सुदीप हमेशा की तरह इस बार भी विचलित नहीं हुए और धैर्य से काम लिया. जितनी कड़ी प्रतिस्पर्धा थी, सुदीप ने उतनी ही ज्यादा मेहनत शुरू कर दी. 

फिर एक समय ऐसा आया जब उनकी मेहनत के कारण उनके प्रोडक्ट की गुणवत्ता कई गुना बढ़ गई. सुदीप की इस मेहनत का ये नतीजा निकला कि इस प्रतिस्पर्धा में उनकी जीत हुई और वेदांता को हार माननी पड़ी. 2008 में सुदीप द्वारा वेदांता को 130 करोड़ रुपये में खरीद लिया गया तथा पैकेजिंग व्यापार में वेदांता का सफर स्थायी रूप से थम गया.

15 रुपये कमाने वाले मजदूर की ऊंची उड़ान 

सुदीप ने अपनी कंपनी Ess Dee Aluminium का विस्तार कर इसे  Ess Dee Aluminum Company Expands Rapidly बना लिया. 1998 से 2000 के बीच सुदीप ने पूरे देश में अपने 12 यूनिट स्थापित किए. एक समय ऐसा आया जब सुदीप की कंपनी भारत की नंबर 1 पैकेजिंग कंपनी बन कर उभरी. इस दौरान इनकी Ess Dee Aluminium कंपनी बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में भी लिस्ट की गई. इन्हें इनकी मेहनत के लिए पैकेजिंग उद्योग के नारायण मूर्ति कह कर बुलाया जाने लगा. 

उस समय Ess Dee Aluminium कंपनी की मार्केट वैल्यू 1600 करोड़ से भी अधिक थी. बताया जाता है कि सुदीप दत्ता ने गरीब लोगों की मदद के लिए सुदीप दत्ता फाउंडेशन की स्थापना की थी. इसके साथ ही इन्होंने अपने जैसे उन युवाओं की मदद के लिए प्रोजेक्ट हैलपिंग हैंड की शुरुआत भी की थी, जो अपनी आंखों में बड़े सपने लिए मुंबई शहर में आते हैं.

कहानी का दूसरा पहलू भी है 

जिस तरह से सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी तरह सुदीप दत्ता की कहानी के भी दो पहलू हैं. उनकी कहानी केवल उनकी सफलता पर ही खत्म नहीं होती बल्कि इसके अलावा उनके जीवन में और भी बहुत कुछ हुआ जिससे उनकी छवि खराब हुई. 

कोई समय था जब उनकी कंपनी के मजदूर उन्हें मालिक या साहब नहीं बल्कि दादा कह कर संबोधित लेकिन बाद में उन्हें इन्हीं मजदूरों की तनख्वाह ना देने और पीएफ का पैसा हड़प जाने के जुर्म में गिरफ्तार किया गया. कुछ गलत फैसलों के कारण सुदीप दत्ता की कंपनी Ess Dee Aluminium दिवालिया घोषित हो गई.

सितंबर 2017 में सुदीप पर 42 लाख रुपये प्रोविंडेंट फंड बकाये का आरोप लगा और उन्हें प्रोविडेंट फंड डिफॉल्ट मामले में गिरफ्तार भी किया गया. हालांकि कंपनी का दावा था कि वह कामरहाटी यूनिट के कर्मचारियों को इसका भुगतान कर चुकी है. 

इकोनॉमिक टाइम्स की एक पुरानी रिपोर्ट के अनुसार खुद पर लगे इस इल्जाम पर सफाई देते हुए दत्ता ने राज्य के वित्त मंत्री को एक पत्र लिखा था जिसमें उनका कहना था कि उनकी संस्था के कर्मचारियों को तृणमूल कांग्रेस के एक विधायक द्वारा लगातार गुमराह किया जा रहा था, इसी वजह से उनके साथ ऐसा हुआ.

सब कुछ सही चल रहा था लेकिन दत्ता ने कम समय में ही कुछ और बड़ा करने का मन बनाया. इसी के बाद स्थिति बिगड़ने लगी. दरअसल दत्ता ने 2014 में जर्मनी सरकार के साथ 450 करोड़ रुपये का निवेश करने के लिए सहयोग किया. इसके लिए उन्होंने कम समय के लिए कर्ज उठाया लेकिन वह इतने कम समय में लोन उतार नहीं पाए और उनकी कंपनी कर्ज के जाल में फंसती चली गई. जिसके बाद उनकी सभी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट बंद हो गईं. दत्ता अपने परिवार के साथ अब सिंगापुर में रहते हैं.

भले ही सुदीप दत्ता के जीवन के कई पहलू रहे हों लेकिन हमें किसी से भी उनकी अच्छाई सीखनी होती है. दत्ता के विषय में सीखने वाली बात यही है कि कैसे परिस्थितियों से लड़ कर आगे बढ़ा जाए और कैसे अपनी मेहनत और सूझबूझ से किस्मत में लिखी गरीबी को मिटाया जाए. 

दत्ता ने एक इंटरव्यू के दौरान अपने पुराने वक्त को याद करते हुए कहा था कि जब वह अपने पहले बिजनेस के लिए बैंक से 40000 का लोन लेने गए थे तब बैंक वालों ने उनके साथ अभद्रता से बात की थी लेकिन जब उनके पास पैसे आए तो वही बैंक वाले उनके आसपास मंडराते रहते थे. इस पर दत्ता ने एक बहुत अच्छा कोट कहा था ‘मक्खियां वहीं मंडराती हैं जहां शहद होता है. तब मेरे पास शहद नहीं था लेकिन आज है.’

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